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जय द्वारकाधीश
।। सुंदर कहानी ।।
घूँघट और पर्दा प्रथा का प्राचीन स्वरूप / * दस दिन की अवधि *
|| घूँघट और पर्दा प्रथा का प्राचीन स्वरूप ||
पर्दा और घूँघट प्रथा का वर्तमान स्वरूप मुग़लों की देन है ।
किन्तु प्राचीन भारत में पर्दा प्रथा और घूँघट प्रथा रही है , वहाँ घूँघट का अर्थ मुख ढँकना नहीं अपितु सिर को साड़ी या चुनरी से ढँकना था ।
ऐसा भी नहीं था कि सिर ढँकना स्त्रियों के लिये ही अनिवार्य था ,पुरुषों के लिये भी सिर ढँकना अनिवार्य था ।
स्त्रियाँ साड़ी - चुनरी से सिर को ढँककर रखती थीं ,तो पुरुष मुकुट - पगड़ी आदि से सिर को ढँकते थे ।
स्त्रियों का पहनावा कैसा हो ?
इस विषय में स्वयं वेद प्रमाण है...!
ऋग्वेद 10/71/४4 में कहा है-
स्त्री को लज्जापूर्ण रहना चाहिये, कि दूसरा पुरुष मनुष्य उसका रूप देखता हुआ भी न देख सके ।
वाणी सुनता हुआ भी पूरी तरह न सुन सके ।
एक अन्य मन्त्र में –
अधः पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर ।
मा ते कशप्लकौ दृशन्त्स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ ।।
(ऋग्वेद 8/43/19)
अर्थात्
‘ साध्वी नारी !
तुम नीचे देखा करो ( तुम्हारी दृष्टि विनय से झुकी रहे ) ऊपर न देखो । '
पैरों को परस्पर मिलाये रक्खो ( टाँगों को फैलाओ मत ) वस्त्र इस प्रकार पहनो, जिससे तुम्हारे ओष्ठ तथा कटि के नीचे के भागपर किसी की दृष्टि न पड़े ।
इससे स्पष्ट है कि स्त्री सलज्ज और मुख पर घूँघट डाले रहे ।
पर्दा प्रथा के इतिहास पर भी अवलोकन करें,तो सर्वप्रथम रामायण के प्रसङ्ग देखिये –
माता जानकी जी जब वनवास जा रही थीं...!
तब उन्हें देखने वाली प्रजा कहती है-
या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि ।
तामद्य सीतां पश्यति राजमार्गगता जना: ।।
(वाल्मीकिरामायण 2/33/8)
अर्थात् -
ओह !
पहले जिसे आकाश में विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे,उसी सीता को इस समय सड़कों पर खड़े हुए लोग देख रहे हैं ।
मन्दोदरी रावण के वध पर....!
विलाप करते हुए कहती है –
दृष्ट्वा न खल्वभिक्रुद्धो मामिहान वगुष्ठिताम् ।
निर्गतां नगरद्वारात् पद्भ्यामेवागतां प्रभो ।।
(वाल्मीकिरामायण 6/11१/61)
अर्थात् -
‘ प्रभो ! '
आज मेरे मुँह पर घूँघट नहीं है ,मैं नगर द्वार से पैदल ही चलकर यहाँ आयी हूँ ।
' इस दशा में मुझे देखकर आप क्रोध क्यों नहीं करते हैं ? ’
दूसरा प्रसङ्ग महाभारत से देखिये -
कुरु सभा में द्यूतक्रीड़ाके समय द्रौपदी कहती हैं.....!
यां न वायुर्न चादित्यो दृष्टवन्तौ पुरा गृहे ।
साहमद्य सभामध्ये दृश्यास्मि जनसंसदि ।।
(महाभारत सभापर्व 69/5)
अर्थात् -
पहले राजभवन में रहते हुए जिसे वायु तथा सूर्य भी नहीं देख पाते थे,वही आज इस सभा के भीतर महान् जनसमुदाय में आकर सबके नेत्रों की लक्ष्य बन गयी हूँ ।
रामायण - महाभारत के प्रसङ्गों से ऐसा प्रतीत होता है, पर्दा प्रथा सामान्य स्त्रियों के लिये न होकर राजवंश की राजकुमारियों-रानियों के लिये ही थी।
राजवंश की ये रानी-
राजकुमारियां बड़े सुखों से रहती थीं,जैसे आधुनिक युग में ऐसी में रहने वाली ।
वे विशिष्ट अवसरों पर ही बाहर निकलती थीं ,वे अवसर थे –
व्यासनेषु न कृच्छ्रेषु न युद्धेषु स्वयंवरे ।
न कृतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिया: ।।
(वाल्मीकिरामायण 6/114/28)
अर्थात्-
विपत्तिकाल में,शारीरिक या मानसिक पीड़ा के अवसर पर,युद्धमें,यज्ञ में अथवा विवाह में स्त्री का दीखना दोष की बात नहीं है!
अर्थात् -
इन अवसरों पर राजकुल. की स्त्रियाँ पुरुषों के मध्य जाती थीं,उस समय उन्हें कोई दोष नहीं देता था ।
पर्दा प्रथा या घूँघट प्रथा पर भगवान् श्रीराम का यह वचन बहुत ही महत्त्वपूर्ण , प्राचीन और आधुनिक परिवेश का समन्वय है –
न गृहाणि न वस्त्राणि न प्रकारस्त्रिरस्क्रिया ।
नेदृशा राजसत्कारा वृत्तयावरणं स्त्रिया: ।।
(वाल्मीकिराम. 6/114/27)
अर्थात् -
घर , वस्त्र और चहार दीवारी आदि वस्तुएँ स्त्री के लिये परदा नहीं हुआ करतीं ।
इस तरह लोगों को दूर हटाने ( किसी स्त्रीके समाज में आने पर पुरुषों को वहाँ से हटा देना,जिससे वे पुरुष उस स्त्री को न देख सकें ) से जो निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार है,ये भी स्त्रीके लिये आवरण या पर्दे का काम नहीं देते हैं ।
पति से प्राप्त होने वाले सत्कार तथा नारी के अपने सदाचार —
ये ही उसके लिये आवरण हैं ।
|| जय सियाराम जय हनुमान ||
*दस दिन की अवधि*
एक राजा था ।
उसने 10 जंगली कुत्ते पाल रखे थे ।
जिनका प्रयोग वह लोगों को उनके द्वारा की गयी गलतियों पर मृत्यु दंड देने के लिए करता था ।
एक बार कुछ ऐसा हुआ कि राजा के एक पुराने मंत्री से कोई गलती हो गयी।
अतः क्रोधित होकर राजा ने उसे शिकारी कुत्तों के सम्मुख फिकवाने का आदेश दे डाला।
सजा दिए जाने से पूर्व राजा ने मंत्री से उसकी आखिरी इच्छा पूछी।
“राजन !
मैंने आज्ञाकारी सेवक के रूप में आपकी 10 सालों से सेवा की है…
मैं सजा पाने से पहले आपसे 10 दिनों की अवधि चाहता हूँ ।”
मंत्री ने राजा से निवेदन किया ।
राजा ने उसकी बात मान ली ।
दस दिन बाद राजा के सैनिक मंत्री को पकड़ कर लाते हैं और राजा का निर्देश पाते ही उसे जंगली कुत्तों के सामने फेंक देते हैं।
परंतु यह क्या कुत्ते मंत्री पर टूट पड़ने की बाजए अपनी पूँछ हिला-हिला कर मंत्री के ऊपर कूदने लगते हैं और प्यार से उसके पैर चाटने लगते हैं।
राजा आश्चर्य से यह सब देख रहा था।
उसने मन ही मन सोचा कि आखिर इन जंगली कुत्तों को क्या हो गया है ?
वे इस तरह क्यों व्यवहार कर रहे हैं ?
आखिरकार राजा से रहा नहीं गया उसने मंत्री से पुछा ।
” ये क्या हो रहा है ।
ये कुत्ते तुम्हे काटने की बजाये तुम्हारे साथ खेल क्यों रहे हैं?”
” राजन !
मैंने आपसे जो १० दिनों की अवधि ली थी ।
उसका एक-एक क्षण मैंने इन गूंगे जानवरों की सेवा करने में लगा दिया।
मैं रोज इन कुत्तों को नहलाता।
खाना खिलाता व हर तरह से उनका ध्यान रखता।
ये कुत्ते जंगली होकर भी मेरे दस दिन की सेवा नहीं भुला पा रहे हैं।
परंतु खेद है ।
कि आप प्रजा के पालक हो कर भी मेरी 10 वर्षों की स्वामीभक्ति भूल गए और मेरी एक छोटी सी त्रुटि पर इतनी बड़ी सजा सुन दी.! ”
राजा को अपनी भूल का ज्ञान हो चुका था ।
उसने तत्काल मंत्री को मुक्त करने की आज्ञा दी और आगे से ऐसी गलती ना करने की सौगंध ली।
मित्रों ,
कई बार इस राजा की तरह हम भी किसी की बरसों की अच्छाई को उसके एक पल की बुराई के आगे भुला देते हैं।
यह कहानी हमें क्षमाशील होना सीखाती है।
ये हमें शिक्षा देती है कि हम किसी की हज़ार अच्छाइयों को उसकी एक बुराई के सामने छोटा ना होने दें।
हर हर महादेव हर
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏