https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: 10/28/25

एक बहुत ही सुंदर सी कथा :

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........

जय द्वारकाधीश 

श्रीमहाभारतम् 

।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।

(आस्तीकपर्व )

त्रयोदशोऽध्यायः  

जरत्कारु का अपने पितरों के अनुरोध से विवाह के लिये उद्यत होना.....! 

वायुभक्षो निराहारः शुष्यन्ननिमिषो मुनिः । 

इतस्ततः परिचरन् दीप्तपावकसप्रभः ।। १४ ।। 

अटमानः कदाचित् स्वान् स ददर्श पितामहान् । 

लम्बमानान् महागर्ते पादैरूर्वैरवाङ्मुखान् ।। १५ ।।


वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजनका सर्वथा त्याग करके अपने शरीरको सुखाते रहते थे। 

उन महर्षिने निद्रापर भी विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। 

इधर - उधर विचरण करते हुए वे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। 

घूमते - घूमते किसी समय उन्होंने अपने पितामहोंको देखा जो ऊपरको पैर और नीचेको सिर किये एक विशाल गड्ढेमें लटक रहे थे ।। १४-१५ ।।






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तानब्रवीत् स दृष्ट्वैव जरत्कारुः पितामहान् । 

के भवन्तोऽवलम्बन्ते गर्ते ह्यस्मिन्नधोमुखाः ।। १६ ।।


उन्हें देखते ही जरत्कारुने उनसे पूछा- 'आपलोग कौन हैं, जो इस गड्ढेमें नीचेको मुख किये लटक रहे हैं ।। १६ ।।


वीरणस्तम्बके लग्नाः सर्वतः परिभक्षिते । 

मूषकेन निगूढेन गर्तेऽस्मिन् नित्यवासिना ।। १७ ।।


'आप जिस वीरणस्तम्ब ( खस नामक तिनकोंके समूह ) को पकड़कर लटक रहे हैं, उसे इस गड्ढेमें गुप्तरूपसे नित्य निवास करनेवाले चूहेने सब ओरसे प्रायः खा लिया है' ।। १७ ।।३


पितर ऊचुः


यायावरा नाम वयमृषयः संशितव्रताः । 

संतानप्रक्षयाद् ब्रह्मन्नधो गच्छाम मेदिनीम् ।। १८ ।।


पितर बोले- ब्रह्मन् ! हमलोग कठोर व्रतका पालन करनेवाले यायावर नामक मुनि हैं। 

अपनी संतान - परम्पराका नाश होनेसे हम नीचे - पृथ्वीपर गिरना चाहते हैं ।। १८ ।।


अस्माकं संततिस्त्वेको जरत्कारुरिति स्मृतः । 

मन्दभाग्योऽल्पभाग्यानां तप एव समास्थितः ।। १९ ।।


हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारु। 

हम भाग्यहीनोंकी वह अभागी संतान केवल तपस्यामें ही संलग्न है ।। १९ ।।


न स पुत्राञ्जनयितुं दारान् मूढश्चिकीर्षति । 

तेन लम्बामहे गर्ने संतानस्य क्षयादिह ।। २० ।। 

अनाथास्तेन नाथेन यया दुष्कृतिनस्तथा । 

कस्त्वं बन्धुरिवास्माकमनुशोचसि सत्तम ।। २१ ।। 

ज्ञातुमिच्छामहे ब्रह्मन् को भवानिह नः स्थितः । 

किमर्थं चैव नः शोच्याननुशोचसि सत्तम ।। २२ ।।


वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करनेके लिये किसी स्त्रीसे विवाह करना नहीं चाहता है। 

अतः वंशपरम्पराका विनाश होनेसे हम यहाँ इस गड्ढेमें लटक रहे हैं। 

हमारी रक्षा करनेवाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्योंकी भाँति हम अनाथ हो गये हैं। 

साधुशिरोमणे ! 

तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बान्धवोंकी भाँति हमलोगोंकी इस दयनीय दशाके लिये शोक कर रहे हो ? 

ब्रह्मन् ! हम यह जानना चाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीयकी भाँति यहाँ हमारे पास खड़े हो ? 

सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ ! हम शोचनीय प्राणियोंके लिये तुम क्यों शोकमग्न होते हो ।। २०-२२ ।।


जरत्कारुरुवाच


मम पूर्वे भवन्तो वै पितरः सपितामहाः । 

ब्रूत किं करवाण्यद्य जरत्कारुरहं स्वयम् ।। २३ ।।


जरत्कारुने कहा - महात्माओ ! 

आपलोग मेरे ही पितामह और पूर्वज पितृगण हैं। 

स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ। 

बताइये, आज आपकी क्या सेवा करूँ? ।। २३ ।।


पितर ऊचुः


यतस्व यत्नवांस्तात संतानाय कुलस्य नः । 

आत्मनोऽर्थेऽस्मदर्थे च धर्म इत्येव वा विभो ।। २४ ।।


पितर बोले - तात ! 

तुम हमारे कुलकी संतान - परम्पराको बनाये रखनेके लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाहके लिये प्रयत्न करो। 

प्रभो ! तुम अपने लिये, हमारे लिये अथवा धर्मका पालन हो, इस उद्देश्यसे पुत्रकी उत्पत्तिके लिये यत्न करो ।। २४ ।।


न हि धर्मफलैस्तात न तपोभिः सुसंचितैः । 

तां गतिं प्राप्नुवन्तीह पुत्रिणो यां व्रजन्ति वै ।। २५ ।।


तात ! पुत्रवाले मनुष्य इस लोकमें जिस उत्तम गतिको प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकूल फल देनेवाले भलीभाँति संचित किये हुए तपसे भी नहीं पाते ।। २५ ।।


क्रमशः...

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🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷


ध्यान यज्ञ वर्णन....! ( भाग 1 )

ऋषि ने पूछा- हे सूतजी ! विरक्त और ज्ञानियों के द्वारा ध्यान योग श्रेष्ठ कहा गया है। 

सो आप हमें ध्यान योग को विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिए।

सूतजी ने कहा-एक बार एक गुफा में शिवजी महाराज भवानी के साथ सुखपूर्वक विराजमान थे। 

तब वहाँ पर मुनीश्वरों ने आकर उन्हें प्रणाम किया और स्तुति की। 

हे वृषभध्वज ! अत्यन्त कालकूट नाम के विष को आपने नष्ट कर दिया। 

आप में ही सम्पूर्ण जगत स्थित है। 

इससे प्रसन्न होकर शिवजी ने कहा- हे ऋषियो ! 

कालकूट विष नहीं है किन्तु यह संसार ही विष है। 

इससे सब प्रकार इस संसार से बचना चाहिए। 

देखा हुआ तथा सुना हुआ दोनों प्रकार का जो त्याग कर देता है वही संसार कहा है। 

निवृत्त लक्षण धर्म है और अज्ञान मूलक संसार है। 

उ‌द्भिज, स्वेदज, अण्डज और जरायज चार प्रकार के जीव हैं। 

विषयों की निवृत्ति भोग से नहीं होती किन्तु भोगने से तो वे इस प्रकार बढ़ते हैं जैसे अग्नि घी द्वारा और बढ़ती है।






राग द्वेष भय आदि नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त प्राणी छिन्न मूल वृक्ष की तरह विवश होकर गिर जाते हैं। 

पुण्य रूपी वृक्ष का क्षय होने से देवता भी स्वर्ग से पतित होकर अनेकों कष्टों को भोगते हैं। 

कीट, पक्षी, मृग, पशु आदि सबको इस संसार में दुखी ही देखा है। 

देवता, दैत्य, नृप, राक्षस सबको दुःखमय देखा है। 

उस तप से, नाना प्रकार के दानों से आत्मा लब्ध नहीं होती जैसी कि ज्ञानियों को लब्ध होती है। 

पर और अपर दो विद्यायें हैं। 

अपर विद्या वेद, शिक्षा, कल्प व्याकरणादि है। 

परा विद्या अक्षर ( ब्रह्म ) है जो शब्द रूप रस है। 

किन्तु शिवर्ज ने कहा है कि मैं सब कुछ हूँ। 

जगत मुझ में ही लय होता है तथा मुझसे ही उत्पन्न होता है। 

मेरे सिवाय कुछ नहीं। 

ऐसा जानना चाहिए।


मोक्ष का हेतु ज्ञान है। 

आत्मा में स्थित पुरुष ही मुक्त होता है। 

अज्ञान होने से क्रोध, लोभ, दम्भ, मोह की उत्पत्ति है। 

गुरु के सम्पर्क से उत्पन्न ज्ञान रूपी अग्नि उन्हें इस प्रकार जला देती है जैसे सूखे ईंधन को आँच जला देती है। 

जिस शिव की आज्ञा से भीत हुआ सूर्य उदय होता है, वायु बढ़ती है, चन्द्रमा चमकता है, वह्नि जलती है, भूमि धारण करती है, आकाश, अवकाश देता है सो हे विप्रो ! 

उसी शिव का चिन्तन करो।


संसार रूपी विष से तप्त मनुष्यों को ज्ञान और ध्यान के बिना कोई उपाय नहीं है। 

जो सब द्वन्दों को सहने वाला, सरल स्वभाव, अमानी, बुद्धिमानी, शान्त, ईर्ष्या रहित, सब प्राणियों में समान भाव वाला, तीनों ऋणों से रहित, पूर्व जन्म में पुण्य करने वाला, श्रद्धा से गुरु आदि की सेवा करने वाला, स्वर्ग लोक में प्राप्त होकर वहाँ के भोगों को भोगकर वह मनुष्य भारतवर्ष में जन्म लेकर ब्रह्म को जानना वाला बनता है। 

हे ब्राह्मणो ! मल युक्त मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति का वही क्रम है। 

इस लिए इसी मार्ग से दृढ़व्रत होकर सबका त्याग करके, संसार रूपी कालकूट से मुक्त होता है। 

इस प्रकार संक्षेप में मैंने ज्ञान योग महात्म्य और पाशुपत योग को कहा। 

हे विप्र ! 

यह शिव के द्वारा कहा ज्ञान हर किसी को नहीं देना चाहिए यह योगियों को देने योग्य है। 

जो इस प्रसंग को पढ़ेगा या सुनेगा वह संसार से मुक्त होगा और ब्रह्म सायुज्य को प्राप्त होगा। इसमें संशय नहीं।


क्रमशः शेष अगले अंक में...

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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण 


श्रीअयोध्या - माहात्म्य :

सम्भेदतीर्थ, सीताकुण्ड, गुप्तहरि और चक्रहरि तीर्थ की महिमा.....! 

इस प्रकार स्तुति करनेपर प्रसन्नचित्त, वरदायक भगवान् गरुड़ध्वजने कृपायुक्त हो सम्पूर्ण देवताओंपर अपनी सुधावर्षिणी दृष्टिसे अमृतकी वर्षा की और विनीत देवताओंसे यह मधुर वचन कहा - 'देवताओ! 

मैं ध्यानसे तुम्हारा सारा अभिप्राय जान गया हूँ। 

मैं इस समय अयोध्या नगरमें जाकर तुम्हारे तेजकी वृद्धि और दैत्योंके उपद्रवकी शान्तिके लिये गुप्त रहकर उत्तम तपका अनुष्ठान करूँगा। 

तुमलोग भी शुद्धचित्त हो अयोध्यामें जाकर दैत्योंके विनाशके लिये तीव्र तपस्या करो।' 

ऐसा कहकर भगवान् गरुड़वाहन अन्तर्धान हो गये। 

उन्होंने अयोध्यामें आकर गुप्त रहकर देवताओंके तेजकी वृद्धिके लिये शीघ्र उत्तम तपस्या प्रारम्भ की। 




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इस लिये वे गुप्तहरिके नामसे प्रसिद्ध हुए। 

यहाँ पहले आये हुए भगवान् विष्णुके हाथसे सुदर्शन चक्र छूटकर गिरा था, अतः चक्रहरिके नामसे भगवान्‌की प्रसिद्धि हुई। 

उन दोनोंके दर्शनमात्रसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। 

भगवान् श्रीहरिके प्रभावसे देवता प्रबल तेजस्वी हो गये। 

उन्होंने युद्धमें दैत्योंको परास्त करके अपना स्थान प्राप्त कर लिया और परम आनन्दयुक्त हो वे अतिशय शोभा पाने लगे। 

तत्पश्चात् बृहस्पति आदि सब देवताओंने भगवान्‌को प्रणाम किया और उनके दर्शनके लिये उत्कण्ठित हो सब के सब अयोध्यामें आये। 

वहाँ पुनः प्रणाम करके हाथ जोड़कर एकाग्रचित्तसे श्रीहरिका ध्यान करते हुए उन्हींमें तन्मय हो गये। 

तब भगवान् विष्णुने उनसे कहा- 'देवताओ! 

मैं इस समय तुम्हारी कौन - सी इच्छा पूर्ण करूँ।' 

देवता बोले - जगत्पते! 

इस समय आपके द्वारा हमारा सब कार्य सिद्ध हो गया तथापि हमारी रक्षाके लिये आपको सदैव यहीं रहना चाहिये।


श्रीभगवान् बोले - देवताओ! यह कथा संसारमें प्रसिद्धिको प्राप्त होगी। 

समस्त प्राणियोंमें श्रेष्ठ जो पुरुष यहाँ उत्तम भक्तिसे पूजा, यज्ञ और जप आदिका अनुष्ठान करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। 

जो जितेन्द्रिय मानव अपनी शक्तिके अनुसार यहाँ दान करता है, वह अनुपम स्वर्गलोकको पाकर फिर कभी शोक नहीं करता। 

यहाँ मेरी प्रसन्नताके लिये शुद्धचित्तसे गोदान करना चाहिये। 

जो मेरी भक्तिमें तत्पर होकर यहाँ आत्मशुद्धिके लिये स्नान करते हैं, उनकी मुक्ति उनके हाथमें ही है। 

भगवान् चक्रहरिके स्थानपर मेरी प्रीतिके लिये प्रयत्नपूर्वक उत्तम दान और जप-होमादि करना चाहिये। 

श्रेष्ठ देवताओ ! 

तुम भी यहाँ विधानसे यात्रा करो। 

इस गुप्तहरिके स्थानके निकट ही शुभ संगम है, जहाँ गोप्रतारघाटसे तीन योजन पश्चिम घाघरा नदीसे सरयूका संगम हुआ है। 

वहाँ विधिपूर्वक स्नान करके समस्त मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाले भगवान् गुप्तहरिका दर्शन करना चाहिये।


ऐसा कहकर पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये। 

देवता भी विधिपूर्वक यात्रा करके यत्नपूर्वक अयोध्यामें रहने लगे। 

तबसे यह स्थान पृथ्वीमें विख्यात हो गया। 

कार्तिककी पूर्णिमाको विशेषरूपसे यहाँकी वार्षिक यात्रा होती है। 

वहाँ संगमस्नान करके भगवान् गुप्तहरिका दर्शन किया जाता है। 

तत्पश्चात् सरयू और घाघराके मिले हुए जलके तटपर गोप्रतारतीर्थमें स्नान करके सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाले भगवान्‌की पूजा करनी चाहिये। 

मार्गशीर्ष शुक्ला द्वादशीको चक्रहरिकी यात्रा करनी चाहिये। 

जो इस प्रकार यात्रा करता है, वह भगवान् विष्णुके लोकमें आनन्दका अनुभव करता है।

क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी

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श्रीमहाभारतम् 

।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।

( आस्तीकपर्व )

त्रयोदशोऽध्यायः

जरत्कारु का अपने पितरों के अनुरोध से विवाह के लिये उद्यत होना......! 

शौनक उवाच

किमर्थं राजशार्दूलः स राजा जनमेजयः । 
सर्पसत्रेण सर्पाणां गतोऽन्तं तद् वदस्व मे ।। १ ।। 

निखिलेन यथातत्त्वं सौते सर्वमशेषतः । 
आस्तीकश्च द्विजश्रेष्ठः किमर्थं जपतां वरः ।। २ ।। 

मोक्षयामास भुजगान् प्रदीप्ताद् वसुरेतसः । 
कस्य पुत्रः स राजासीत् सर्पसत्रं य आहरत् ।। ३ ।। 

स च द्विजातिप्रवरः कस्य पुत्रोऽभिधत्स्व मे ।

शौनकजीने पूछा - सूतजी ! 

राजाओंमें श्रेष्ठ जनमेजयने किसलिये सर्पसत्रद्वारा सर्पोंका अन्त किया? 

यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन ! 

इस विषयकी सब बातोंका यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये। 

जप - यज्ञ करनेवाले पुरुषोंमें श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीकने किसलिये सर्पोको प्रज्वलित अग्निमें जलनेसे बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्रका आयोजन किया था, किसके पुत्र थे ? 

तथा द्विजवंशशिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये ।। १ -३३ ।।

सौतिरुवाच

महदाख्यानमास्तीकं यथैतत् प्रोच्यते द्विज ।। ४ ।। 
सर्वमेतदशेषेण शृणु मे वदतां वर ।

उग्रश्रवाजीने कहा- ब्रह्मन् ! 

आस्तीकका उपाख्यान बहुत बड़ा है। 

वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! 

यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा - पूरा सुनो ।। ४३ ।।

शौनक उवाच

श्रोतुमिच्छाम्यशेषेण कथामेतां मनोरमाम् ।। ५ ।।

आस्तीकस्य पुराणर्षेर्बाह्मणस्य यशस्विनः ।

शौनकजीने कहा- सूतनन्दन ! 
पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण आस्तीककी इस मनोरम कथाको मैं पूर्णरूपसे सुनना चाहता हूँ ।। ५३ ।।

सौतिरुवाच

इतिहासमिमं विप्राः पुराणं परिचक्षते ।। ६ ।। 
कृष्णद्वैपायनप्रोक्तं नैमिषारण्यवासिषु । 
पूर्व प्रचोदितः सूतः पिता मे लोमहर्षणः ।। ७ ।। 

शिष्यो व्यासस्य मेधावी ब्राह्मणेष्विदमुक्तवान् । 
तस्मादहमुपश्रुत्य प्रवक्ष्यामि यथातथम् ।। ८ ।।

उग्रश्रवाजीने कहा - शौनकजी! 

ब्राह्मणलोग इस इतिहासको बहुत पुराना बताते हैं। 

पहले मेरे पिता लोमहर्षणजीने, जो व्यासजीके मेधावी शिष्य थे, ऋषियोंके पूछनेपर साक्षात् श्रीकृष्णद्वैपायन ( व्यास ) के कहे हुए इस इतिहासका नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणोंके समुदायमें वर्णन किया था। 

उन्हींके मुखसे सुनकर मैं भी इसका यथावत् वर्णन करता हूँ ।। ६-८ ।।

इदमास्तीकमाख्यानं तुभ्यं शौनक पृच्छते । 
कथयिष्याम्यशेषेण सर्वपापप्रणाशनम् ।। ९ ।।

शौनकजी ! यह आस्तीक मुनिका उपाख्यान सब पापोंका नाश करनेवाला है। 
आपके पूछनेपर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ ।। ९ ।।

आस्तीकस्य पिता ह्यासीत् प्रजापतिसमः प्रभुः । 
ब्रह्मचारी यताहारस्तपस्युग्रे रतः सदा ।। १० ।।

आस्तीकके पिता प्रजापतिके समान प्रभावशाली थे। 
ब्रह्मचारी होनेके साथ ही उन्होंने आहारपर भी संयम कर लिया था। 
वे सदा उग्र तपस्यामें संलग्न रहते थे ।। १० ।।

जरत्कारुरिति ख्यात ऊर्ध्वरता महातपाः । 
स यायावराणां प्रवरो धर्मज्ञः संशितव्रतः ।। ११ ।।  

कदाचिन्महाभागस्तपोबलसमन्वितः । 
चचार पृथिवीं सर्वां यत्रसायंगृहो मुनिः ।। १२ ।।

उनका नाम था जरत्कारु। 
वे ऊध्र्वरता और महान् ऋषि थे। 
यायावरों में उनका स्थान सबसे ऊँचा था। 
वे धर्मके ज्ञाता थे। एक समय तपोबलसे सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारुने यात्रा प्रारम्भ की। 
वे मुनि - वृत्तिसे रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे ।। ११-१२ ।।

तीर्थेषु च समाप्लावं कुर्वन्नटति सर्वशः । 
चरन् दीक्षां महातेजा दुश्चरामकृतात्मभिः ।। १३ ।।

वे सब तीर्थोंमें स्नान करते हुए घूमते थे। 
उन महातेजस्वी मुनिने कठोर व्रतोंकी ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषोंके लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी ।। १३ ।।

क्रमशः...

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🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷

पंचाक्षर महात्म्य वर्णन....! 
    
इस मन्त्र का वामदेव ऋषि पंक्ति छन्द, देवता साक्षात् मैं ही शिव हूँ, नकारादि पाँच बीज पंच भूतात्मक हैं। 

सर्वव्यापी अव्यय ( ॐ ) प्रणव उसकी आत्मा में हैं। 

हे देवि ! तुम इसकी शक्ति हो।

इस मन्त्र के द्वारा बताये गए विधि पूर्वक न्यास आदि भी करने चाहिए। 

हे शुभे ! 

इसके बाद मैं तुमसे मन्त्र का ग्रहण करना कहता हूँ।

सत्य परायण, ध्यान परायण गुरु को प्राप्त करके शुद्ध भाव से मन, वाणी और कर्म के द्वारा तथा अनेकों द्रव्यों द्वारा आचार्य ( गुरु ) को सन्तुष्ट करके विधि पूर्वक गुरु मुख से मन्त्र ग्रहण करना चाहिए। 

शुचि स्थान में, अच्छे ग्रह में, अच्छे काल में तथा नक्षत्र में तथा श्रेष्ठ योग में मन्त्र ग्रहण करना चाहिए। 

गृह में मन्त्र जपना समान जानना चाहिए। 
गौ के खिरक में सौ गुना और शिवजी के पास में अनन्त गुना मन्त्र का फल होता है।

जप यज्ञ से सौ गुना उपाँशु जप का होता है। 

जो मन्त्र वाणी से उच्चारण किया जाता है वह वाचिक कहा जाता है। 

जो धीरे - धीरे ओठों को कुछ हिलाते हुए जप किया जाता है उसे उपाँशु कहते हैं। 

केवल मन बुद्धि के द्वारा जप किया जाए और शब्दार्थ का, चिन्तन किया जाए वह मानसिक जप होता है। 

तीनों उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। 

जप यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं। 

वे विपुल भोगों को तथा मोक्ष को देते हैं, जप से जन्मान्तरों के पाप क्षय होते हैं, मृत्यु को भी जीत लिया जाता है। 

जप से सिद्धि प्राप्त होती है परन्तु सदाचारी पुरुष को सब सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं दुराचारी को नहीं, क्योंकि उसका साधन निष्फल है। 

अतः आचार ही परम धर्म है। 

आचार ही परम तप है तथा आचार ही परम विद्या है। 

आचार से ही परम गति है। 

आचारवान पुरुष ही सब फलों को पाता है तथा आचारहीन पुरुष संसार में निन्दित होता है। 

इस लिये सिद्धि की इच्छा वाले पुरुष को सब प्रकार से आचारवान होना चाहिए।

संन्ध्योपासना करने वाले पुरुष को सब कार्य तथा फल प्राप्त होते हैं। 

अतः काम, क्रोध, लोभ, मोह किसी प्रकार से भी संध्या को नहीं त्यागना चाहिए। 

संध्या न करने से ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से नष्ट होता है। 

असत्य भाषण नहीं करना चाहिये। 

पर दारा, पर द्रव्य, पर हिंसा मन वाणी से भी नहीं करनी चाहिए। 

शूद्रान्न, बासा अन्न, गणान्न तथा राजान्न का सदा त्याग करना चाहिए। 

अन्न का परिशोधन अवश्य चाहिए।

बिना स्नान किये, बिना जप किये हुए, अग्नि कार्य न किए हुए भोजन न करें। 

रात्रि में तथा बिना दीपक के तथा पर्णपृष्ठ पर फूटे पात्र में तथा गली में, पतितों के पास भोजन नहीं करना चाहिए। 

शूद्र का शेष तथा बालकों के साथ भोजन न करे। 

शुद्धान्न तथा सुसंस्कृत भोजन का एकाग्र चित्त से भोजन करना चाहिए। 

शिव इसके भोक्ता हैं ऐसा ध्यान करना चाहिए। 

मुंह से, खड़ा होकर, बायें हाथ से, दूसरे के हाथ से जल नहीं पीना चाहिए। 

अकेला मार्ग में न चले, बाहुओं से नदी को पार न करे, कुआं को न लांघे, पीठ पीछे गुरु या देवता अथवा सूर्य को करके जप आदिक न करे।

अग्नि में पैरों को न तपावे, अग्नि में मल का त्याग न करे। 

जल में पैरों को न पीटे, जल में नाक, थूक आदि मल का त्याग न करे।

अज, स्वान, खर, ऊँट, मार्जार तथा तुष की धूलि का स्पर्श न करे। 

जिसके घर में बिल्ली रहती है वह अन्त्यज के घर के समान है। 

उस घर में ब्राह्मणों को भोजन नहीं करना चाहिए क्योंकि वह चाण्डाल के समान है।

पाद की हवा, सूप की हवा, प्राण और मुख की हवा मनुष्य के सुकृत का हरण करती है अतः इनसे सदा बचना चाहिए। 

पाग बाँध करके, कंचुकी बाँधकर, केश खोलकर, नंगे होकर, अपवित्र हाथों से, मैल धारण किये हुए जप नहीं करना चाहिए। 

क्रोध, मद, जंभाई लेना, थूकना, प्रलाप, कुत्ता का या नीच का दर्शन, नींद आना ये जप के द्वेषी हैं। 

इनके हो जाने पर सूर्य का दर्शन करना चाहिए तथा आचमन, प्राणायाम करके शेष जप करना चाहिए। 

बिना आसन पर बैठकर, सोकर, खाट पर बैठकर जप न करना चाहिए।

आसन पर बैठकर, रेशमी वस्त्र या बाघ चर्म या लकड़ी का या ताल पर्ण का आसन पर बैठकर मंत्रार्थ का विचार करते हुए जप करना चाहिए। 

त्रिकाल गुरु की पूजा करनी चाहिए। गुरु और शिव एक ही हैं। 

शिव विद्या और गुरु भक्ति के अनुसार फल मिलता है। 

श्री की इच्छा वाले पुरुष को गुरु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। 

गुरु के सम्पर्क से मनुष्य के पाप नष्ट होते हैं। 

गुरु के सन्तुष्ट होने पर सब पाप नष्ट होते हैं। 

ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि सभी देव गुरु की कृपा से ही उस पर सन्तुष्ट होते हैं। 

अतः कर्म, मन, वाणी से गुरु को क्रोध नहीं करना चाहिए। 

गुरु के क्रोध से आयु, ज्ञान, क्रिया सब नष्ट होते हैं। 

उसके यज्ञ निष्फल होते हैं।

शिवजी कहते हैं जो इन्द्रियों का दमन करके पंचाक्षर मन्त्र का जप करता है वह पंच भूतों से विजय को प्राप्त करता है। 

मन का संयम करके जो चार लाख जप करता है वह सभी इन्द्रियों को विजय कर लेता है। 

जो पच्चीस लाख जप करता है वह पच्चीस तत्वों को जीत लेता है। 

बीज सहित संपुट सहित सौ लाख जप करने वाला पवित्र आत्मा परम गति को प्राप्त होकर मुझे पाता है। 

जो इस पंचाक्षर विधि को देव या पितृ कार्य में ब्राह्मणों से सुनेगा या सुनायेगा वह परम गति को प्राप्त होगा।

क्रमशः शेष अगले अंक में...

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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण 

श्रीअयोध्या - माहात्म्य

सम्भेदतीर्थ, सीताकुण्ड, गुप्तहरि और चक्रहरि तीर्थ की महिमा......! 
  
भगवान् शिव बोले - जो संसारसमुद्रसे तारने और गरुड़जीको सुख देनेवाले हैं, घनीभूत मोहान्धकारका निवारण करनेके लिये चन्द्रस्वरूप हैं, उन भगवान् श्रीहरिको नमस्कार है। 

जहाँ ज्ञानमयी मणिकी प्रज्वलित शिखा प्रकाशित होती है तथा जो चित्तमें भगवत्संगरूपी सुधाकी वर्षा करनेवाली चन्द्रिकाके तुल्य है, मानसके उद्यानमें जो प्रवाहित होती है, उस भगवद्भक्तिरूपी मन्दाकिनीकी मैं शरण लेता हूँ। 

वह लीलापूर्वक उत्साहशक्तिको जाग्रत् करनेवाली तथा सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त है। 

सात्त्विक भावोंकी पूर्वकोटि है। 

उसे ही वैष्णवी शक्ति कहते हैं। 

हवासे हिलते हुए कमलदलके पर्वके भीतर रहनेवाले पतनशील जन्तुओंकी भाँति पतनके गर्तमें गिरनेवाले प्राणियोंको स्थिरता देनेवाली एकमात्र श्रीहरिकी स्मृति ही है। 

हृदयकमलकी कलिकाको विकसित करनेवाली ज्ञानरूपी किरणमालाओंसे मण्डित सूर्यस्वरूप आप भगवान्‌को नमस्कार है। 

योगियोंकी एकमात्र गति आप संयमशील श्रीहरिको नमस्कार है। 

तेज और अन्धकार दोनोंसे परे विराजमान आप परमेश्वरको नमस्कार है। 

आप यज्ञस्वरूप, हविष्यके उपभोक्ता तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। 

भगवती सरस्वतीके द्वारा गाये जानेवाले दिव्य सद्‌गुणोंसे विभूषित आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है। 

आप शान्तस्वरूप, धर्मके निधि, क्षेत्रज्ञ एवं अमृतात्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

आप साधकके योगकी प्रतिष्ठा तथा जीवके एकमात्र हेतु हैं, आपको नमस्कार है। 

आप घोरस्वरूप, मायाकी विधि तथा सहस्रों मस्तकवाले हैं, आपको नमस्कार है। 

आप योगनिद्रास्वरूप होकर शयन करते और अपने नाभिकमलसे उत्पन्न संसारकी सृष्टि रचते हैं, आपको नमस्कार है। 

आप जलस्वरूप एवं संसारकी स्थितिके कारण हैं, आपको नमस्कार है। 

आपके कार्योद्वारा आपकी शक्तिका अनुमान होता है। 

आप महाबली, सबके जीवन और परमात्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

समस्त भूतोंके रक्षक और प्राण आप ही हैं, आप ही विश्व तथा उसके स्रष्टा ब्रह्मा हैं, आपको नमस्कार है। 

आप नृसिंहशरीर धारण करके दर्पयुक्त हो दैत्यका संहार करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही सबके पराक्रम हैं। 

आपका हृदय अनन्त है। 

आप सम्पूर्ण संसारके भावको ग्रहण करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। 

आप संसारके कारणभूत अज्ञानरूपी घोर अन्धकारका नाश करनेवाले हैं। 

आपका धाम अचिन्त्य है, आपको नमस्कार है। 

आप गूढ़रूपसे स्थित तथा अत्यन्त उद्वेगकारक रुद्र हैं, आपको नमस्कार है। 

आप शान्त हैं, जहाँ समस्त ऊर्मियाँ शान्त हो जाती हैं ऐसे कैवल्यपदको देनेवाले हैं। 

सम्पूर्ण भावपदार्थोंसे परे तथा सर्वमय हैं, आपको नमस्कार है। 

जो नील कमलके समान श्याम हैं और चमकते हुए केसरके समान सुशोभित कौस्तुभमणि धारण करते हैं तथा नेत्रोंके लिये रसायनरूप हैं, ऐसे आप भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ।

क्रमशः...
शेष अगले अंक में जारी
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         !!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits , V.O.C. Nagar , RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

एक बहुत ही सुंदर सी कथा :

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोप...