भगवान से प्रार्थना में क्या मांगूँ…? भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं? रात्रि भोजन से नरक ?शरणागति के 4 प्रकार है ?
भगवान से प्रार्थना में क्या मांगूँ…???
प्रह्लाद ने भगवान से माँगा:-
" हे प्रभु मैं यह माँगता हूँ कि मेरी माँगने की इच्छा ही ख़त्म हो जाए…! "
कुंती ने भगवान से माँगा : -
" हे प्रभु मुझे बार बार विपत्ति दो ताकि आपका स्मरण होता रहे…!"
महाराज पृथु ने भगवान से माँगा : -
" हे प्रभु मुझे दस हज़ार कान दीजिये ताकि में आपकी पावन लीला गुणानुवाद का अधिक से अधिक रसास्वादन कर सकूँ…! "
और हनुमान जी तो बड़ा ही सुंदर कहते हैं : -
" अब प्रभु कृपा करो एही भाँती।
सब तजि भजन करौं दिन राती॥ "
भगवान से माँगना दोष नहीं मगर क्या माँगना ये होश जरूर रहे…!
पुराने समय में भारत में एक आदर्श गुरुकुल हुआ करता था....!
उसमें बहुत सारे छात्र शिक्षण कार्य किया करते थे....!
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उसी गुरुकुल में एक विशेष जगह हुआ करती थी जहाँ पर सभी शिष्य प्रार्थना किया करते थे...!
वह जगह पूजनीय हुआ करती थी…!
एक दिन एक शिष्य के मन के जिज्ञासा उत्पन हुई तो उस शिष्य ने गुरु जी से पूछा -
हम प्रार्थना करते हैं, तो होंठ हिलते हैं पर आपके होंठ कभी नहीं हिलते…!
आप पत्थर की मूर्ति की तरह खडे़ हो जाते हैं, आप कहते क्या हैं अन्दर से…!
क्योंकि अगर आप अन्दर से भी कुछ कहेंगे तो होठों पर थोड़ा कंपन तो आ ही जाता है, चेहरे पर बोलने का भाव आ ही जाता है, लेकिन आपके कोई भाव ही नहीं आता…!
गुरु जी ने कहा -
मैं एक बार राजधानी से गुजरा और राजमहल के सामने द्वार पर मैंने सम्राट और एक भिखारी को खडे़ देखा…!
वह भिखारी बस खड़ा था, फटे -- चीथडे़ थे उसके शरीर पर, जीर्ण - जर्जर देह थी जैसे बहुत दिनो से भोजन न मिला हो, शरीर सूख कर कांटा हो गया…!
बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थीं....!
बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो,वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था...!
लगता था अब गिरा - तब गिरा !
सम्राट उससे बोला -
बोलो क्या चाहते हो…?
" उस भिखारी ने कहा -
अगर आपके द्वार पर खडे़ होने से मेरी मांग का पता नहीं चलता,तो कहने की कोई जरूरत नहीं…!
क्या कहना है....!
मै आपके द्वार पर खड़ा हूं,मुझे देख लो मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है…! "
गुरु जी ने कहा -
उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी,मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं,वह देख लेगें…!
अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती,तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे…!
अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकते,तो मेरे शब्दों को क्या समझेंगे...?
अतः भाव व दृढ विश्वास ही सच्ची परमात्मा की याद के लक्षण हैं...!
यहाँ कुछ मांगना शेष नही रहता,आपका प्रार्थना में होना ही पर्याप्त है..!!
🙏🏾🙏🏽🙏जय श्री कृष्ण🙏🏻🙏🏼🙏🏿
भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं?
भारत को जम्बूद्वीप के नाम से भी जाना जाता हैं...!
लेकिन कई लोगों को अब तक यह जानकारी नहीं हैं कि आखिर...!
“ भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं ”।
संस्कृत भाषा में जम्बूद्वीप का मतलब है जहां “ जंबू के पेड़ ” उगते हैं।
प्राचीन समय में भारत में रहने वाले लोगों को जम्बूद्वीपवासी कहा जाता था।
जम्बूद्वीप शब्द का प्रयोग चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी किया था...!
जिसका प्रमाण इतिहास में मिलता हैं. यहाँ हम आपको बताने जा रहे हैं कि भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं।
जम्बूद्वीप का मतलब :
एक ऐसा द्वीप जो क्षेत्रफल में बहुत बड़ा होने के साथ - साथ, इस क्षेत्र में पाए जाने वाले जम्बू के वृक्ष और फलों की वजह से विश्वविख्यात था।
जम्बूद्वीप प्राचीन समय में वही स्थान था जहाँ पर अभी भारत हैं. अतः भारत को जम्बूद्वीप कहा जाता हैं. भारत वर्ष, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप।
कुछ शोधों के अनुसार जम्बूद्वीप एक पौराणिक महाद्वीप है।
इस महाद्वीप में अनेक देश हैं।
भारतवर्ष इसी महाद्वीप का एक देश है।
जम्बूद्वीप हर तरह से सम्पन्नता का प्रतिक हैं।
देवी - देवताओं से लेकर ऋषि मुनियों तक ने इस भूमि को चुना था क्योंकि यहाँ पर नदियाँ, पर्वत और जंगल हर तरह का वातावरण एक ही देश में देखने को मिलता था।
हमारा देश एक कर्मप्रधान देश है और यहाँ जो जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है, सदियों से भारत के लोग इस व्यवस्था को मानते रहे हैं।
जम्बूद्वीप एक ऐसा विस्तृत भूभाग हैं जिसमें आर्यावर्त, भारतवर्ष और भारतखंडे आदि शामिल हैं।
जम्बुद्वीप के सम्बन्ध में मुख्य बातें :
[1] जम्बूद्वीप को “सुदर्शन द्वीप” के रूप में भी जाना जाता है।
[2] प्राचीन समय में यहाँ पर जामुन के पेड़ बहुतायात में पाए जाते थे, इसलिए यह भूभाग जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाने लगा।
[3] विष्णुपुराण में लिखा हैं कि जम्बू के पेड़ पर लगने वाले फल हाथियों जितने बड़े होते थे ,जब भी वह पहाड़ों से गिरते तो उनके रस की नदी बहने लगती थी।
इस नदी को जम्बू नदी से भी जाना जाता था। इस नदी का पानी पिने वाले जम्बूद्वीपवासी थे।
[4] मार्कण्डेय पुराण के अनुसार जम्बूद्वीप उत्तर और दक्षिण में कम और मध्य भाग में ज्यादा था जिसे इलावर्त या मेरुवर्ष से जाना जाता था।
[5] जम्बूद्वीप की तरफ से बहने वाली नदी को जम्बू नदी के नाम से जाना जाता है।
[6] जब भी घर में पूजा-पाठ होता हैं तब मंत्र के साथ जम्बूद्वीपे, आर्याव्रते, भारतखंडे, देशांतर्गते, अमुकनगरे या अमुकस्थाने फिर उसके बाद नक्षत्र और गोत्र का नाम आता है।
[7] रामायण में भी जम्बूद्वीप का वर्णन मिलता हैं।
[8] जम्बू ( जामुन ) नामक वृक्ष की इस द्वीप पर अधिकता के कारण इस द्वीप का नाम जम्बू द्वीप रखा गया था।
[9] जम्बूद्वीप के नौ खंड थे जिनमें इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय आदि शामिल हैं।
[10] जम्बूद्वीप में 6 पर्वत थे जिनमें हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान आदि।
|| रात्रि भोजन से नरक ? ||
रात्रि भोजन से नरक ? :
महाभारत वैदिक ग्रन्थानुसार रात्रि भोजन हानिकारक,नरक जाने का रास्ता भी यही है!
वर्तमान के आधुनिक डाॅक्टर , वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध किया है कि रात्रि में सूर्य किरणों के अभाव में किया हुआ भोजन ठीक से पच नहीं पाता है...!
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इस लिए अनेक रोग होते है, इस लिए रात्रि में शयन के 3 - 4 घंटे पहले दिन में ही लघु आहार करना चाहिए , जिससे भोजन शयन के पहले ही पच जायेगा !
वैदिक ग्रन्थ महाभारत में भी लिखा है : -
महाभारत के ज्ञान पर्व अध्याय
70 श्लोक 273 में कहा भी है कि-
70 श्लोक 273 में कहा भी है कि-
उलूका काक मार्जार,गृद्ध शंबर शूकराः l
आहिवृश्चिकगोधाश्च,जायन्ते रात्रिभोजनात् l l
आहिवृश्चिकगोधाश्च,जायन्ते रात्रिभोजनात् l l
अर्थ : -
रात्रि के समय,भोजन करने वाला मानव मरकर इस पाप के फल से उल्लू,कौआ , बिलाव, गीध, शंबर, सूअर, साॅंप, बिच्छू , गुहा आदि निकृष्ट तिर्यंच योनि के जीवों में जन्म लेता है...!
इस लिए रात्रि भोजन त्याग करना चाहिए।
वासरे च रजन्यां च,यः खादत्रेव तिष्ठति l
शृंगपुच्छ परिभ्रष्ट,य : स्पष्ट पशुरेव हि l l
शृंगपुच्छ परिभ्रष्ट,य : स्पष्ट पशुरेव हि l l
अर्थ : -
रात में भोजन करने वाला बिना सिंग,पूॅंछ का पशु ही है, ऐसा समझे।
महाभारत के शांतिपर्व में यह भी कहा है कि-
ये रात्रौ सर्वदा आहारं, वर्जयंति सुमेधसः l
तेषां पक्षोपवासस्य,फलं मासस्य जायते l l
ये रात्रौ सर्वदा आहारं, वर्जयंति सुमेधसः l
तेषां पक्षोपवासस्य,फलं मासस्य जायते l l
अर्थ : -
जो श्रेष्ठ बुद्धि वालें विवेकी मानव रात्रि भोजन करने का सदैव त्याग के लिए तत्पर रहते है,उनको एक माह में 15 दिन के उपवास का फल मिलता है।
चत्वारि नरक द्वाराणि,प्रथमं रात्रि भोजनम् l
परस्त्री गमनं चैव,संधानानंत कायिकं l l
परस्त्री गमनं चैव,संधानानंत कायिकं l l
अर्थ : -
नरक जाने के चार रास्ते है : -
1 रात्रि भोजन, 2 परस्त्रीगमन 3 आचार, मुरब्बा, 4 जमीकन्द ( आलू , प्याज , मूली , गाजर , सकरकंद , लहसुन ,अरबी , अदरक , ये आठ होने से , इन को अष्टकन्द भी कहते है ) सेवन करने से,नरक जाना पड़ता है !
1 रात्रि भोजन, 2 परस्त्रीगमन 3 आचार, मुरब्बा, 4 जमीकन्द ( आलू , प्याज , मूली , गाजर , सकरकंद , लहसुन ,अरबी , अदरक , ये आठ होने से , इन को अष्टकन्द भी कहते है ) सेवन करने से,नरक जाना पड़ता है !
मार्कण्डेय पुराण में,तो अध्याय
33 श्लोक में कहा है, कि-
33 श्लोक में कहा है, कि-
अस्तंगते दिवानाथे,आपो रुधिरमुच्यते l
अन्नं मांसं समं प्रोक्तं, मार्कण्डेय महर्षिणा l l
अन्नं मांसं समं प्रोक्तं, मार्कण्डेय महर्षिणा l l
अर्थात् : -
सूर्य अस्त होने के बाद ,जल को रुधिर मतलब खून और अन्न को मांस के समान माना गया है,अतः रात्रि भोजन का त्याग अवश्यमेव करना ही चाहिए !
नरक को जाने से बचने के लिए !
चार प्रकार का आहार भोजन होता है : -
( 1 ) - खाद्य : -
( 1 ) - खाद्य : -
रोटी , भात , कचौडी , पूडी आदि !
( 2 ) - स्वाद्य : -
चूर्ण , तांबूल , सुपाडी आदि !
( 3 ) - लेह्य : -
रबडी़ , मलाई , चटनी आदि !
( 4 ) - पेय : -
पानी , दूध , शरबत आदि !
जैन धर्म में रात्रि भोजन का बडा़ ही महत्त्व है !
चार प्रकार सूक्ष्मता से निर्दोष पालन की विधि भी बतायी गयी है, कि रात्रि : -
( अ ) - दिन का बना भी रात्रि में न खाएं !
( ब ) - रात्रि का बना तो रात में खाए ही नहीं !
( क ) - रात्रि का बना भी दिन में न खाए और
( ड ) - उजाले में दिन का बना दिन में ही, वह भी अंधेरे में नहीं उजाले में ही खाए ।
रात्रि में सूर्य प्रकाश के अभाव में ,अनेक सूक्ष्मजीव उत्पन्न होते है l
भोजन के साथ , यदि जीव पेट में चले गये , तो रोग कारण बनते हैं।
यथा पेट में जाने पर,ये रोग , चींटा - चींटी, बुद्धिनाश जूं , जूए , जलोदर, मक्खी , पतंगा वमन , लिक लीख , कोड , बाल स्वरभंग बिच्छू , छिपकली मरण , छत्र चामर वाजीभ , रथ पदाति संयुता: l
विराजनन्ते नरा यत्र l
ते रात्र्याहारवर्जिनः l l
अर्थ : -
ग्रन्थकार कहते है कि छत्र , चंवर , घोडा , हाथी , रथ और पदातियों से युक्त , नर जहाॅं कहीं भी दिखाई देते है....!
ऐसा समझना चाहिए कि उन्होंने पूर्व भव में रात्रि भोजन का त्याग किया था,उस त्याग से उपार्जित हुए,पुण्य को वे भोग रहे हैं।
एक सिक्ख ने कह दिया, कि पहले के जमाने में लाईट की रोशनी नहीं थी....!
इस लिए रात्रि भोजन नहीं करते थे,तो उससे पूछा कि पहले नाई नहीं होंगे , इस लिए हजामत नहीं करते होंगे....!
अब तो नांई बहुत है फिर भी बाल क्यों नहीं बनाते ;
चुप होना पड़ा l
चाहे कितनी भी लाईट की रोशनी हो,पर सूर्यास्त के बाद,जीवों की उत्पत्ति बढ़ती ही है और जठराग्नि भी शांत होती है....!
इस लिए भोजन छोड़ना ही चाहिए l
स्वस्थ,मस्त, व्यस्त भी रहना हो ,तो।
|| शरणागति के 4 प्रकार है ? ||
शरणागति के 4 प्रकार है ?
1 - जिह्वा से भगवान के नाम का जप-
भगवान् के स्वरुप का चिंतन करते हुए उनके परम पावन नाम का नित्य निरंतर निष्काम भाव से परम श्रद्धापूर्वक जप करना तथा हर समय भगवान् की स्मृति रखना।
2 - भगवान् की आज्ञाओं का पालन करना-
श्रीमद्भगवद्गीता जैसे भगवान् के श्रीमुख के वचन, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के वचन तथा महापुरुषों के आचरण के अनुसार कार्य करना।
3 - सर्वस्व प्रभु के समर्पण कर देना-
वास्तव मे तो सब कुछ है ही भगवान् का,क्योंकि न तो हम जन्म के समय कुछ साथ लाये और न जाते समय कुछ ले ही जायेंगे।
भ्रम से जो अपनापन बना रखा है,उसे उठा देना है।
4 - भगवान् के प्रत्येक विधान मे परम प्रसन्न रहना-
मनचाहा करते - करते तो बहुत - से जन्म व्यतीत कर दिए,अब तो ऐसा नही होना चाहिए।
अब तो वही हो जो भगवान् चाहते है।
भक्त भगवान् के विधानमात्र मे परम प्रसन्न रहता है फिर चाहे वह विधान मन, इंद्रिय और शरीर के प्रतिकूल हो या अनुकूल।
सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।।
जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है...!
अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है !
अतः
ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टि या दूरदृष्टि का अधिकारी नहीं बन सकता एवं अनेको दिव्य सिद्धियों एवं निधियों को प्राप्त नहीं कर पाता या खो देता है !
शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है !
चाहो तो इससे विभूतिया (अच्छाइयां पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम दुर्गति ( बुराइया / पाप ) इत्यादि !
परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !
प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो !
करुणा को चुनो !
|| ॐ नमो नारायण ||
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
तमिल / द्रावीण ब्राह्मण जय श्री कृष्ण

