https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: 10/15/20

*चमत्कारिक सुदर्शन चक्र*

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

 * चमत्कारिक सुदर्शन चक्र *

।। श्री विष्णुपुराण प्रवचन ।।

🙏🙏!!श्री हरि:!! 🙏🙏

👉 *चमत्कारिक सुदर्शन चक्र*

*जगन्नाथ पुरी में किसी भी स्थान से आप भगवान के मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा।*

*इसे नीलचक्र भी कहते हैं।*

 *यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है।*


*सामान्य दिनों के समय हवा की दिशा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत।* 

*लेकिन जगन्नाथ पुरी में इसका उल्टा होता है।*

*अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है।* 

 *लेकिन यहां हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है।*

       *।।ॐ नमोः नारायणाय।।* 

|| समय बहुत बलवान होता है ||



शिखण्डी से भीष्म को मात दिला सकता है !
   कर्ण के रथ को फंसा सकता है !

द्रौपदी का चीरहरण करा सकता है !
इसलिये किसी से डरना है तो वह है समय !

महाभारत में एक प्रसंग आता है जब धर्मराज युधिष्ठिर ने विराट के दरबार में पहुँचकर कहा-

हे राजन ! 

मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम कंक है !

मैं द्यूत विद्या में निपुण आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ। 

द्यूत जुआ वह खेल जिसमें धर्मराज अपना सर्वस्व हार गए थे !

अब कंक बन कर वही खेल वह राजा विराट को सिखाने लगे।

जिस बाहुबली के लिये रसोइये भोजन परोसते थे !

वह भीम बल्लभ का भेष धारण कर रसोइया बन गये ; 

नकुल और सहदेव पशुओं की देखरेख करने लगे ; 

दासियों से घिरी रहने वाली महारानी द्रौपदी स्वयं एक दासी सैरन्ध्री बन गयी और धनुर्धर उस युग का सबसे आकर्षक युवक, वह महाबली योद्धा द्रोण का सबसे प्रिय शिष्य ; 

जिसके धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ते ही युद्ध का निर्णय हो जाता था !

वह अर्जुन पौरुष का प्रतीक महानायक अर्जुन एक नपुंसक बन गया।

उस युग में पौरुष को परिभाषित करने वाला अपना पौरुष त्याग कर होठों पर लाली और आंखों में काजल लगा कर बृह्नलला बन गया।

परिवार पर एक विपदा आयी तो धर्मराज अपने परिवार को बचाने हेतु कंक बन गया। 

पौरुष का प्रतीक एक नपुंसक बन गया....! 

एक महाबली साधारण रसोईया बन गया नकुल और सहदेव पशुओं की देख रेख करते रहे ; 

और द्रौपदी एक दासी की तरह महारानी की सेवा करती रही।

पांडवों के लिये वह अज्ञातवास का काल उनके लिये अपने परिवार के प्रति अपने समर्पण की पराकाष्ठा थी।

वह जिस रूप में रहे जो अपमान सहा....!

जिस कठिन दौर से गुज़रे उसके पीछे उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था !

अपितु परिस्थितियों को देखते हुये....! 

परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाने का काल था !

आज भी अज्ञातवास जी रहे ना जाने कितने महायोद्धा हैं !

कोई धन्ना सेठ की नौकरी करते उससे बेवजह गाली खा रहा है !

क्योंकि उसे अपनी बिटिया की स्कूल फीस भरनी है।

बेटी के ब्याह के लिये पैसे इकट्ठे करता बाप एक सेल्समैन बन कर दर दर धक्के खा कर सामान बेचता दिखाई देता है।

ऐसे असंख्य पुरुष निरंतर संघर्ष से हर दिन अपना सुख दुःख छोड़ कर अपने परिवार के अस्तिव की लड़ाई लड़ रहे हैं। 

रोज़मर्रा के जीवन में किसी संघर्षशील व्यक्ति से रूबरू हों तो उसका आदर कीजिये उसका सम्मान करें। 

फैक्ट्री के बाहर खड़ा गार्ड होटल में रोटी परोसता वेटर सेठ की गालियां खाता मुनीम वास्तव में कंक , बल्लभ और बृह्नला ही है।

क्योंकि कोई भी अपनी मर्ज़ी से संघर्ष या पीड़ा नही चुनता वे सब यहाँ कर्म करते हैं वे अज्ञात वास जी रहे हैं......!

परंतु वो अपमान के भागी नहीं बल्कि प्रशंसा के पात्र हैं !

यह उनकी हिम्मत,ताकत और उनका समर्पण है कि विपरीत परिस्थितियों में भी वह डटे हुये हैं।

वो कमजोर नहीं हैं उनके हालात कमज़ोर हैं उनका वक्त कमज़ोर है।

अज्ञातवास के बाद बृह्नला जब पुनः अर्जुन के रूप में आये तो कौरवों के नाश कर दिया। 

वक्त बदलते वक्त नहीं लगता इसलिये जिसका वक्त खराब चल रहा हो !

उसका उपहास और अनादर ना करें उसका सम्मान करें !

उसका साथ दें क्योंकि एक दिन संघर्ष शील कर्मठ ईमानदारी से प्रयास करने वालों का अज्ञातवास अवश्य समाप्त होगा।

समय का चक्र घूमेगा और इतिहास बृह्नला को भूलकर अर्जुन को याद रखेगा।

यही नियति है ; यही समय का चक्र है। 

यही महाभारत की भी सीख है!

 
*।।ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय।।*
*बोलो जय जगन्नाथ जी*
🌺.        🍁.     🌺

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

अक्सर लोग भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति को ही दैवीय कृपा समझते हैं।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

 अक्सर लोग भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति को ही दैवीय कृपा समझते हैं। 


।। श्रीमद्भागवत प्रवचन ।।
               

    अक्सर लोग भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति को ही दैवीय कृपा समझते हैं। 


किसी सुख - साधन सम्पन्न व्यक्ति के बारे में लोग यही कहते हैं कि भगवान की उसके ऊपर बड़ी कृपा है जो उसे इतना सब कुछ दिया है। 

क्या वास्तव में ' कृपा ' इसी का नाम है ? 

जरा विचार कर लेते हैं।

     कृपा अर्थात् बाहर की प्राप्ति नहीं अपितु भीतर की तृप्ति है। 


किसी को भौतिक सुखों की प्राप्ति हो जाना यह कृपा हो न हो मगर किसी को वह सब कुछ प्राप्त न होने पर भी भीतर एक तृप्ति बनी रहना यह अवश्य गोविन्द की कृपा है। 


रिक्तता उसी के अन्दर होगी जिसके अन्दर श्री कृष्ण के लिए कोई स्थान ही नहीं। 

 🦜         जिस ह्रदय में श्रीकृष्ण हों वहाँ भला रिक्तता कैसी ? 

वहाँ तो आनंद ही आंनद होता है। 

आपके पुरुषार्थ से और प्रारब्ध से आपको प्राप्ति तो संभव है मगर तृप्ति नहीं । 

वह तो केवल और केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। 

अतः भीतर की तृप्ति । 

भीतर की धन्यता और भीतर का अहोभाव ।

यही उस ठाकुर की सबसे बड़ी ' कृपा ' है।

 भक्त का मान


एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया। 

पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था।

वंशीधर ने नरसी जी से कहा :- 

'कल पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना है। 

कहीं अड्डेबाजी मत करना बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। 

काम - काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।'

नरसी जी ने कहा :- 

'पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।'

इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले :- 

'जिन्दगी भर यही सब करते रहना। 

जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। 

तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।'

नरसी जी ने कहा :-

``नाराज क्यों होते हो भैया ? 

मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।'

दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है, नागर - मंडली को मालूम हो गया।

नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नागर मंडली ने बदला लेने की सोची।

पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया।

प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। 

वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ? 

आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे ज्यातिच्युत कर दिया जाएगा।

अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी।

अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। 

नरसी जी घी उधार में चाहते थे पर किसी ने उनको घी नहीं दिया।

अंत में एक दुकानदार राजी हो गया पर ये शर्त रख दी कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा।

बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया।

अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है।

मित्रों ये घटना सभी के सामने हुयी है। 

और आज भी कई जगह ऎसी घटनाएं प्रभु करते हैं ऐसा कुछ अनुभव है। 

ऐसे - ऐसे लोग हुए हैं इस पावन धरा पर।

तो आईये कथा मे आगे चलते हैं...!

अब नरसी मेहता जी गाते गए भजन उधर नरसी के रूप में भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे।

यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्राद्ध "कृष्ण भगवान" नरसी जी के भेस में करवा रहे हैं।

जय हो, जय हो वाह प्रभू क्या माया है.....! 

अद्भुत, भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं भेस धर लिए।

वो कहते हैं ना की :-

"अपना मान भले टल जाए,
भक्त का मान न टलते देखा।
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर,
प्रभु को नियम बदलते देखा,
अपना मान भले टल जाये,
भक्त मान नहीं टलते देखा।"

तो महाराज सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया। 

दक्षिणा में एक एक अशर्फी भी प्राप्त की।

सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में सुस्वादु भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में...! 

वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।

दुश्त्मति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू - टोना जानता है।

इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा कि मानिक्बाई जी भोजन कर रही है।

नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई और पत्नी भोजन करने बैठ गयी।

नरसी जी बोले :- 

'वो आने में ज़रा देर हो गयी। 

क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन क्यों कर रही हो ?'

मानिक बाई जी ने कहा :- 

'तुम्हारा दिमाग तो ठीक है ? 

स्वयं खड़े होकर तुमने श्राद्ध का सारा कार्य किया। 

ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी। 

सब विदा हो गए, तुम भी खाना खा लो।'

ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए कि उनके इष्ट स्वयं उनका मान रख गए।

गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा ली।

💟मन भर कर गाते रहे :-

कृष्णजी, कृष्णजी, कृष्णजी
कहें तो उठो रे प्राणी।
कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो
तो मिथ्या रे वाणी।

जय श्री कृष्ण !
जय श्री राधे कृष्ण !!
🌹🙏🌹🙏🌹

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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रामेश्वर कुण्ड

 || रामेश्वर कुण्ड || रामेश्वर कुण्ड एक समय श्री कृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर श्रीराधिका के साथ ...