https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: 10/08/20

श्रीकृष्ण का परम स्वरूप और उनका प्रेम

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्रीमद्भागवत प्रवचन ।।

🌿 _*।। श्रीराधाकृष्णाभ्यां नम:।।*_ 🌿

\_____*श्रीराधा माधव चिन्तन*_____✓

*____भाग = ~ = ~ [ 102 ]____*

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_*‘श्रीकृष्ण का परम स्वरूप और उनका प्रेम*_   

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श्रीकृष्ण - प्रेमी भक्त वैष्णव सचमुच ऐसा ही मानते हैं....!





कि तत्त्वरूप निराकार ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की अगंकान्ति हैं...! 

परमात्मा उनके अंश हैं और षडैश्वर्य ( समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य ) के पूर्ण आधार स्वरूप भगवान श्रीनारायण श्रीकृष्ण के विलास - विग्रह हैं। 

श्रीकृष्ण और उनकी स्वरूप भूता श्रीराधा सर्वथा अभिन्न्न हैं। 

सर्वथा द्वैतरहित एक ही परम भगवत्तत्त्व लीला-रसास्वादन के लिये दो रूपों में प्रकट है। 

इन्हीं दो रूपों को ‘विषय’ और ‘आश्रय’ कहा गया है। 

श्रीकृष्ण ‘विषय’ हैं और राधाजी ‘आश्रय’। 

विषय ‘भोक्ता’ होता है। और आश्रय ‘भोग्य’। 

लीला के लिये कभी - कभी श्रीकृष्ण ‘आश्रय’ बन जाते है और श्रीराधाजी ‘विषय’ सजती हैं। 

श्रीराधाजी भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूपभूत आनन्द का ही मूर्तिमान रूप हैं। 

परंतु लीला के लिये श्रीराधा रानी प्रेम के परिपूर्ण आदर्श हैं और भगवान श्रीकृष्ण आनन्द के। 

इसी से लीलामयी श्रीराधाजी भगवान श्रीकृष्ण की सब से श्रेष्ठ ‘आराधिका’ हैं, उन्हें निज सुख का बोध नहीं है। 

वे जानती हैं श्रीकृष्ण के सुख को और श्रीकृष्ण को सुखी देखकर ही नित्य परम सुख का अनुभव करती हैं। 

उनकी सगिंनी और सखी समस्त गोपियाँ भी इसी भाव की मूर्तियाँ हैं। 

वे श्रीराधा कृष्ण के सुख से ही सुखी होती हैं। 

उनमें निजेन्द्रिय सुख की वासना कल्पना के लिये भी नहीं है। 

इसी से वे प्रेममय भक्ति मार्ग और प्रेमी भक्तों की परम आदर्श पथप्रदर्शिका हैं।

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*◆चोर -जार - शिखामणि◆*    

*व्रजे वसन्तं नवनीतचौरं गोपागंनानां च दुकूलचौरम्।*
*अनेकजन्मार्जितपापचौरं चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि।।*

*अहिमकरकरनिकरमृदृमुदितलक्ष्मी- सरसतरसरसिरुहसदृशदृशि देवे।*
*व्रजयुवतिरतिकलहविजयिनिजलीला- मदमुदितवदनशशिमधुरिमणि लीये।।*

एक सज्जन पूछते हैं - 

‘ गोपाल सहस्रनाम ’ में भगवान का एक नाम ‘ चोर - जार - शिखामणि ’ आया है। 

चोरी और जारी दोनों ही अत्यन्त नीच वृत्तियाँ हैं। 

भगवान के भक्त की तो बात ही दूर....! 

जब साधरण विवेकवान् पुरुष भी ‘ चोरी - जारी ’ से बचे रहते हैं, तब फिर भगवान में चोरी-जारी का होना कैसे सम्भव है ? 

और यदि उनमें चोरी - जारी नहीं है....! 

तो फिर उनको चोर - जारों का मुकुटमणि कहना क्या उन्हें गालियाँ देना नहीं है ? 

और यदि वस्तुतः 

भगवान में चोरी - जारी का होना माना जा सकता है....! 

तो फिर वे भगवान कैसे हुए और उनके आदर्श से दुनिया के लोग डूबे बिना कैसे रहेंगे ? 

मेरी समझ से बुरी नीयत किसी ने उनका यह नाम रख दिया है। 

इस सम्बन्ध में मैं आपका मत जानना चाहता हूँ।

इस के उत्तर में अल्पमति के अनुसार कुछ लिखने का प्रयन्त किया जाता है। 

प्रश्रन – 

कर्ता महोदय को इससे कुछ संतोष हुआ तो अच्छी बात है। 

नहीं तो...! 

इसी बहाने कुछ समय भगवतच्चर्चा में बीतेगा और इस सुअवसर की प्राप्ति के कारण प्रश्रन कर्ता महोदय हैं...! 

इसी लिये मैं तो उनका कृतज्ञ हूँ ही।

यह सर्वथा सत्य है कि ‘ चोरी ’ और ‘ जारी ’ बहुत ही नीच वृत्तियाँ हैं...! 

और ऐसी वृत्तियाँ जिन लोगों में हैं....! 

वे कदापि विवेकवान् और सदाचारी नहीं हैं। 

भक्त में ऐसे दुगुर्ण रह ही नहीं सकते; 

और भगवान में तो इनकी कल्पना करना भी मूर्खता की सीमा है। 

इतना होने पर भी उनके ‘ गोपाल सहस्रनाम ’ में आया हुआ....! 

श्रीभगवान का यह ‘ चोर - जार - शिखामणि ’ नाम न तो भगवान को गाली देने के लिये है...! 

और न किसी ने बुरी नीयत से ही इस नाम को गढ़ लिया है। 

दृष्टि विशेष के अनुसार भगवान में इस नाम की पूर्ण सार्थकता है....! 

और इसका रहस्य समझ लेने पर फिर कोई शकां भी नहीं रहती।

सबसे पहले भगवान का स्वरूप समझना चाहिये। 

स्वरूपभूत दिव्यगुण विशिष्ट भगवान में लौकिक गुणों का- 

जो प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुण विकार हैं- 

सर्वथा अभाव है...! 

इस लिये वे निगुर्ण हैं। 

भक्तों के परम आदर्श, लोक संग्रह के आचार्य और विश्व के भरण - पोषण - कर्ता होने से वे समस्त सात्त्विक गुणों को अपने में धारण करते हैं....! 

इस लिये वे अशेष सद्गुणा लंकृत हैं....! 

प्रकृति के द्वारा अखिल जगद्रुप में उन्हीं का प्रकाश होने के कारण वे समस्त सदसद्गुण सम्पन्न हैं। 

भगवान ही समस्त विश्व के निमित्त और उपादान कारण हैं। 

इस दृष्टि से संसार के सभी भाव उन्हीं से उत्पन्न होते हैं, सभी भावों का सम्बन्ध उनसे जुड़ा हुआ है। 

इतना होने पर भी उनके स्व - स्वरूप में कोई दोष नहीं आता।

उनके द्वारा सब कुछ होने पर भी वे किसी के बन्धन में नहीं हैं।

किसी दृष्टि विशेष के हेतु से उन्हें यदि संसार से सर्वथा पृथक् माना जाय तो फिर यह तो मानना ही पड़ेगा कि संसार में जो कुछ है, सभी भगवान का है; क्योंकि वे 

‘ सर्वलोकमहेश्वर ’

हैं और संसार में जितने भी पुरुष हैं....! 

सबके देह में ‘ देही ’ या आत्मा रूप से वे ही स्वयं विराजित हैं। 

इस दृष्टि से समस्त संसार के सम्पूर्ण पदार्थों के स्वत्व पर अधिकार करने से और समस्त स्त्रियों के पति होने से भी उन पर न परधनापहरण का दोष आ सकता है और न औपपत्यका ही।

परंतु यहाँ सर्वलोकमहेश्वर और विश्वात्मा में स्थित भगवान के सम्बन्ध में प्रश्न नहीं है...! 

यहाँ तो प्रश्र कर्ता महोदय विश्वात्मा और सर्वलोकमहेश्वर से भिन्न समझकर उन साकर - मगंलविग्रह भगवान के सम्बन्ध में पूछते हैं...! 

जो धर्मसंस्थापनार्थ ही धरातल पर अवतीर्ण होते हैं। 

उनका कहना है....! 

कि ‘धर्मसंस्थापनार्थ अवतार ग्रहण करने वाले भगवान क्या ऐसा कोई भी कार्य कर सकते हैं...! 

जो स्वरूपतः धर्मविरुद्ध हो और जिससे शुभ आदर्श नष्ट होने के साथ ही धर्मस्थापना के स्थान पर धर्म की हानि होती हो ?’ 

इसके उत्तर में....! 

यों तो यह कहना भी सर्वथा युक्तियुक्त और सत्य ही है....! 

कि भगवान पर माया - जगत् के धर्म का कोई बन्धन लागू नहीं पड़ता....! 

वे सर्वतन्त्रस्वतन्त्र हैं। 

वे जो कुछ करते हैं.....! 

वही उनका धर्म है और वे जो कुछ कहते हैं...! 

वही शास्त्र है।

अवश्य ही उनकी क्रिया का अनुकरण करना सबके लिये न तो उचित है और न सम्भव ही; 

क्योंकि भगवान की क्रिया भगवान के स्वधर्मानुकूल होती है। 

जीव में भगवत्ता न होने से वह भगवान के धर्म का आचरण नहीं कर सकता। 

भगवान श्रीकृष्ण आग पी गये, वे वरुण लोक से नन्द को ले आये....! 

यमराज के यहाँ से गुरु पुत्र को लौटा लाये....! 

उन्होंने दिन में ही सूर्य को छिपा दिया....! 

बाल लीला में कनिष्ठिका अँगुली पर पहाड़ उठा लिया और अपने चरित्रों से ब्रह्मा को भी मोहित कर दिया। 

जीव इनमें से कोई - सा भी कार्य नहीं कर सकता। 

इसी लिए भगवान की क्रिया का अनुसरण भी मनुष्य नहीं कर सकता। 

हाँ...! 

उनकी वाणी का– 

उनके उपदेशों का पालन अवश्य करना चाहिये और इसी में जीवों का कल्याण है। 

ऐसा होने पर भी साकर - मगंलविग्रह भगवान की लीला में वस्तुतः ऐसी कोई क्रिया नहीं होती । 

जो शास्त्र विरुद्ध हो या जिसे हम चोरी - जारी या किसी पाप की श्रेणी में रख सकें।

मोहवश मूढ़लोग उनके स्वरूप को न समझने के कारण ही उनकी क्रियाओं पर दोषा रोपण कर बैठते हैं।

 तब फिर इस ‘ चोरी - जारी’ का क्या अर्थ है? 

अब इसी पर संक्षेप में विचार करना है। 

यों तो वेदों में भी भगवान को...! 

‘ स्तेनानां पतये नमः ' 

चोरों का सरदार कहकर प्रणाम किया गया है भगवान श्रीराम को भी प्राचीन सदग्रन्थों के आधार पर श्रीराम स्वरूप के अनुभवी गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी ने....! 

‘ लोचन सुखद बिस्व चितचोरा ’ 

कहा है। 


परंतु प्रधान रूप से यह...!

 ‘ चोर - जार - शिखामणि ’ 

नाम भगवान श्रीकृष्ण के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। 

श्री’मद्भागवत के अनुसार यह स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं-

 ‘ कृष्णस्तु भगवान स्वयम्। ’

गीता में तो भगवान श्रीकृष्ण अपने ही श्रीमुख से बारम्बार अपने को साक्षात् सर्वाधिपति सच्चिदानन्दघन परात्पर तत्त्व घोषित किया है। 

और इन भगवान का ‘ चोर - जार - शिखामणि ’ नाम रखा गया है ।

उन व्रज - गोपियों के द्वारा, जिनके चरणों की पावन धूलि पाने के लिये देवश्रेष्ठ ब्रह्मा और ज्ञानि श्रेष्ठ उद्धव तिर्यगादि योनि और लता - गुल्मादि जड शरीर धारण करने में भी अपना सौभाग्य समझते हैं । 

तथा स्वयं भगवान जिनका अपने को ऋणी घोषित करते हैं।


_*शेष ( दिव्य सत्संग ) अगले भाग में........*_
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*जय जय श्री राधे राधे गोविंद गोविन्द*

*जय जय श्री वृंदावन धाम*

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*ग्रंथ*
*__________श्रीतुलशीकृत रामायण*

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पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-:1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

रामेश्वर कुण्ड

 || रामेश्वर कुण्ड || रामेश्वर कुण्ड एक समय श्री कृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर श्रीराधिका के साथ ...