सेवक सेव्य भाव / नर्मदा जयन्ती
|| सेवक सेव्य भाव ||
सेवा - पुरुषार्थ में भगवान की कृपा का दर्शन ही भक्ति का एक मात्र साधन है जो करना नहीं पड़ता है सहज ही हो जाता है।
हे मेरे हनुमान जी हम भी उन बंदरों में एक हैं जो अभी शरीर और संसार भाव से ऊपर नहीं उठ सके हैं आप कृपा कीजिए।
मन बुद्धि और चित्त के सम्यक् योग के बिना सेवक का अपने सेव्य स्वामी के ह्रदय में प्रवेश संभव नहीं है।
हनुमान जी के ह्रदय में श्रीराम हैं और श्रीराम के ह्रदय में हनुमान जी, यही है सेवक सेव्य भाव।
हनुमान जी केवल वही नहीं करते हैं जो भगवान कहते हैं, हनुमान जी तो वह भी सब कर देते हैं जो उनके प्रभु चाहते हैं।
अपने चाहने का अभाव और स्वामी की चाह में स्थिति यही सेवा है, ' सेवक सोई जो स्वामि हित करई ' , अपने हित अनहित की चिंता सेवक को कदापि नहीं होती है।
हनुमान जी भगवान के वे अनन्य भक्त हैं, जिनके मन में भगवान का कोई विकल्प नहीं है....!
बुद्धि केवल अपने प्रभु के कार्यों की सुसमीक्षा करती है, और चित्त में राम के अतिरिक्त किसी एक अणु की भी उपस्थिति नहीं है।
सारी बानर सेना और सुग्रीवादि सबका हित हनुमान जी के कारण ही हुआ....!
हनुमान जी के अभाव में रामायण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
जीवन का उत्कर्ष केवल भौतिक उन्नति नहीं है....!
अपितु ईश्वर की कृपा प्राप्त कर लेना जीव का परम पुरुषार्थ है....!
जीव का स्वार्थ और परमार्थ सब राम विषयक होना चाहिए तब जीव और ब्रह्म की एकता सिद्ध होती है।
' स्वारथ साँच जीव कहँ ऐहू - मन क्रम बचन राम पद नेहू ' तथा ' सखा परम परमारथ ऐहू - मन क्रम बचन राम पद नेहू ' हनुमान जी ने राम को ही स्वार्थ माना और राम को ही परमार्थ माना।
जब - तक स्वार्थ और परमार्थ मिलकर राम को समर्पित नहीं होते तब - तक दोनों अपने स्वरूप को धन्य नहीं कर सकते हैं।
श्रीराम की सेना में विभीषण, सुग्रीव, बानर,भालू सबका स्वार्थ हनुमान जी ने पूर्ण करवाया यही उनका परमार्थ है।
जब - तक दूसरे को स्वार्थी और अपने को परमार्थी बताने की वृत्ति बनी रहेगी तब - तक साधक अपने परम परमार्थ रूप ईश्वर से एकाकार नहीं हो सकेगा।
हनुमान जी महाराज ही मात्र ऐसे हैं जो भगवान के आर्त, अर्थार्थी, ज्ञानी और जिज्ञासु भक्त हैं सबके अनुरूप उनकी सेवा करके भी उसको वे भगवान की ही सेवा मानते हैं।
|| जय श्री राम जय हनुमान ||
|| आज नर्मदा जयन्ती है - ||
छठ और सप्तमी तिथि संयुक्त होने से
नर्मदा जयंती क्यों मनाई जाती है ?
पौराणिक कथाओं के अनुसार, माघ माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मां नर्मदा का प्राकट्य हुआ था।
इसी कारण प्रतिवर्ष इस दिन नर्मदा जयंती मनाई जाती है और श्रद्धालु नर्मदा नदी में स्नान कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं।
धार्मिक मान्यता है....!
कि इस दिन नर्मदा नदी में स्नान करने से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है और व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से भी निजात पाता है।
स्कंद पुराण के रेवाखंड में ऋषि मार्केडेयजी ने लिखा है कि नर्मदा के तट पर भगवान नारायण के सभी अवतारों ने आकरमां की स्तुति की।
पुराणों में ऐसा वर्णित है कि संसार में एकमात्र मां नर्मदा नदी ही है जिसकी परिक्रमा सिद्ध, नाग, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, मानव आदि करते हैं ।
आदिगुरु शंकराचार्यजी ने नर्मदाष्टक में माता को सर्वतीर्थ नायकम् से संबोधित किया है।
अर्थात :
माता को सभी तीर्थों का अग्रज कहा गया है।
नर्मदा के तटों पर ही संसार में सनातन धर्म की ध्वज पताका लहराने वाले परमहंसी, योगियों ने तप कर संसार में अद्वितीय कार्य किए।अनेक चमत्कार भी परमहंसियों ने किए जिनमें दादा धूनीवाले, दादा ठनठनपालजी महाराज, रामकृष्ण परमहंसजी के गुरु तोतापुरीजी महाराज, गोविंदपादाचार्य के शिष्य आदिगुरु शंकराचार्यजी सहित अन्य विभूतियां शामिल हैं।
नर्मदा जिसे रेवा या मेकल कन्या के नाम से भी जाना जाता है।
मध्य भारत कि सबसे बड़ी एवं भारतीय उप महाद्वीप कि पांचवी सबसे बड़ी नदी है।
यह पूर्णतः भारत में बहने वाली गंगा एवं गोदावरी के बाद तीसरी सबसे बड़ी नदी है।
यह उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के बीच पारम्परि विभाजन रेखा के रूप में पश्चिम दिशा कि और बहती है ।
ओंकारेश्वर में नर्मदा -
ओंकारेश्वर में भक्त एवं पुजारी नर्मदा जी कि आरती करते हैं एवं प्रतिदिन संध्याकाल में नदी में दीपक प्रवाहित करते हैं, इसे दीपदान कहते हैं।
नर्मदा जयंती एवं अन्य पर्वों पर यह कार्य वृहद स्तर पर किया जाता है।
यहाँ नर्मदा दो भागों में बंटकर एक द्वीप का निर्माण करती हैं जिसे पुराणों में वैदूर्यमणि पर्वत कहा जाता है, जहाँ पर ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है।
इस द्वीप के उत्तर में कावेरी नदी मानी जाती है।
जो कि चौड़ी एवं उथली है तथा उत्तर में नर्मदा है जो संकरी एवं गहरी है।
माघ शुक्ल सप्तमी का दिन
अमरकंटक से लेकर खंभात की खाड़ी तक के रेवा - प्रवाह पथ में पड़ने वाले सभी ग्रामों व नगरों में उल्लास और उत्सव का दिन है।
क्योंकि नर्मदा जयंती है।
कहा गया है-
गंगा कनखले पुण्या,कुरुक्षेत्रे सरस्वती,
ग्रामे वा यदि वारण्ये,पुण्या सर्वत्र नर्मदा।
आशय यह कि गंगा कनखल में और सरस्वती कुरुक्षेत्र में पवित्र है किन्तु गांव हो या वन नर्मदा हर जगह पुण्य प्रदायिका महासरिता है।
अद्वितीया,पुण्यतोया, शिव की आनंद विधायिनी, सार्थक नाम्ना स्रोतस्विनी नर्मदा का उजला आंचल इन दिनों मैला हो गया है,जो कि चिंता का विषय है।
'नर्मदाय नमः प्रातः, नर्मदायनमो निशि, नमोस्तु नर्मदे ।
नर्मदा
मैं नर्मदा हूं।
जब गंगा नहीं थी , तब भी मैं थी।
जब हिमालय नहीं था , तभी भी मै थी।
मेरे किनारों पर नागर सभ्यता का विकास नहीं हुआ।
मेरे दोनों किनारों पर तो दंडकारण्य के घने जंगलों की भरमार थी।
इसी के कारण आर्य मुझ तक नहीं पहुंच सके।
मैं अनेक वर्षों तक आर्यावर्त की सीमा रेखा बनी रही।
उन दिनों मेरे तट पर उत्तरापथ समाप्त होता था और दक्षिणापथ शुरू होता था।
मेरे तट पर मोहनजोदड़ो जैसी नागर संस्कृति नहीं रही, लेकिन एक आरण्यक संस्कृति अवश्य रही।
मेरे तटवर्ती वनों मे मार्कंडेय, कपिल, भृगु , जमदग्नि आदि अनेक ऋषियों के आश्रम रहे ।
यहाँ की यज्ञवेदियों का धुआँ आकाश में मंडराता था ।
ऋषियों का कहना था कि तपस्या तो बस नर्मदा तट पर ही करनी चाहिए।
इन्हीं ऋषियों में से एक ने मेरा नाम रखा, " रेवा "।
रेव् यानी कूदना।
उन्होंने मुझे चट्टानों में कूदते फांदते देखा तो मेरा नाम "रेवा" रखा।
एक अन्य ऋषि ने मेरा नाम " नर्मदा " रखा ।
" नर्म " यानी आनंद ।
आनंद देनेवाली नदी।
मैं भारत की सात प्रमुख नदियों में से हूं ।
गंगा के बाद मेरा ही महत्व है ।
पुराणों में जितना मुझ पर लिखा गया है उतना और किसी नदी पर नहीं ।
स्कंदपुराण का " रेवाखंड " तो पूरा का पूरा मुझको ही अर्पित है।
" पुराण कहते हैं कि जो पुण्य , गंगा में स्नान करने से मिलता है, वह मेरे दर्शन मात्र से मिल जाता है। "
मेरा जन्म अमरकंटक में हुआ ।
मैं पश्चिम की ओर बहती हूं।
मेरा प्रवाह आधार चट्टानी भूमि है।
मेरे तट पर आदिमजातियां निवास करती हैं ।
जीवन में मैंने सदा कड़ा संघर्ष किया।
मैं एक हूं ,पर मेरे रुप अनेक हैं ।
मूसलाधार वृष्टि पर उफन पड़ती हूं ,तो गर्मियों में बस मेरी सांस भर चलती रहती है।
मैं प्रपात बाहुल्या नदी हूं ।
कपिलधारा , दूधधारा , धावड़ीकुंड, सहस्त्रधारा मेरे मुख्य प्रपात हैं ।
ओंकारेश्वर मेरे तट का प्रमुख तीर्थ है।
महेश्वर ही प्राचीन माहिष्मती है।
वहाँ के घाट देश के सर्वोत्तम घाटों में से है ।
मैं स्वयं को भरूच ( भृगुकच्छ ) में अरब सागर को समर्पित करती हूँ ।
मुझे याद आया।
अमरकंटक में मैंने कैसी मामूली सी शुरुआत की थी।
वहां तो एक बच्चा भी मुझे लांघ जाया करता था पर यहां मेरा पाट 20 किलोमीटर चौड़ा है ।
यह तय करना कठिन है कि कहां मेरा अंत है और कहां समुद्र का आरंभ ?
पर आज मेरा स्वरुप बदल रहा है।
मेरे तटवर्ती प्रदेश बदल गए हैं मुझ पर कई बांध बांधे जा रहे हैं।
मेरे लिए यह कष्टप्रद तो है पर जब अकालग्रस्त , भूखे - प्यासे लोगों को पानी, चारे के लिए तड़पते पशुओं को , बंजर पड़े खेतों को देखती हूं , तो मन रो पड़ता है।
आखिर में माँ हूं।
मुझ पर बने बांध इनकी आवश्यकताओं को पूरा करेंगें।
अब धरती की प्यास बुझेगी ।
मैं धरती को सुजला सुफला बनाऊंगी।
यह कार्य मुझे एक आंतरिक संतोष देता है।
त्वदीय पाद पंकजम, नमामि देवी नर्मदे...
नर्मदे सर्वदे
{अमृतस्य नर्मदा}
नर्मदा जयंती की आप सभी को असीम शुभकामनाएं।
|| नमामी देवी नर्मदे ||
!!!!! शुभमस्तु !!!
🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏