https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: 08/19/20

संस्कारी बहु

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

*संस्कारी बहु*फिर एक नई कहानी के साथ*


*संस्कारी बहु*

     
एक धनी सेठ के सात बेटे थे, छः के विवाह के बाद सातवीं बहू आयी।
    
वह सत्संगी माँ-बाप की बेटी थी। 





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बचपन से ही सत्संग में जाने से सत्संग के सुसंस्कार उसमें गहरे उतरे हुए थे। 

छोटी बहू ने देखा कि घर का सारा काम तो नौकर चाकर करते हैं, जेठानियाँ केवल खाना बनाती हैं उसमें भी खटपट होती रहती है। 

बहू को सुसंस्कार मिले थे कि अपना काम स्वयं करना चाहिए और प्रेम से मिलजुल कर रहना चाहिए। 

अपना काम स्वयं करने से स्वास्थ्य बढ़िया रहता है।
     
उसने युक्ति खोज निकाली और सुबह जल्दी स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहनकर पहले ही रसोई में जा बैठी। 

जेठानियों ने टोका लेकिन फिर भी उसने बड़े प्रेम से रसोई बनायी और सबको प्रेम से भोजन कराया। 

सभी बड़े तृप्त व प्रसन्न हुए।
    
दिन में सास छोटी बहू के पास जाकर बोलीः *"बहू ! 

तू सबसे छोटी है, तू रसोई क्यों बनाती है ? 

तेरी छः जेठानियाँ हैं।"*

बहूः *"माँजी ! 

कोई भूखा अतिथि घर आ जाय तो उसको आप भोजन क्यों कराते हो ?" 

और शास्त्रों में लिखा है कि अतिथि भगवान का स्वरूप होता है। 

भोजन पाकर वह तृप्त होता है तो भोजन कराने वाले को बड़ा पुण्य मिलता है।"*

*"माँजी ! 

अतिथि को भोजन कराने से पुण्य होता है तो क्या, घरवालों को भोजन कराने से पाप होता है ? 

अतिथि में भगवान का स्वरूप है तो घर के सभी लोग भी तो भगवान का स्वरूप है, क्योंकि भगवान का निवास तो जीवमात्र में है।*

और माँजी ! 

अन्न आपका, बर्तन आपके सब चीजें आपकी हैं, मैं जरा सी मेहनत करके सबमें भगवदभाव रख के रसोई बनाकर खिलाने की थोड़ी-सी सेवा कर लूँ तो मुझे पुण्य होगा कि नहीं होगा? 

सब प्रेम से भोजन करके तृप्त होंगे, प्रसन्न होंगे तो कितना लाभ होगा ! 

इस लिए माँजी ! 

आप रसोई मुझे बनाने दो। 

कुछ मेहनत करूँगी तो स्वास्थ्य भी बढ़िया रहेगा।"

सास ने सोचा कि ʹबहू बात तो ठीक कहती है। 

हम इसको सबसे छोटी समझते हैं पर इसकी बुद्धि सबसे अच्छी है।ʹ

दूसरे दिन सास सुबह जल्दी स्नान करके रसोई बनाने बैठ गयी। 

बहुओं ने देखा तो बोलीं- "माँजी ! 

आप परिश्रम क्यों करती हो?"

सास बोलीः *"तुम्हारी उम्र से मेरी उम्र ज्यादा है। मैं जल्दी मर जाऊँगी। 

मैं अभी पुण्य नहीं करूँगी तो फिर कब करूँगी?"*

बहुएँ बोलीं- "माँजी ! 

इसमें पुण्य क्या है ? 

यह तो घर का काम है।"

सास बोलीः *"घर का काम करने से पाप होता है क्या? 

जब भूखे व्यक्तियों को, साधुओं को भोजन कराने से पुण्य होता है तो क्या घरवालों को भोजन कराने से पाप होता है? 

सभी में ईश्वर का वास है।"*

सास की बातें सुनकर सब बहुओं को लगा कि ʹइस बात का तो हमने कभी ख्याल ही नहीं किया। 

यह युक्ति बहुत बढ़िया है!ʹ *अब जो बहू पहले जग जाय वही रसोई बनाने बैठ जाये।* 

पहले जो भाव था कि ʹतू रसोई बना, तू रसोई बना'....ʹ और छः बारी बँधी थीं लेकिन अब ʹमैं बनाऊँ, मैं बनाऊँ...ʹ यह भाव हुआ तो आठ बारी बँध गयीं। 

दो और बढ़ गये सास और छोटी बहू। काम करने में ʹतू कर, तू कर....ʹ इससे काम बढ़ जाता है और आदमी कम हो जाते हैं पर ʹमैं करूँ, मैं करूँ....ʹ इससे काम हल्का हो जाता है और आदमी बढ़ जाते हैं।

छोटी बहू उत्साही थी, सोचा कि ʹअब तो रोटी बनाने में चौथे दिन बारी आती है, फिर क्या किया जाय?ʹ 

घर में गेहूँ पीसने की चक्की पड़ी थी, उसने उससे गेहूँ पीसने शुरु कर दिये। 

मशीन की चक्की का आटा गर्म-गर्म बोरी में भर देने से जल जाता है, उसकी रोटी स्वादिष्ट नहीं होती लेकिन हाथ से पीसा गया आटा ठंडा और अधिक पौष्टिक होता है तथा उसकी रोटी भी स्वादिष्ट होती है।

छोटी बहू ने गेहूँ पीसकर उसकी रोटी बनायी तो सब कहने लगे की ʹआज तो रोटी का जायका बड़ा विलक्षण है !ʹ


    

सास बोलीः "बहू ! तू क्यों गेहूँ पीसती है ? अपने पास पैसों की कमी नहीं है।"
   
बहु बोली- *"माँजी ! 

पहली बात, हाथ से गेहूँ पीसने से व्यायाम हो जाता है और बीमारी नहीं आती। 

और दूसरी, रसोई बनाने से भी ज्यादा पुण्य गेहूँ पीसने का है।"*

सास और जेठानियों ने जब सुना तो लगा कि बहू ठीक कहती है। 

उन्होंने अपने-अपने पतियों से कहाः ʹघर में चक्की ले आओ, हम सब गेहूँ पीसेंगी।ʹ 

रोजाना सभी जेठानियाँ चक्की में दो ढाई सेर गेहूँ पीसने लगीं।

अब छोटी बहू ने देखा कि, घर में जूठे बर्तन माँजने के लिए नौकरानी आती है। 

अपने जूठे बर्तन हमें स्वयं साफ करने चाहिए क्योंकि सबमें ईश्वर है तो कोई दूसरा हमारा जूठा क्यों साफ करे !
    
अगले दिन उसने सब बर्तन माँज दिये। सास बोलीः "बहू ! विचार तो कर, बर्तन माँजने से तेरा गहना घिस जायेगा, कपड़े खराब हो जायेंगे...।"
    
*"माँजी ! काम जितना छोटा, उतना ही उसका माहात्म्य ज्यादा। 

पांडवों के यज्ञ में भगवान श्रीकृष्ण ने जूठी पत्तलें उठाने का काम किया था।"*
    
दूसरे दिन सास बर्तन माँजने बैठ गयी। उसको देख के सब बहुओं ने बर्तन माँजने शुरु कर दिये।
     
घर में झाड़ू लगाने नौकर आता था। 

अब छोटी बहू ने सुबह जल्दी उठकर झाड़ू लगा दी। 

सास ने पूछाः "बहू ! 

झाड़ू तूने लगायी है ?"

*"माँजी ! आप मत पूछिये। आपको बोलती हूँ तो मेरे हाथ से काम चला जाता है।🙏"*

    सास बोली- "झाड़ू लगाने का काम तो नौकर का है, तू क्यों लगाती है?"

*"माँजी ! ʹरामायणʹ में आता है कि वन में बड़े-बड़े ऋषि-मुनि रहते थे लेकिन भगवान उनकी कुटिया में न जाकर पहले शबरी की कुटिया में गये। क्योंकि शबरी रोज चुपके-से झाड़ू लगाती थी, पम्पासर का रास्ता साफ करती थी कि कहीं आते-जाते ऋषि-मुनियों के पैरों में कंकड़ न चुभ जायें।"*

सास ने देखा कि यह छोटी बहू तो सबको लूट लेगी क्योंकि यह सबका पुण्य अकेले ही ले लेती है। 

अब सास और सब बहुओं ने मिलके झाड़ू लगानी शुरू कर दी।

*जिस घर में आपस में प्रेम होता है वहाँ लक्ष्मी बढ़ती है और जहाँ कलह होता है वहाँ निर्धनता आती है।* 

सेठ का तो धन दिनोंदिन बढ़ने लगा। 

उसने घर की सब स्त्रियों के लिए गहने और कपड़े बनवा दिये। 

अब छोटी बहू ससुर से मिले गहने लेकर बड़ी जेठानी के पास गयी और बोलीः 

*"आपके बच्चे हैं, उनका विवाह करोगी तो गहने बनवाने पड़ेंगे। 

मेरे तो अभी कोई बच्चा है नहीं। 

इस लिए इन गहनों को आप रख लीजिये।"*

गहने जेठानी को देकर बहू ने कुछ पैसे और कपड़े नौकरों में बाँट दिये। 

सास ने देखा तो बोलीः *"बहू ! यह तुम क्या करती हो ? 

तेरे ससुर जी ने सबको गहने बनवाकर दिये हैं और तूने वे जेठानी को दे दिये और पैसे, कपड़े नौकरों में बाँट दिये !"*

*"माँजी ! मैं अकेले इतना संग्रह करके क्या करूँगी ? 

अपनी वस्तु किसी जरूरतमंद के काम आये तो आत्मिक संतोष मिलता है और दान करने का तो अमिट पुण्य होता ही है !"*

सास को बहू की बात लग गयी। वह सेठ के पास जाकर बोलीः 

*"मैं नौकरों में धोती-साड़ी बाँटूगी और आसपास में जो गरीब परिवार रहते हैं उनके बच्चों को फीस मैं स्वयं भरूँगी। 

अपने पास कितना धन है, किसी के काम आये तो अच्छा है। 

न जाने कब मौत आ जाय और सब यहीं पड़ा रह जाय ! 

जितना अपने हाथ से पुण्य कर्म हो जाये अच्छा है।"*

सेठ बहुत प्रसन्न हुआ कि पहले नौकरों को कुछ देते तो लड़ पड़ती थी पर, अब कहती है कि *ʹमैं खुद दूँगी।ʹ* 

सास दूसरों को वस्तुएँ देने लगी तो यह देख के दूसरी बहुएँ भी देने लगीं। 

नौकर भी खुश हो के मन लगा के काम करने लगे और आस-पड़ोस में भी खुशहाली छा गयी।

ʹगीताʹ में आता हैः

*यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।*
*स यत्प्रमाणं कुरूते लोकस्तदनुवर्तते।*

ʹश्रेष्ठ मनुष्य जो-जो आचरण करता है, दूसरे मनुष्य वैसा-वैसा ही करते हैं। 

वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, दूसरे मनुष्य उसी के अनुसार आचरण करते हैं।ʹ

छोटी बहू ने जो आचरण किया उससे उसके घर का तो सुधार हुआ ही, साथ में पड़ोस पर भी अच्छा असर पड़ा, उनके घर में भी सुधर गये। 

देने के भाव से आपस में प्रेम-भाईचारा बढ़ गया।

इस तरह बहू को सत्संग से मिली सूझबूझ ने उसके घर के साथ अनेक घरों को खुशहाल कर दिया !
शिक्षा: एक सुसंस्कारी जब अच्छा परिवर्तन लाने की सोचता है तो संस्कारो का उपदेश भी स्वआचरण से ही देता है ।

  🌹 *जय श्री राधे*🌹
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। आज का भगवद चिन्तन ।।

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।। आज का भगवद चिन्तन ।।           
                   
🚩एक कुशल मार्गदर्शक और नीति निपुण मित्र की जीवन में क्या भूमिका होती है, यह भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में देखनी चाहिए। 
अपने परम मित्र अर्जुन को उन कृष्ण ने कैसे कैसे संभाला और एक आदर्श क्षत्रीय के सोपान तक उन्हें ले गये। यही कारण था कि अर्जुन ने भी जब महाभारत का युद्ध अनिवार्य हो गया तो हजारों सैनिकों के बदले केवल उन एक श्रीकृष्ण का नेतृत्व माँगा था।
   🚩       जब आपका मित्र किसी घोर विषाद में, घोर निराशा में घिरकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाए तो उस समय उस मित्र के प्रति हमारा क्या कर्तव्य होना चाहिए, जिससे वह अपने कर्तव्य पथ से विमुख होकर हँसी का पात्र न बने, ये उन श्रीकृष्ण के जीवन का एक अहम और श्रेष्ठ किरदार है।
 🚩        अपने शरणागतों को विषाद से उबारकर प्रसाद तक पहुँचाना तो कोई उन शरणागत वत्सल श्री कृष्ण से सीखे। कृष्ण केवल मित्रता करना ही नहीं जानते अपितु हर हाल में मित्रता निभाना भी जानते हैं, अब वो चाहे अर्जुन से हो, उद्धव से हो या विप्र सुदामा से ही क्यों न हो। पवित्र भावना में, पवित्र उद्देश्यों में बिना किसी सम्मान की अपेक्षा के सदैव प्रसन्नता पूर्वक कर्म करते रहना ही कृष्ण होना है।

जय श्री राधे कृष्ण !!
🌹🙏🌹🙏🌹
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*पिता पुत्र का अनोखा रिश्ता*

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*पिता पुत्र का अनोखा रिश्ता*


भारतीय पिता पुत्र की जोड़ी भी बड़ी कमाल की जोड़ी होती है ।

दुनिया के किसी भी सम्बन्ध में, 
अगर सबसे कम बोल-चाल है, 
तो वो है पिता-पुत्र की जोड़ी में ।




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घर में दोनों अंजान से होते हैं, 
एक दूसरे के बहुत कम बात करते हैं, कोशिश भर एक दूसरे से पर्याप्त दूरी ही बनाए रखते हैं।बस ऐसा समझो कि
दुश्मनी ही नहीं होती।
माहौल कभी भी छोटी छोटी सी बात पर भी खराब होने का डर
सा बना रहता है और इन दोनों की नजदीकियों पर मां की पैनी नज़र हमेशा बनी रहती है।

ऐसा होता है जब लड़का,
अपनी जवानी पार कर, 
अगले पड़ाव पर चढ़ता है, 
तो यहाँ, 
इशारों से बाते होने लगती हैं, 
या फिर, 
इनके बीच मध्यस्थ का दायित्व निभाती है माँ ।

पिता अक्सर पुत्र की माँ से कहता है, 
जा, "उससे कह देना"
और, 
पुत्र अक्सर अपनी माँ से कहता है, 
"पापा से पूछ लो ना"

इन्हीं दोनों धुरियों के बीच, 
घूमती रहती है माँ । 

जब एक, 
कहीं होता है, 
तो दूसरा, 
वहां नहीं होने की, 
कोशिश करता है,

शायद, 
पिता-पुत्र नज़दीकी से डरते हैं ।
जबकि, 
वो डर नज़दीकी का नहीं है, 
डर है, 
माहौल बिगड़ने का । 

भारतीय पिता ने शायद ही किसी बेटे को, 
कभी कहा हो, 
कि बेटा, 
मैं तुमसे बेइंतहा प्यार करता हूँ , जबकि वह प्यार बेइंतहा ही करता है।

पिता के अनंत रौद्र का उत्तराधिकारी भी वही होता है,
क्योंकि, 
पिता, हर पल ज़िन्दगी में, 
अपने बेटे को, 
अभिमन्यु सा पाता है ।

पिता समझता है,
कि इसे सम्भलना होगा, 
इसे मजबूत बनना होगा, 
ताकि, 
ज़िम्मेदारियो का बोझ, 
इसको दबा न सके । 
पिता सोचता है,
जब मैं चला जाऊँगा, 
इसकी माँ भी चली जाएगी, 
बेटियाँ अपने घर चली जायेंगी,
तब, 
रह जाएगा सिर्फ ये, 
जिसे, हर-दम, हर-कदम, 
परिवार के लिए, अपने छोटे भाई के लिए,
आजीविका के लिए,
बहु के लिए,
अपने बच्चों के लिए, 
चुनौतियों से,
सामाजिक जटिलताओं से, 
लड़ना होगा ।

पिता जानता है कि, 
हर बात, 
घर पर नहीं बताई जा सकती,
इसलिए इसे, 
खामोशी से ग़म छुपाने सीखने होंगें ।

परिवार और बच्चों के विरुद्ध खड़ी, 
हर विशालकाय मुसीबत को, 
अपने हौसले से, 
दूर करना होगा।
कभी कभी
तो ख़ुद की जरूरतों और ख्वाइशों का वध करना होगा । 
इसलिए, 
वो कभी पुत्र-प्रेम प्रदर्शित नहीं करता।

पिता जानता है कि, 
प्रेम कमज़ोर बनाता है ।
फिर कई बार उसका प्रेम, 
झल्लाहट या गुस्सा बनकर, 
निकलता है, 

वो गुस्सा अपने बेटे की
कमियों के लिए नहीं होता,
वो झल्लाहट है, 
जल्द निकलते समय के लिए, 
वो जानता है, 
उसकी मौजूदगी की, 
अनिश्चितताओं को । 

पिता चाहता है, 
कहीं ऐसा ना हो कि, 
इस अभिमन्यु की हार, 
मेरे द्वारा दी गई, 
कम शिक्षा के कारण हो जाये,
पिता चाहता है कि, 
पुत्र जल्द से जल्द सीख ले, 
वो गलतियाँ करना बंद करे,
हालांकि गलतियां होना एक मानवीय गुण है,
लेकिन वह चाहता है कि उसका बेटा सिर्फ गलतियों से सबक लेना सीख ले।
सामाजिक जीवन में बहुत उतार चढ़ाव आते हैं, रिश्ते निभाना भी सीखे,

फिर, 
वो समय आता है जबकि, 
पिता और बेटे दोनों को, 
अपनी बढ़ती उम्र का, 
एहसास होने लगता है, 
बेटा अब केवल बेटा नहीं, पिता भी बन चुका होता है, 
कड़ी कमज़ोर होने लगती है ।


पिता की सीख देने की लालसा, 
और, 
बेटे का, 
उस भावना को नहीं समझ पाना, 
वो सौम्यता भी खो देता है, 
यही वो समय होता है जब, 
बेटे को लगता है कि, 
उसका पिता ग़लत है, 
बस इसी समय को समझदारी से निकालना होता है, 
वरना होता कुछ नहीं है,
बस बढ़ती झुर्रियां और 
बूढ़ा होता शरीर 
जल्द बीमारियों को घेर लेता है । 
फिर, 
सभी को बेटे का इंतज़ार करते हुए माँ तो दिखती है, 
पर, 
पीछे रात भर से जागा, 
पिता नहीं दिखता, 
जिसकी उम्र और झुर्रियां, 
और बढ़ती जाती है, बीमारियां
भी शरीर को घेर रहीं हैं।

 पिता अड़ियल रवैए का हो सकता है लेकिन वास्तव में वह नारियल की तरह होता है।

कब समझेंगे बेटे, 
कब समझेंगे बाप, 
कब समझेगी दुनिया.

पता है क्या होता है, 
उस आख़िरी मुलाकात में, 
जब, 
जिन हाथों की उंगलियां पकड़, 
पिता ने चलना सिखाया था, 
वही हाथ, 
लकड़ी के ढेर पर पड़े
पिता को 
लकड़ियों से ढकते हैं,
उसे घी से भिगोते हैं, 
और उसे जलाते हैं, इसे ही पितृ ऋण से मुक्ति मिल जाना कहते हैं। 

ये होता है,
हो रहा है, 
होता चला जाएगा ।

जो नहीं हो रहा,
और जो हो सकता है,
वो ये, 
कि, 
हम जल्द से जल्द, 
कहना शुरु कर दें,
हम आपस में, 
कितना प्यार करते हैं?
और कुछ नहीं तो कम से कम घर में हंस के मुस्कुरा कर बात तो की ही जा सकती है, सम्मान पूर्वक।

फिर, समय निकलने के बाद पश्चाताप वश यह ना कहना पड़े-

हे मेरे महान पिता.. 
मेरे गौरव, 
मेरे आदर्श, 
मेरा संस्कार, 
मेरा स्वाभिमान, 
मेरा अस्तित्व...
मैं न तो इस क्रूर समय की गति को समझ पाया.. 
और न ही, 
आपको अपने दिल की बात, bio
कह पाया......................    

*एक पिता द्वारा प्रेषित*
🙏🙏🙏 हर हर महादेव हर 🙏🙏🙏
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*हिसाब*

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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*हिसाब*

एक घटना मुझे याद आती है। एक गांव के पास एक बहुत सुंदर पहाड़ था। उस सुंदर पहाड़ पर एक मंदिर था। वह दस मील की ही दूरी पर था और गांव से ही मंदिर दिखाई पड़ता था। दूर-दूर के लोग उस मंदिर के दर्शन करने आते और उस पहाड़ को देखने जाते। उस गांव में एक युवक था, वह भी सोचता था, कभी मुझे जाकर देख आना है। लेकिन करीब था, कभी भी देख आएगा। लेकिन एक दिन उसने तय ही कर लिया कि मैं कब तक रुका रहूंगा; आज रात मुझे उठ कर चले जाना है। सुबह से धूप बढ़ जाती थी, इसलिए वह दो बजे रात उठा, उसने लालटेन जलाई और गांव के बाहर आया। घनी अंधेरी रात थी, वह बहुत डर गया। उसने सोचा, छोटी सी लालटेन है, दोत्तीन कदम तक प्रकाश पड़ता है, और दस मील का फासला है। इतना दस मील का अंधेरा इतनी छोटी सी लालटेन से कैसे कटेगा? इतना है अंधेरा, इतना विराट, इतनी छोटी सी है लालटेन पास में, इससे क्या होगा? इससे दस मील पार नहीं किए जा सकते। सूरज की राह देखनी चाहिए, तभी ठीक होगा। वह वहीं गांव के बाहर बैठ गया।
ठीक भी था, उसका गणित बिलकुल सही था। और आमतौर से ऐसा ही गणित अधिकतम लोगों का होता है। तीन फीट तक तो प्रकाश पहुंचता है और दस मील लंबा रास्ता है। भाग दे दें दस मील में तीन फीट का, तो कहीं इस लालटेन से काम चलने वाला है? लाखों लालटेन चाहिए, तब कहीं कुछ हो सकता है।

वह वहां डरा हुआ बैठा था और सुबह की प्रतीक्षा करता था। तभी एक बूढ़ा आदमी एक और छोटे से दीये को हाथ में लिए चला जा रहा था। उसने उस बूढ़े से पूछा, पागल हो गए हो? कुछ गणित का पता है? दस मील लंबा रास्ता है, तुम्हारे दीये से तो एक कदम भी रोशनी नहीं पड़ती है!

उस बूढ़े ने कहा, पागल, एक कदम से ज्यादा कभी कोई चल पाया है? एक कदम से ज्यादा मैं चल भी नहीं सकता, रोशनी चाहे हजार मील पड़ती रहे। और जब तक मैं एक कदम चलता हूं, तब तक रोशनी एक कदम आगे बढ़ जाती है। दस मील क्या, मैं दस हजार मील पार कर लूंगा। उठ आ, तू क्यों बैठा है? तेरे पास तो अच्छी लालटेन है। एक कदम तू आगे चलेगा, रोशनी उतनी आगे बढ़ जाएगी।

जिंदगी में, अगर कोई पूरा हिसाब पहले लगा ले तो वहीं बैठ जाएगा, वहीं डर जाएगा और खत्म हो जाएगा। जिंदगी में एक-एक कदम का हिसाब लगाने वाले लोग हजारों मील चल जाते हैं और हजारों मील का हिसाब लगाने वाले लोग एक कदम भी नहीं उठाते, डर के मारे वहीं बैठे रह जाते हैं।
🌹 जय श्री कृष्ण 🌹
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
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श्रीहरिः

एक लोटा पानी

(१)

चैतका महीना था। 

ग्वालियर राज्यका मशहूर डाकू परसराम अपने अरबी घोड़ेपर चढ़ा हुआ, जिला दमोहके देहातमें होकर कहीं जा रहा था। 





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लकालक दोपहरी थी। 

प्यासके कारण परसरामका गला सूख रहा था। 

कोई तालाब, नदी या गाँव दिखायी न देता था। 

चलते-चलते एक चबूतरा मिला, जिसपर एक शिवलिंग रखा था। 

छोटे और कच्चे चबूतरेपर बरसातके पानीने छोटे-छोटे गड्ढे कर दिये थे। 

इसलिये महादेवजीकी मूर्ति कुछ तिरछी-सी हो रही थी। 

यह देख परसराम घोड़ेसे उतरा और उसे एक पेड़से बाँधकर अपनी तलवारसे महादेवजीकी पिण्डीको ठीक बिठलाने लगा। 

परसराम बोला—‘महादेव गुरुजी हैं। 

परशुराम के गुरु थे, इसलिये मेरे भी गुरु हैं। 

वे भी ब्राह्मण थे, मैं भी ब्राह्मण हूँ। 

उन्होंने अमीरोंका नाश किया था और गरीबोंका पालन किया था, वही मैं भी कर रहा हूँ। 

मूर्ख लोग मुझे डाकू कहते हैं। 

धनवान् से जबरन् धन लेकर दीनोंका पालन करना क्या डाकूपन है ? 

है तो बना रहे। 

ग्वालियर राज्यने मेरे लिये पाँच हजारका इनामी वारंट जारी किया है और भारत-सरकारने पचीस हजारका। 

मेरी गिरफ्तारीके लिये तीस हजारका इनाम छप चुका है। 

वे लोग अमीरोंके पालक और गरीबोंके घालक हैं। 

इस लिये मुझे डाकू कहते हैं। 

डाकू वे हैं या मैं ? 

इसका निर्णय कौन करेगा ? 

खैर कोई परवाह नहीं। 

जबतक शंकर गुरुका पंजा मेरी पीठपर है तब तक कोई परसरामको गिरफ्तार नहीं कर सकता। 

लेकिन क्या मैं आज प्यासके मारे इस जंगलमें मर जाऊँगा ? 

मेरे पंद्रह साथी—

जो सब पढ़े-लिखे और बहादुर हैं—

अपने-अपने अरबी घोड़ोंपर चढ़े मुझे खोज रहे होंगे। 

जब वे मुझे इस जंगलमें मरा हुआ पायेंगे, तब वे नेत्रहीन होकर बड़े दु:खी होंगे। 

बाबा! गुरुदेव! क्या एक लोटा पानीके बिना आप मेरी जान ले लेंगे ?’

तबतक एक बुढ़िया वहाँ आयी। 

उसके हाथमें एक लोटा जल था और लोटेके ऊपर एक कटोरी थी, जिसमें मिठाई रखी थी।

परसराम— बूढ़ी माई! 

तुम कहाँ रहती हो ?

बुढ़िया— थोड़ी दूरपर सेखूपुर गाँव है। 

बागोंमें बसा है, इस लिये दिखायी नहीं देता। 

वहीं मेरा घर है। 

जातिकी अहीर हूँ बेटा!

परसराम—

यहाँ क्यों आयी हो?

चबूतरेपर पानी और मिठाई रखकर बुढ़िया बैठ गयी और रोने लगी। 

परसरामने जब बहुत समझाया तब वह कहने लगी—

‘बेटा! मौतके दिन पूरे करती हूँ। 

घरमें एक लड़का था और बहू थी। 

मेरा बेटा बिहारी तुम्हारी ही उमरका था। 

उसीने यह चबूतरा बनाया था और कहींसे लाकर उसीने महादेव यहाँ रखे थे। 

रोजाना पूजा करता था। 

परसाल इस गाँवमें कलमुही ताऊन ( प्लेग ) आयी। 

बेटा और बहू दोनों एक दस सालकी कन्या छोड़कर उड़ गये। 

रोने के लिये मैं रह गयी। 

जबसे बेटा मरा, तबसे मैं रोज एक लोटा पानी चढ़ा जाती हूँ और रो जाती हूँ। 

इस साल वैशाखमें नातिन चम्पाका विवाह है। 

घरमें कुछ नहीं है। 

न जानें, कैसे महादेव बाबा चम्पाका विवाह करेंगे।’

परसराम— महादेव बाबा चम्पाका विवाह खूब करेंगे। 

तुम यह पानी मुझे पिला दो, बड़ी प्यास लगी है।

बुढ़िया— पी लो बेटा, पी लो। 

मिठाई भी खा लो। 

यह पानी जो तुम पी लोगे तो मैं समझूँगी कि महादेवजी पर चढ़ गया। 

आत्मा सो परमात्मा। 

मैं फिर चढ़ा जाऊँगी। 

पी लो बेटा, पी लो, पहले यह मिठाई खा लो।

इतना कहकर बुढ़ियाने पानीका लोटा और मिठाईकी कटोरी परसराम के सामने रख दिये। 

मिठाई खाकर और शीतल स्वच्छ जल पीकर परसराम बोले—

‘चम्पाका विवाह कब होगा माई!’

बुढ़िया— वैशाख के उँजेरे पाखकी पंचमी को टीका है। 

केसरीपुर से बारात आयेगी।

परसराम— विवाहके लिये तुम चिन्ता कुछ मत करना। 

तुम्हारी चम्पाका विवाह महादेव ही करेंगे।

बुढ़िया— तुम कौन हो बेटा ? 

तुम्हारी हजारी उमर हो। 

गाँव तक चलो तो तुमको कुछ खिलाऊँ। 

भूखे मालूम होते हो।

परसराम— भूखा तो हूँ, पर गाँव मैं नहीं जा सकता। 

मेरा नाम परसराम है और लोग मुझे डाकू कहते हैं। 

आगरे के कप्तान यंग साहब, जिन्होंने सुल्ताना डाकू को गिरफ्तार किया था, तीस सिपाहियों के साथ मेरे पीछे लगे हुए हैं। 

मेरे साथी छूट गये हैं, इस लिये मैं गाँवमें नहीं जा सकता। 

जिस दिन चम्पाका विवाह होगा, उस दिन तुम्हारे गाँवमें पाँच मिनट के लिये आऊँगा।

बुढ़िया— तुम डाकू तो मालूम नहीं पड़ते— देवता मालूम पड़ते हो।

घोड़ेपर सवार होकर परसरामने कहा—

‘अब ऐसा ही उलटा जमाना आया है माई! 

उदार और बहादुर को डाकू कहा जाता है और महलों में बैठकर दिन दहाड़े गरीबोंको लूटनेवालों को रईस कहा जाता है। 

धर्मात्मा भीख माँगते हैं, पापी लोग हुकूमत करते हैं। 

पतिव्रताएँ उघारी फिरती हैं, छिनालों के पास रेशमी साड़ियाँ हैं। 

कलियुग है न! मैं जाता हूँ। 

मेरा नाम याद रखना पंचमीको आऊँगा।’

परसराम चले गये। 

बुढ़ियाने भी घर की राह ली। 

महादेवजी पर जल चढ़ाकर उसने चम्पा से परसराम के मिलने की सारी कहानी बयान कर दी; गाँवका मुखिया भी वहीं खड़ा था। 

उसने भी सारा हाल सुना। 

मुखियाने सोचा— मेरा भाग जग गया, इनाम का बड़ा हिस्सा मैं पाऊँगा। 

थाने में जाकर रिपोर्ट लिखायी कि ‘वैशाख शुक्लपक्षकी पंचमीके दिन परसराम सेखूपुरमें चम्पा के विवाहमें शामिल होने आयेगा। 

पुलिसके द्वारा यह समाचार यंग साहब को मालूम करा देना चाहिये। 

अगर उस रोज डाकू परसराम गिरफ्तार न हुआ तो फिर कभी न हो सकेगा।’

(२)

चौथ के दिन, बिहारी अहीर के दरवाजेपर पाँच गाड़ियाँ आकर खड़ी हुईं। 

एक में आटा भरा था। 

एक में घी, शक्कर और तरकारियाँ भरी थीं। 

एक गाड़ीमें कपड़े - ही - कपड़े थे, तरह - तरहके नये थानों से वह गाड़ी भरी थी। 

चौथी गाड़ीमें नये - नये बर्तन भरे थे और पाँचवीं गाड़ी तरह - तरहकी पक्की मिठाइयोंसे भरी थी। 

गाड़ीवानों ने सब सामान बिहारी अहीरके घर में भर दिया। 

लोगों ने जब यह पूछा कि ‘यह सामान किसने भेजा ?’ 

' तब गाड़ीवानों ने कहा कि ‘हम लोग भेजने वाले का नाम - धाम कुछ नहीं जानते। 

हम लोग दमोह के रहनेवाले हैं। 

किराये पर गाड़ी चलाया करते हैं। 

हम लोगोंको किराया अदा कर दिया गया। 

हम लोगों को केवल यही हुक्म है कि यह सामान सेखूपुरके बिहारी अहीरके घरमें जबरन् भर आवें। 

बस, और ज्यादा ती न - पाँच हम लोग कुछ नहीं जानते।’ 

इस विचित्र घटना पर गाँवभर आश्चर्य कर रहा था। 

केवल मुखियाको और बुढ़ियाको मालूम था कि यह सब काम परसरामका है। 

मुखियाने थाने में इस घटनाकी रिपोर्ट लिखायी और यह भी लिखाया कि ‘कल पंचमीके दिन सुबहको जब चम्पाके फेरे पड़ेंगे, उस समय कन्यादान देने खुद परसरामके आनेकी उम्मीद है; 

क्योंकि वह अभीतक खुद नहीं आया है। 

पाँच मिनटके लिये गाँवमें आनेका उसने वचन दिया है। 

चाहे धरती इधर - की - उधर हो जाय, पर परसरामका वचन खाली नहीं जा सकता। 

चौथ की रातमें ही मिस्टर यंग साहब अपने तीस मरकट सिपाहियोंके साथ सेखूपुरमें आ धमके। 

उन सबोंने घोड़ों के सौदागरों का भेष बनाया था। 

मुखियाके दरवाजे पर वे लोग ठहर गये। 

गाँव वालों ने जाना कि घोड़े के सौदागर लोग मेले को जा रहे हैं। 

मुखिया और चौकीदार के सिवा असली भेद कोई नहीं जानता था।

(३)

पंचमीका सबेरा हुआ। परसरामने ज्यों ही घोड़ेपर चढ़ना चाहा, त्यों ही छींक हुई। 

एक साथी का नाम था रहीम। 

बी० ए० पास था। 

पेशावरका रहनेवाला था। 

घोड़ेकी सवारीमें और निशाना लगानेमें एक ही था। 

रहीमने परसरामको रोकते हुए कहा—

‘कहाँ जा रहे हैं आप ?’

परसराम—

सेखूपुर, चम्पाका कन्यादान देने। 

तुमको तो सब हाल मालूम करा दिया था। 

रोको मत। 

रुक नहीं सकता।

रहीम—

छींक हुई!

परसराम—

मुसलमान होकर भी छींक को मानते हो!

रहीम—

बात यह है कि यंग साहब अपने तीस सिपाहियों के साथ इधर ही गये हैं। 

उन लोगोंने सौदागरों का स्वाँग बनाया है। 

मगर मेरी नजर को धोखा नहीं दे सकते।

परसराम—

घूमने दो। 

क्या करेगा यंग साहब ?

रहीम— मालूम होता है कि मूर्ख बुढ़िया ने आपके मिल ने का हाल अपने गाँवमें बयान कर दिया है। 

पुलिसको आपके जाने का हाल मालूम हो गया है, तभी यंग साहबने मौका देखकर चढ़ाई की है।

परसराम— सम्भव है, तुम्हारा अनुमान सही हो। 

लेकिन इसी डर से मैं अपने वचन को तोड़ नहीं सकता। 

एक लोटा पानी से उऋण होना है।

रहीम— अच्छा, तो मैं भी साथ चलता हूँ। 

जो वक्त पर साथ दे, वही साथी है।

परसराम— तुम्हारी क्या जरूरत है ? 

तुम यहीं रहो।

रहीम— मैं आपको अकेला नहीं जाने दूँगा। 

नमक हरामी नहीं करूँगा। आपकी जान जायगी तो पहली मेरी जान जायगी।

दोनों घोड़े पर सवार होकर सेखूपुरकी ओर चल दिये। 

वे उस समय बिहारीके दरवाजे पर पहुँचे, जब चम्पाके फेरे पड़ गये थे और कन्यादानका समय आ गया था।

अपने घोड़े की बागडोर रहीमको पकड़ाकर परसराम उतर पड़े और घर में घुस गये। 

पाँच मुहरों से परसराम ने चम्पाका कन्यादान सब से पहले दिया और वे बाहर जाने लगे।

गाँववालों ने जान लिया कि इस व्यक्तिने ही पाँच गाड़ियाँ सामान भेजा था। 

श्रद्धा के मारे उन लोगोंने परसराम को घेर लिया। 

मारे खुशी के बुढ़िया की बोलती बंद थी। 

एक आदमी बोला—

‘वाह मालिक! 

बिना जल पान किये कहाँ जाते हो!’ दूसरा आदमी लोटा लिये चरण धोनेका उपाय करने लगा। 

तीसरा आदमी परसराम को बैठनेके लिये अपना साफा धरती पर बिछाने लगा। 

चौथा आदमी दौड़ा तो एक दोने में मिठाइयाँ भर लाया।

परसरामने कहा—

‘कैसे पागल हो तुमलोग! 

जिस कन्याका कन्यादान दिया, उसी का भोजन कैसे करूँगा ?’—

इतना कहकर वे घर से बाहर आ गये। 

घोड़ेपर चढ़ते - चढ़ते परसरामने देखा कि यंग साहबने सदल - बल उनको घेर लिया है। 

परसराम ने उनको ललकारकर कहा—

‘गाँवके बाहर आकर मरदूमी दिखलाओ।’ 

इस के बाद रहीम के साथ परसरामने घोड़ों को एड़ लगायी और गाँवसे बाहर हो गये। 

साहबने पीछा किया। 

सब लोग घोड़ों पर सवार थे।

 तड़ातड़ गोलियाँ छूटने लगीं। 

वे दोनों भी फायर करते जाते थे। 

परसराम और रहीम के अचूक निशानोंने पाँच सिपाही मार डाले।

(४)

परसरामको भागने का अवसर देने के लिये रहीमने अपना घोड़ा पीछे लौटाया और वह सिपाहियों के साथ जूझने लगा। 

सब लोगों ने उसे घेर लिया। 

दनादन गोलियाँ छूटने लगीं। 

तीन सिपाही रहीमने मौतके घाट उतार दिये। 

उसके शरीरमें चार गोलियाँ घुस चुकी थीं। 

एक गोली घोड़ेको लगी। 

घोड़ा और सवार दोनों ही मरकर गिर पड़े। 

तबतक परसराम एक कोस आगे निकल गये थे। 

साहब ने रहीमको वहीं छोड़ा और परसरामका पीछा किया। 

तीन कोसके बाद परसराम दिखायी पड़े। 

साहबकी गोलीसे परसरामका घोड़ा घायल होकर गिर पड़ा। 

परसराम पैदल चलने लगे। 

आगे था एक नाला, ५ - ६ गज चौड़ा था और तीस हाथ गहरा था। बरसाती पानीने उस नालेको खंदकका रूप दे दिया था। 

परसरामने कूदकर उसे पार करना चाहा; परंतु पैर फिसल गया। 

वे खंदकमें गिर पड़े। 

किनारे यंग साहब आ खड़े हुए। 

नीचे अँधेरा था, साफ - साफ दिखायी न पड़ता था।

ज्यों ही साहबने नीचे झाँका त्यों ही परसरामने गोली छोड़ दी। 

विक्टोरिया के इकबाल साहब तो बच गये, मगर उनका टोप उड़ गया। 

सिपाहियोंने गोली छोड़ी। 

परसराम एक किनारे छिप गये। 

फायर खाली गया। 

साहबने कहा—

‘तीस हाथ गहरे गड्ढेमें गिरा तो भी निशाना मार रहा है। 

शाबाश बहादुर, शाबाश! 

तबतक परसराम ने आवाज के निशाने पर एक गोली छोड़ दी। 

साहबके पास एक सिपाही खड़ा था। 

उसकी खोपड़ी उड़ गयी।

साहबने कहा—

‘हमारे नौ आदमी काम आ चुके हैं। 

मगर डाकू का एक ही आदमी मरा।’

एक सिपाही था राजपूत। 

उसने आगे बढ़कर कहा—

‘मिट्टी गिराकर डाकू को दाब देना चाहिये।’ 

आवाज का निशाना साधकर परसराम ने गोली छोड़ी। 

राजपूत बेचारा मरकर गिर गया। 

साहब ने कहा—

‘वेल परसराम! 

टुम बाहर आ जाओ। 

अम टुम पर बहोत खुश हैं। 

टुम एक बहादुर और बातका ढनी आडमी है। 

अम टुमारे निशानेपर खुश हूँ।’

परसरामने जवाब दिया—

‘मैं अपना वचन पूरा कर चुका। 

एक लोटा पानी से उऋण हो गया। 

अब मरनेका डर नहीं है।’

साहब—

‘अगर टुम डाका डाल ना बंड करने की कसम खाओ तो अम टुम को वायसराय से कहकर छुड़ा लेगा। 

इतमिनान करो और बाहर आओ। 

टुम भी बात का ढनी, अम भी बात का ढनी। 

आज से टुम हमारा डोस्त हुआ।’

परसराम बाहर निकल आये और आत्मसमर्पण कर दिये। 

यंग साहबने उनको गिरफ्तार कर लिया और आगरा ले गये। 

कुछ दिनों मुकदमा चला। 

मगर यंग साहब ने परसरामको साफ बरी करा दिया। 

परसरामने समझ लिया—

अच्छा उद्देश्य होने पर भी आखिर डकैती थी बहुत बुरी चीज, उसका समर्थन हो ही नहीं सकता। 

अतएव उस काम को छोड़ दिया। 

वे साधु हो गये और अपने साथियों को नेकी का जीवन व्यतीत करनेका उपदेश दिया। 

परसरामने हरद्वारमें जाकर पाँच साल तक घोर तपस्या की और सन् 1935 ई० में गंगाजीकी बीच धारामें खड़े - खड़े शरीर त्याग दिया। 

परसरामने यह दिखला दिया कि विपत्ति को देखकर भी वचन का पालन करना चाहिये।

जय श्री राधे .......यह गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक है – "एक लोटा पानी", उसी पुस्तक से यह कहानी लिया गया है।



।। ।। जीवन की सत्य कहानी ।। ।।

*🧍🧍🏻‍♀️पति एक दरगाह पर माथा टेककर घर लौटा तो पत्नी ने.. बगैर नहाए घर में घुसने नहीं दिया।*

बोली : जब अपने खुद के बाप को शमशान में जलाकर आये थे, तब तो खूब रगड़ रगड़ के नहाये थे।अब किसी की लाश पर मत्था टेककर आ रहे हो, अब नहीं नहाओगे ?

पति : अरी बावरी, वो तो समाधी है।

पत्नी : समाधि ! 🤔 उसको जलाया कब ? जलावेगा तभी तो समाधि बनेगी। उसमें तो अभी लाश ही पड़ी है।

पति : अरे, वो तो देवता है।




पत्नी : तो तुम्हारे पिता क्या राक्षस थे ? जो उन्हें देवता बता रहे हैं। क्या हमारे 33 कोटि देवी-देवता कम पड़ गये क्या तुम्हें ?

पति : अरी मुझे तो.. दोस्त अब्दुल ले गया था। अगर नहीं जाऊँगा तो उसे बुरा नहीं लगेगा?

पत्नी : तो उस अब्दुल को.. सामने वाले हनुमानजी के मन्दिर में मत्था टेकवाने ले आना। कल मंगलवार भी है।

पति : वो तो कभी नहीं आवेगा मत्था टेकने। ला तू पानी की बाल्टी दे।

पत्नी : तो कान पकड़ के 10 दंड बैठक और लगाओ, और सौगंध लो कि.. आगे से किसी की मजार पर नहीं जाओगे !
हमारा घर एक मंदिर 🛕 है यहाँ "बांके बिहारी जी , श्री राधारानी , महादेवजी और माँ आदिशक्ति विराजित हैं।
याद रखें हम खड़े (जिंदा) को पूजते हैं लेटे (मुर्दा) को नहीं। 

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🕉 संसार बाधक नहीं है, प्रत्युत उस से सुख लेने की इच्छा बाधक है। सुख चाहने वाला दुख से कभी बच नहीं सकता।  शरीर, रुपए, घर, कुटुंबी आदि कुछ भी बाधक नहीं है बाधक है ।
*मैं सुख ले लूं*-- *यह भाव*।  इच्छा मात्र बाधक है, चाहे अच्छी हो या बुरी।  सब कुछ परमात्मा ही है पर वह भोग्य नहीं है। आप उन्हें भोग्य बनाकर सुख भोगना चाहोगे तो दुख पाते रहोगे। अप्राप्त की इच्छा करने से बंधन होता है और प्राप्त की इच्छा करने से दूरी होती है। 

कर्म करने से और चिंतन करने से प्रकृति के साथ संबंध होता है। कुछ करें नहीं, चिंतन करें नहीं तो स्वरूप में स्थिति हो जाएगी। न कुछ करो, न कुछ सोचो, न कुछ चाहो।  कुछ भी चिंतन करोगे, समाधि भी करोगे तो प्रकृति के साथ संबंध हो जाएगा।

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।। श्रीमद्भागवत गीता सारः ।।

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।। श्रीमद्भागवत गीता सारः ।।


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*_संक्षिप्त  गीता : छठा  अध्याय_* 
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*भगवान श्री कृष्ण ने छठे अध्याय में कहा कि जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम ही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। 

सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहा जाता है। 

जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके बिना फल की इच्छा के कोई कार्य करता है तो उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। 

जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका मन ही उसका सबसे अच्छा मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। 


जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है और जिस मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है उसके लिए सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी और मान-अपमान सब एक समान हो जाते हैं। 

ऐसा मनुष्य स्थिर चित्त और इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके हमेशा सन्तुष्ट रहता है।*

〰️ *अगला  अध्याय  कल....*〰️

|| हनुमानजी का परब्रह्म स्वरूप ||

शिव पुराण' की 'रुद्र संहिता' में हनुमान के परब्रह्म स्वरूप की संपूर्णता की आधारशिला स्थापित की गई है। 

श्रीरुद्र से श्रीहनुमान जी की अभिन्नता और एका कारता का उल्लेख है।

याज्ञवल्क्यजी  ने भारद्वाजजी को बोध प्रदान करते हुए कहा है कि- 

"परमात्मा नारायण ही श्री हनुमान हैं।हनुमान को रुद्रों में ग्यारहवाँ रुद्र माना गया है। 

वह परम कल्याण, स्वरूप साक्षात शिव हैं। 

गोस्वामी तुलसीदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'हनुमान बाहुक' में भी इसका समर्थन किया है। 

'वायु पुराण' के पूर्वाद्ध में भगवान महादेव के हनुमान रूप में अवतार लेने का उल्लेख है।

विनय पत्रिका' के अनेक पदों में गोस्वामी तुलसीदास जी ने हनुमान को शंकर रूप मानकर 'देवमणि' रुद्रावतार महादेव, वामदेव, कालाग्रि आदि नामों से संबोधित किया है। 

हनुमान को पुराणों में कहीं भगवान शिव के अंश रूप में तो कहीं साक्षात शंकर जी के रूप में वर्णित किया गया है। 

'शिव पुराण' की 'शतरुद्र संहिता' के बीसवें अध्याय से इस कथन की पुष्टि होती है। 

'स्कंद पुराण' के अनुसार हनुमानजी से बढ़कर जगत में कोई नहीं है।

किसी भी दृष्टि से चाहे पराक्रम, उत्साह, मति और प्रताप वर विचार करें अथवा शील माधुर्य और नीति को देखें, चाहे गाम्भीर्य चातुर्य और धैर्य को देखें,इस विशाल ब्रह्मांड में हनुमान जैसा कोई नहीं है। 

हनुमान जी के लिए वायुपुत्र' का जो प्रयोग होता है, उसकी दार्शनिक प्रतीकात्मक भूमिका जानना अनिवार्य है। 

वायु, गति, पराक्रम, विद्या, भक्ति और प्राण शब्द का पर्याय है। 

वायु के बिना या वायु की वृद्धि से प्राणियों का मरण होता है।

साधक और योगी के लिए तो प्राण, वायु का नियमन योग की आधार भूमिका है। 

पवन सभी का प्राणदाता जनक है।इसी प्राणतत्व की भूमिका पर हनुमान जी पवनपुत्र सहज ही निरुपित हो जाते हैं।

      || श्री हनुमानजी महाराज की जय हो ||

|| आज माता यशोदा जयंती है ||

साल फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को यशोदा जयंती मनाई जाती है। 

यह दिन भगवान कृष्ण की मां यशोदा के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। 

भगवान कृष्ण का जन्म मां देवकी के कोख से हुआ था।

हिंदू धर्म में यशोदा जयंती का पर्व बेहद खास होता है। 

हर साल फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को यशोदा जयंती मनाई जाती है। 

यह दिन भगवान कृष्ण की मां यशोदा के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है।

भगवान कृष्ण का जन्म मां देवकी के कोख से हुआ था, लेकिन माता यशोदा ने श्रीकृष्ण भगवान का पालन - पोषण किया था। 

यशोदा जयंती के पावन पर्व पर भगवान कृष्ण और माता यशोदा का पूजन किया जाता है। 

साथ ही माताएं अपने संतान की लंबी आयु और सुखी जीवन के लिए व्रत भी रखती हैं। 

यह त्योहार खासतौर से गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारतीय राज्यों में बड़े धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

   || माता यशोदा जी की जय हो ||
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पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

भगवान सूर्य के वंश :

भगवान सूर्य के वंश : भगवान सूर्य के वंश : भगवान सूर्य के वंश होने से मनु  सूर्यवंशी कहलाये ।   रघुवंशी :-  यह भारत का प्राचीन क्षत्रिय कुल ह...