जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है..?
जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है..?
जप के अनेक प्रकार हैं।
उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं।
परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं।
जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है।
जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं-
1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि।
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1. नित्य जप
प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है।
यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए।
आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए।
उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं।
और जप संख्या ज्यों - ज्यों बढ़ती है, त्यों - त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है।
2. नैमित्तिक जप
किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है।
देव - पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है।
सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है।
उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए।
इससे पुण्य - संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है।
यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं।
'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है।
इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है।
पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं।
हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है।
जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है।
इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है।
इस लिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए।
गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है।
3. काम्य जप
किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं।
यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है।
आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है।
इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है।
योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।
इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता।
काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं।
जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है।
इस लिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्छा नहीं समझते।
परंतु सभी साधक समान नहीं होते।
कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं।
क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है।
4. निषिद्ध जप
मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं।
निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है।
मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं।
ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है।
5. प्रायश्चित जप
अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित - नाश के लिए जो जप किया जाता है...!
वह प्रायश्चित जप है।
प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है।
मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं।
यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है।
पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं।
इस लिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।
मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है।
इस लिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है।
नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे।
अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए।
नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए।
प्रात:काल में पहले गोमूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें।
यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म - चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें।
अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें।
केवल तुलसी दल - तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें।
इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा।
जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए।
दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्या पूरी करें।
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6. अचल जप
यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए।
इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है।
इसमें इच्छाशक्ति के साथ - साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है।
इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए।
स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश - काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।
अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए।
जप निश्चित संख्या से कभी कम न हो।
जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए।
इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए।
यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार - विहार संयमित हों।
एक स्थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है।
इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए।
इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है।
भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है।
7. चल जप
यह जप नाम स्मरण जैसा है।
प्रसिद्ध वामन पंडित के कथनानुसार 'आते - जाते, उठते - बैठते, करते - धरते, देते - लेते, मुख से अन्न खाते, सोते - जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है।
अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है।
यह जप कोई भी कर सकता है।
इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है।
अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक् - शक्ति प्राप्त होती है।
पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली - कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे।
इससे बड़ी शक्ति संचित होती है।
इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।
जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है।
सुखपूर्वक संसार - यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है।
उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है।
मन निर्विषय हो जाता है।
ईश - सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है।
उसका योग - क्षेम भगवान वहन करते हैं।
वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है।
इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी - सी 'सुमरिनी' रखते हैं इस लिए कि कहीं विस्मरण होने का - सा मौका आ जाए तो वहां यह सुमरिनी विस्मरण न होने देगी।
सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे।
सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें।
सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो।
8. वाचिक जप
जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं।
बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है।
परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्छा है।
विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है।
जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है।
आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं।
इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।
सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं।
महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है।
इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं।
इस जप से वाक् - सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है।
वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते।
अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं।
जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है।
एक वाक् - शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े - बड़े काम हो सकते हैं।
कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं।
वाक् - शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है।
यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है।
9. उपांशु जप
वाचिक जप के बाद का यह जप है।
इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता।
विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है।
इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो - जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं।
इससे अपने अंग - प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है।
यही तप का तेज है।
इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है।
एक नशा - सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित - सी होती हैं, यही मूर्च्छना है।
इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है।
वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं।
मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता - सा मालूम होता है-
भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं।
अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है।
10. भ्रमर जप
भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है।
किसी को यह जप करते, देखते - सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है।
इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं।
आंखें झपी रखनी पड़ती हैं।
भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है।
यह जप बड़े ही महत्व का है।
इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है।
प्राणगति धीर - धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे - धीरे होने लगता है।
पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है।
इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता।
वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है।
इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व - दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है।
ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं।
शरीर पुलकित होता है।
नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है।
सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है।
वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है।
मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता।
उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं।
स्मरण शक्ति बढ़ती है।
प्राक्तन स्मृति जागती है।
मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है।
तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है।
बुद्धि का बल बढ़ता है।
मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं।
नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है।
उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है।
'योगतारावली' में भगवान श्री शंकराचार्य कहते हैं कि भगवान श्री शंकर ने मनोलय के सवा लाख उपाय बताए।
उनमें नादानुसंधान को सबसे श्रेष्ठ बताया।
उस अनाहत संगीत को श्रवण करने का प्रयत्न करने से पूर्व भ्रमर - जप सध जाए तो आगे का मार्ग बहुत ही सुगम हो जाता है।
चित्त को तुरंत एकाग्र करने का इससे श्रेष्ठ उपाय और कोई नहीं है।
इस जप से साधक को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है और उसके द्वारा वह स्वपरहित साधन कर सकता है।
यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों में काम देता है।
शांत समय में यह जप करना चाहिए।
इस जप से यौगिक तन्द्रा बढ़ती जाती है और फिर उससे योगनिद्रा आती है।
इस जप के सिद्ध होने से आंतरिक तेज बहुत बढ़ जाता है और दिव्य दर्शन होने लगते हैं, दिव्य जगत प्रत्यक्ष होने लगता है, इष्टदर्शन होते हैं, दृष्टांत होते हैं और तप का तेज प्राप्त होता है।
कवि कुलतिलक कालिदास ने जो कहा है-
शमप्रधानेषु तपोधनेषु
गूढं हि दहात्मकमस्ति तेज:।
बहुत ही ठीक है- 'शमप्रधान तपस्वियों में ( शत्रुओं को ) जलाने वाला तेज छिपा हुआ रहता है।'
11. मानस जप
यह तो जप का प्राण ही है।
इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है।
इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है।
मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है।
नेत्र बंद रहते हैं।
मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्य है।
श्री पंडारामा महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है।
भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं।
उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है।
पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है।
और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है।
नादानुसंधान के साथ - साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है।
केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्छा है।
श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं-
'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है।
भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए?
चित्त जैसे - जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे - वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा।
नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'
( प्रबोधसुधाकर 144 - 148 ) 'योगतारावली' में श्रीमदाद्य शंकराचार्य ने इसका वर्णन किया है।
श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने 'ज्ञानेश्वरी' में इस साधन की बात कही है।
अनेक संत - महात्मा इस साधन के द्वारा परम पद को प्राप्त हो गए। यह ऐसा साधन है कि अल्पायास से निजानंद प्राप्त होता है।
नाद में बड़ी विचित्र शक्ति है।
बाहर का सुमधुर संगीत सुनने से जो आनंद होता है, उसका अनुभव तो सभी को है, पर भीतर के इस संगीत का माधुर्य और आनंद ऐसा है कि तुरंत मनोलय होकर प्राणजय और वासनाक्षय होता है।
इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुत:।
मारुतस्य लयो नाथ: स लयो नादमाश्रित:।।
(ह.प्र.)
'श्रोत्रादि इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी प्राणवायु है।
प्राणवायु का स्वामी मनोलय है और मनोलय नाद के आसरे होता है।'
सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है।
आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है।
अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है।
मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान-
ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं।
इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है।
12. अखंड जप
यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है।
शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है।
कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें।
कहा है-
जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।
जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।
'जप करते - करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें।
ध्यान करते - करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'
'तज्जपस्तदर्थभावनम्' इस योगसूत्र के अनुसार मंत्रार्थ का विचार करके उस भावना के साथ मंत्रावृत्ति करें।
तब जप बंद करके स्वरूपवाचक 'अजो नित्य:' इत्यादि शब्दों का विचार करते हुए स्वरूप ध्यान करें।
तब ध्यान बंद करके तत्वचिंतन करें।
आत्मविचार में ज्ञानविषयक ग्रंथावलोकन भी आ ही जाता है।
उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, शांकरभाष्य, श्रीमदाचार्य के स्वतंत्र ग्रंथ, अद्वैतसिद्धि, स्वाराज्यसिद्धि, नैष्कर्म्यसिद्धि, खंडन - खंडखाद्य, अष्टावक्र गीता, अवधूत गीता, योवासिष्ट आदि ग्रंथों का अवलोकन अवश्य करें।
जो संस्कृत नहीं जानते, वे भाषा में ही इनके अनुवाद पढ़ें अथवा अपनी भाषा में संत - महात्माओं के जो तात्विक ग्रंथ हों, उन्हें देखें।
आत्मानंद के साधनस्वरूप जो दो संपत्तियां हैं, उनके विषय में कहा गया है-
अत्यन्ताभावसम्पत्तौ ज्ञातुर्ज्ञेयस्य वस्तुन:।
युक्तया शास्त्रैर्यतन्ते ये ते तन्त्राभ्यासिन: स्थिता:।।
(यो.वा.)
'ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिथ्या हैं।
ऐसी स्थिर बुद्धि का स्थिर होना अभाव संपत्ति कहाता है और ज्ञाता और ज्ञेय रूप से भी उनकी प्रतीति का न होना अत्यंत अभाव संपत्ति कहाता है।
इस प्रकार की संपत्ति के लिए जो लोग युक्ति और शास्त्र के द्वारा यत्नवान होते हैं, वे ही मनोनाश आदि के सच्चे अभ्यासी होते हैं।'
ये अभ्यास तीन प्रकार के होते हैं-
ब्रह्माभ्यास, बोधाभ्यास और ज्ञानाभ्यास।
दृश्यासम्भवबोधेन रागद्वेषादि तानवे।
रतिर्नवोदिता यासौ ब्रह्माभ्यास: स उच्यते।।
(यो.वा.)
दृश्य पदार्थों के असंभव होने के बोध से रागद्वेष क्षीण होते हैं, तब जो नवीन रति होती है, उसे ब्रह्माभ्यास कहते हैं।
सर्गादावेव नोत्पन्नं दृश्यं नास्त्येव तत्सदा।
इदं जगदहं चेति बोधाभ्यासं विदु: परम्।।
(यो.वा.)
सृष्टि के आदि में यह जगत उत्पन्न ही नहीं हुआ।
इस लिए वह यह जगत और अहं (मैं) हैं ही नहीं, ऐसा जो बोध होता है, उसे ज्ञाता लोग बोधाभ्यास कहते हैं।
तच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्वबोधनम्।
एतदेकपरत्वं च ज्ञानाभ्यासं विदुर्बुधा:।।
(यो.वा.)
उसी तत्व का चिंतन करना, उसी का कथन करना, परस्पर उसी का बोध करना और उसी के परायण होकर रहना, इसको बुधजन ज्ञानाभ्यास के नाम से जानते हैं।
अभ्यास अर्थात आत्मचिंतन का यह सामान्य स्वरूप है।
ये तीनों उपाय अर्थात जप, ध्यान और तत्वचिंतन सतत करना ही अखंड जप है।
सतत 12 वर्षपर्यंत ऐसा जप हो, तब उसे तप कहते हैं। इससे महासिद्धि प्राप्त होती है।
गोस्वामी तुलसीदास, समर्थ गुरु रामदास आदि अनेक संतों ने ऐसा तप किया था।
13. अजपा जप
यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है।
किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है।
अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है।
इसके लिए माला का कुछ काम नहीं।
श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है।
अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है।
इसी रीति से सहस्रों संख्या में जप होता रहता है।
इस विषय में एक महात्मा कहते हैं-
राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम।
14. प्रदक्षिणा जप
इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल - वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है-
मनोरथ पूर्ण होता है।
यहां तक मंत्र जप के कुछ प्रकार, विस्तार भय से संक्षेप में ही निवेदन किए।
अब यह देखें कि जपयोग कैसा है-
योग से इसका कैसा साम्य है।
योग के यम - नियमादि 8 अंग होते हैं।
ये आठों अंग जप में आ जाते हैं।
(1) यम👉 यह बाह्येन्द्रियों का निग्रह अर्थात 'दम' है।
आसन पर बैठना, दृष्टि को स्थिर करना यह सब यम ही है।
(2) नियम👉 यह अंतरिन्द्रियों का निग्रह अर्थात् 'शम्' है।
मन को एकाग्र करना इत्यादि से इसका साधन इसमें होता है।
(3) स्थिरता👉 से सुखपूर्वक विशिष्ट रीति से बैठने को आसन कहते हैं।
जप में पद्मासन आदि लगाना ही पड़ता है।
(4) प्राणायाम👉 विशिष्ट रीति से श्वासोच्छवास की क्रिया करना प्राणायाम है।
जप में यह करना ही पड़ता है।
(5) प्रत्याहार👉 शब्दादि विषयों की ओर मन जाता है, वहां से उसे लौटकर अंतरमुख करना प्रत्याहार है, सो इसमें करना पड़ता है।
(6) धारणा👉 एक ही स्थान में दृष्टि को स्थिर करना जप में आवश्यक है।
(7) ध्यान👉 ध्येय पर चित्त की एकाग्रता जप में होनी ही चाहिए।
(8) समाधि👉 ध्येय के साथ तदाकारता जप में आवश्यक ही है।
तात्पर्य, अष्टांग योग जप में आ जाता है, इसी लिए इसे जपयोग कहते हैं।
कर्म, उपासना, ज्ञान और योग के मुख्य - मुख्य अंग जपयोग में हैं इस लिए यह मुख्य साधन है।
यह योग सदा सर्वदा सर्वत्र सबके लिए है।
इस समय तो इससे बढ़कर कोई साधन ही नहीं। पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
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