https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: 2020

*चमत्कारिक सुदर्शन चक्र*

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

 * चमत्कारिक सुदर्शन चक्र *

।। श्री विष्णुपुराण प्रवचन ।।

🙏🙏!!श्री हरि:!! 🙏🙏

👉 *चमत्कारिक सुदर्शन चक्र*

*जगन्नाथ पुरी में किसी भी स्थान से आप भगवान के मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा।*

*इसे नीलचक्र भी कहते हैं।*

 *यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है।*


*सामान्य दिनों के समय हवा की दिशा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत।* 

*लेकिन जगन्नाथ पुरी में इसका उल्टा होता है।*

*अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है।* 

 *लेकिन यहां हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है।*

       *।।ॐ नमोः नारायणाय।।* 

|| समय बहुत बलवान होता है ||



शिखण्डी से भीष्म को मात दिला सकता है !
   कर्ण के रथ को फंसा सकता है !

द्रौपदी का चीरहरण करा सकता है !
इसलिये किसी से डरना है तो वह है समय !

महाभारत में एक प्रसंग आता है जब धर्मराज युधिष्ठिर ने विराट के दरबार में पहुँचकर कहा-

हे राजन ! 

मैं व्याघ्रपाद गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ तथा मेरा नाम कंक है !

मैं द्यूत विद्या में निपुण आपके पास आपकी सेवा करने की कामना लेकर उपस्थित हुआ हूँ। 

द्यूत जुआ वह खेल जिसमें धर्मराज अपना सर्वस्व हार गए थे !

अब कंक बन कर वही खेल वह राजा विराट को सिखाने लगे।

जिस बाहुबली के लिये रसोइये भोजन परोसते थे !

वह भीम बल्लभ का भेष धारण कर रसोइया बन गये ; 

नकुल और सहदेव पशुओं की देखरेख करने लगे ; 

दासियों से घिरी रहने वाली महारानी द्रौपदी स्वयं एक दासी सैरन्ध्री बन गयी और धनुर्धर उस युग का सबसे आकर्षक युवक, वह महाबली योद्धा द्रोण का सबसे प्रिय शिष्य ; 

जिसके धनुष की प्रत्यंचा पर बाण चढ़ते ही युद्ध का निर्णय हो जाता था !

वह अर्जुन पौरुष का प्रतीक महानायक अर्जुन एक नपुंसक बन गया।

उस युग में पौरुष को परिभाषित करने वाला अपना पौरुष त्याग कर होठों पर लाली और आंखों में काजल लगा कर बृह्नलला बन गया।

परिवार पर एक विपदा आयी तो धर्मराज अपने परिवार को बचाने हेतु कंक बन गया। 

पौरुष का प्रतीक एक नपुंसक बन गया....! 

एक महाबली साधारण रसोईया बन गया नकुल और सहदेव पशुओं की देख रेख करते रहे ; 

और द्रौपदी एक दासी की तरह महारानी की सेवा करती रही।

पांडवों के लिये वह अज्ञातवास का काल उनके लिये अपने परिवार के प्रति अपने समर्पण की पराकाष्ठा थी।

वह जिस रूप में रहे जो अपमान सहा....!

जिस कठिन दौर से गुज़रे उसके पीछे उनका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था !

अपितु परिस्थितियों को देखते हुये....! 

परिस्थितियों के अनुरूप ढल जाने का काल था !

आज भी अज्ञातवास जी रहे ना जाने कितने महायोद्धा हैं !

कोई धन्ना सेठ की नौकरी करते उससे बेवजह गाली खा रहा है !

क्योंकि उसे अपनी बिटिया की स्कूल फीस भरनी है।

बेटी के ब्याह के लिये पैसे इकट्ठे करता बाप एक सेल्समैन बन कर दर दर धक्के खा कर सामान बेचता दिखाई देता है।

ऐसे असंख्य पुरुष निरंतर संघर्ष से हर दिन अपना सुख दुःख छोड़ कर अपने परिवार के अस्तिव की लड़ाई लड़ रहे हैं। 

रोज़मर्रा के जीवन में किसी संघर्षशील व्यक्ति से रूबरू हों तो उसका आदर कीजिये उसका सम्मान करें। 

फैक्ट्री के बाहर खड़ा गार्ड होटल में रोटी परोसता वेटर सेठ की गालियां खाता मुनीम वास्तव में कंक , बल्लभ और बृह्नला ही है।

क्योंकि कोई भी अपनी मर्ज़ी से संघर्ष या पीड़ा नही चुनता वे सब यहाँ कर्म करते हैं वे अज्ञात वास जी रहे हैं......!

परंतु वो अपमान के भागी नहीं बल्कि प्रशंसा के पात्र हैं !

यह उनकी हिम्मत,ताकत और उनका समर्पण है कि विपरीत परिस्थितियों में भी वह डटे हुये हैं।

वो कमजोर नहीं हैं उनके हालात कमज़ोर हैं उनका वक्त कमज़ोर है।

अज्ञातवास के बाद बृह्नला जब पुनः अर्जुन के रूप में आये तो कौरवों के नाश कर दिया। 

वक्त बदलते वक्त नहीं लगता इसलिये जिसका वक्त खराब चल रहा हो !

उसका उपहास और अनादर ना करें उसका सम्मान करें !

उसका साथ दें क्योंकि एक दिन संघर्ष शील कर्मठ ईमानदारी से प्रयास करने वालों का अज्ञातवास अवश्य समाप्त होगा।

समय का चक्र घूमेगा और इतिहास बृह्नला को भूलकर अर्जुन को याद रखेगा।

यही नियति है ; यही समय का चक्र है। 

यही महाभारत की भी सीख है!

 
*।।ॐ नमोः भगवते वासुदेवाय।।*
*बोलो जय जगन्नाथ जी*
🌺.        🍁.     🌺

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
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जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

अक्सर लोग भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति को ही दैवीय कृपा समझते हैं।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

 अक्सर लोग भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति को ही दैवीय कृपा समझते हैं। 


।। श्रीमद्भागवत प्रवचन ।।
               

    अक्सर लोग भौतिक सुख साधनों की प्राप्ति को ही दैवीय कृपा समझते हैं। 


किसी सुख - साधन सम्पन्न व्यक्ति के बारे में लोग यही कहते हैं कि भगवान की उसके ऊपर बड़ी कृपा है जो उसे इतना सब कुछ दिया है। 

क्या वास्तव में ' कृपा ' इसी का नाम है ? 

जरा विचार कर लेते हैं।

     कृपा अर्थात् बाहर की प्राप्ति नहीं अपितु भीतर की तृप्ति है। 


किसी को भौतिक सुखों की प्राप्ति हो जाना यह कृपा हो न हो मगर किसी को वह सब कुछ प्राप्त न होने पर भी भीतर एक तृप्ति बनी रहना यह अवश्य गोविन्द की कृपा है। 


रिक्तता उसी के अन्दर होगी जिसके अन्दर श्री कृष्ण के लिए कोई स्थान ही नहीं। 

 🦜         जिस ह्रदय में श्रीकृष्ण हों वहाँ भला रिक्तता कैसी ? 

वहाँ तो आनंद ही आंनद होता है। 

आपके पुरुषार्थ से और प्रारब्ध से आपको प्राप्ति तो संभव है मगर तृप्ति नहीं । 

वह तो केवल और केवल प्रभु कृपा से ही संभव है। 

अतः भीतर की तृप्ति । 

भीतर की धन्यता और भीतर का अहोभाव ।

यही उस ठाकुर की सबसे बड़ी ' कृपा ' है।

 भक्त का मान


एक बार नरसी जी का बड़ा भाई वंशीधर नरसी जी के घर आया। 

पिता जी का वार्षिक श्राद्ध करना था।

वंशीधर ने नरसी जी से कहा :- 

'कल पिताजी का वार्षिक श्राद्ध करना है। 

कहीं अड्डेबाजी मत करना बहु को लेकर मेरे यहाँ आ जाना। 

काम - काज में हाथ बटाओगे तो तुम्हारी भाभी को आराम मिलेगा।'

नरसी जी ने कहा :- 

'पूजा पाठ करके ही आ सकूँगा।'

इतना सुनना था कि वंशीधर उखड गए और बोले :- 

'जिन्दगी भर यही सब करते रहना। 

जिसकी गृहस्थी भिक्षा से चलती है, उसकी सहायता की मुझे जरूरत नहीं है। 

तुम पिताजी का श्राद्ध अपने घर पर अपने हिसाब से कर लेना।'

नरसी जी ने कहा :-

``नाराज क्यों होते हो भैया ? 

मेरे पास जो कुछ भी है, मैं उसी से श्राद्ध कर लूँगा।'

दोनों भाईयों के बीच श्राद्ध को लेकर झगडा हो गया है, नागर - मंडली को मालूम हो गया।

नरसी अलग से श्राद्ध करेगा, ये सुनकर नागर मंडली ने बदला लेने की सोची।

पुरोहित प्रसन्न राय ने सात सौ ब्राह्मणों को नरसी के यहाँ आयोजित श्राद्ध में आने के लिए आमंत्रित कर दिया।

प्रसन्न राय ये जानते थे कि नरसी का परिवार मांगकर भोजन करता है। 

वह क्या सात सौ ब्राह्मणों को भोजन कराएगा ? 

आमंत्रित ब्राह्मण नाराज होकर जायेंगे और तब उसे ज्यातिच्युत कर दिया जाएगा।

अब कहीं से इस षड्यंत्र का पता नरसी मेहता जी की पत्नी मानिकबाई जी को लग गया वह चिंतित हो उठी।

अब दुसरे दिन नरसी जी स्नान के बाद श्राद्ध के लिए घी लेने बाज़ार गए। 

नरसी जी घी उधार में चाहते थे पर किसी ने उनको घी नहीं दिया।

अंत में एक दुकानदार राजी हो गया पर ये शर्त रख दी कि नरसी को भजन सुनाना पड़ेगा।

बस फिर क्या था, मन पसंद काम और उसके बदले घी मिलेगा, ये तो आनंद हो गया।

अब हुआ ये कि नरसी जी भगवान का भजन सुनाने में इतने तल्लीन हो गए कि ध्यान ही नहीं रहा कि घर में श्राद्ध है।

मित्रों ये घटना सभी के सामने हुयी है। 

और आज भी कई जगह ऎसी घटनाएं प्रभु करते हैं ऐसा कुछ अनुभव है। 

ऐसे - ऐसे लोग हुए हैं इस पावन धरा पर।

तो आईये कथा मे आगे चलते हैं...!

अब नरसी मेहता जी गाते गए भजन उधर नरसी के रूप में भगवान कृष्ण श्राद्ध कराते रहे।

यानी की दुकानदार के यहाँ नरसी जी भजन गा रहे हैं और वहां श्राद्ध "कृष्ण भगवान" नरसी जी के भेस में करवा रहे हैं।

जय हो, जय हो वाह प्रभू क्या माया है.....! 

अद्भुत, भक्त के सम्मान की रक्षा को स्वयं भेस धर लिए।

वो कहते हैं ना की :-

"अपना मान भले टल जाए,
भक्त का मान न टलते देखा।
प्रबल प्रेम के पाले पड़ कर,
प्रभु को नियम बदलते देखा,
अपना मान भले टल जाये,
भक्त मान नहीं टलते देखा।"

तो महाराज सात सौ ब्राह्मणों ने छककर भोजन किया। 

दक्षिणा में एक एक अशर्फी भी प्राप्त की।

सात सौ ब्राह्मण आये तो थे नरसी जी का अपमान करने और कहाँ बदले में सुस्वादु भोजन और अशर्फी दक्षिणा के रूप में...! 

वाह प्रभु धन्य है आप और आपके भक्त।

दुश्त्मति ब्राह्मण सोचते रहे कि ये नरसी जरूर जादू - टोना जानता है।

इधर दिन ढले घी लेकर नरसी जी जब घर आये तो देखा कि मानिक्बाई जी भोजन कर रही है।

नरसी जी को इस बात का क्षोभ हुआ कि श्राद्ध क्रिया आरम्भ नहीं हुई और पत्नी भोजन करने बैठ गयी।

नरसी जी बोले :- 

'वो आने में ज़रा देर हो गयी। 

क्या करता, कोई उधार का घी भी नहीं दे रहा था, मगर तुम श्राद्ध के पहले ही भोजन क्यों कर रही हो ?'

मानिक बाई जी ने कहा :- 

'तुम्हारा दिमाग तो ठीक है ? 

स्वयं खड़े होकर तुमने श्राद्ध का सारा कार्य किया। 

ब्राह्मणों को भोजन करवाया, दक्षिणा दी। 

सब विदा हो गए, तुम भी खाना खा लो।'

ये बात सुनते ही नरसी जी समझ गए कि उनके इष्ट स्वयं उनका मान रख गए।

गरीब के मान को, भक्त की लाज को परम प्रेमी करूणामय भगवान् ने बचा ली।

💟मन भर कर गाते रहे :-

कृष्णजी, कृष्णजी, कृष्णजी
कहें तो उठो रे प्राणी।
कृष्णजी ना नाम बिना जे बोलो
तो मिथ्या रे वाणी।

जय श्री कृष्ण !
जय श्री राधे कृष्ण !!
🌹🙏🌹🙏🌹

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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घूँघट और पर्दा प्रथा का प्राचीन स्वरूप / * दस दिन की अवधि *

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। सुंदर कहानी ।।

घूँघट और पर्दा प्रथा का प्राचीन स्वरूप   / * दस दिन की अवधि *


|| घूँघट और पर्दा प्रथा का प्राचीन स्वरूप ||


पर्दा और घूँघट प्रथा का वर्तमान स्वरूप मुग़लों की देन है । 




किन्तु प्राचीन भारत में पर्दा प्रथा और घूँघट प्रथा रही है , वहाँ घूँघट का अर्थ मुख ढँकना नहीं अपितु सिर को साड़ी या चुनरी से ढँकना था । 

ऐसा भी नहीं था कि सिर ढँकना स्त्रियों के लिये ही अनिवार्य था ,पुरुषों के लिये भी सिर ढँकना अनिवार्य था । 

स्त्रियाँ साड़ी - चुनरी से सिर को ढँककर रखती थीं ,तो पुरुष मुकुट - पगड़ी आदि से सिर को ढँकते थे । 

स्त्रियों का पहनावा कैसा हो ? 

इस विषय में स्वयं वेद प्रमाण है...!
ऋग्वेद 10/71/४4 में कहा है- 

स्त्री को लज्जापूर्ण रहना चाहिये, कि दूसरा पुरुष मनुष्य उसका रूप देखता हुआ भी न देख सके । 

वाणी सुनता हुआ भी पूरी तरह न सुन सके ।

एक अन्य मन्त्र में –

अधः पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर ।
मा ते कशप्लकौ दृशन्त्स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ ।।
            (ऋग्वेद 8/43/19)

अर्थात् 

‘ साध्वी नारी ! 

तुम नीचे देखा करो ( तुम्हारी दृष्टि विनय से झुकी रहे  ) ऊपर न देखो । '

पैरों को परस्पर मिलाये रक्खो ( टाँगों को फैलाओ मत  ) वस्त्र इस प्रकार पहनो, जिससे तुम्हारे ओष्ठ तथा कटि के नीचे के भागपर किसी की दृष्टि न पड़े । 

इससे स्पष्ट है कि स्त्री सलज्ज और मुख पर घूँघट डाले रहे । 

पर्दा प्रथा के इतिहास पर भी अवलोकन करें,तो सर्वप्रथम रामायण के प्रसङ्ग देखिये –

माता जानकी जी जब वनवास जा रही थीं...!

    तब उन्हें देखने वाली प्रजा कहती है-

या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि ।
तामद्य सीतां पश्यति राजमार्गगता जना: ।।  
      (वाल्मीकिरामायण 2/33/8)

अर्थात् -

ओह ! 

पहले जिसे आकाश में विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे,उसी सीता को इस समय सड़कों पर खड़े हुए लोग देख रहे हैं ।

मन्दोदरी रावण के वध पर....!

    विलाप करते हुए कहती है –

दृष्ट्वा न खल्वभिक्रुद्धो मामिहान वगुष्ठिताम् ।
निर्गतां नगरद्वारात् पद्भ्यामेवागतां प्रभो ।।
    (वाल्मीकिरामायण 6/11१/61)

अर्थात् -
‘ प्रभो ! '

आज मेरे मुँह पर घूँघट नहीं है ,मैं नगर द्वार से पैदल ही चलकर यहाँ आयी हूँ । 

' इस दशा में मुझे देखकर आप क्रोध क्यों नहीं करते हैं ? ’

दूसरा प्रसङ्ग महाभारत से देखिये -

कुरु सभा में द्यूतक्रीड़ाके समय द्रौपदी कहती हैं.....!

यां न वायुर्न चादित्यो दृष्टवन्तौ पुरा गृहे ।
साहमद्य सभामध्ये दृश्यास्मि जनसंसदि ।। 
       (महाभारत सभापर्व 69/5)

अर्थात् -

पहले राजभवन में रहते हुए जिसे वायु तथा सूर्य भी नहीं देख पाते थे,वही आज इस सभा के भीतर महान् जनसमुदाय में आकर सबके नेत्रों की लक्ष्य बन गयी हूँ ।

रामायण - महाभारत के प्रसङ्गों से ऐसा प्रतीत होता है, पर्दा प्रथा सामान्य स्त्रियों के लिये न होकर राजवंश की राजकुमारियों-रानियों के लिये ही थी। 

राजवंश की ये रानी- 

राजकुमारियां बड़े सुखों से रहती थीं,जैसे आधुनिक युग में ऐसी में रहने वाली । 

वे विशिष्ट अवसरों पर ही बाहर निकलती थीं ,वे अवसर थे –

व्यासनेषु न कृच्छ्रेषु न युद्धेषु स्वयंवरे ।
न कृतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिया: ।।
        (वाल्मीकिरामायण 6/114/28)

अर्थात्- 

विपत्तिकाल में,शारीरिक या मानसिक पीड़ा के अवसर पर,युद्धमें,यज्ञ में अथवा विवाह में स्त्री का दीखना दोष की बात नहीं है!

अर्थात् -

इन अवसरों पर राजकुल. की स्त्रियाँ पुरुषों के मध्य जाती थीं,उस समय उन्हें कोई दोष नहीं देता था ।

पर्दा प्रथा या घूँघट प्रथा पर भगवान् श्रीराम का यह वचन बहुत ही महत्त्वपूर्ण , प्राचीन और आधुनिक परिवेश का समन्वय है –

न गृहाणि न वस्त्राणि न प्रकारस्त्रिरस्क्रिया ।
नेदृशा राजसत्कारा वृत्तयावरणं स्त्रिया: ।। 
    (वाल्मीकिराम. 6/114/27)

अर्थात् - 

घर , वस्त्र और चहार दीवारी आदि वस्तुएँ स्त्री के लिये परदा नहीं हुआ करतीं । 

इस तरह लोगों को दूर हटाने ( किसी स्त्रीके समाज में आने पर पुरुषों को वहाँ से हटा देना,जिससे वे पुरुष उस स्त्री को न देख सकें ) से जो निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार है,ये भी स्त्रीके लिये आवरण या पर्दे का काम नहीं देते हैं । 

पति से प्राप्त होने वाले सत्कार तथा नारी के अपने सदाचार — 

ये ही उसके लिये आवरण हैं ।

         || जय सियाराम जय हनुमान ||

*दस दिन की अवधि*

एक राजा था ।

उसने 10 जंगली कुत्ते पाल रखे थे ।

जिनका प्रयोग वह लोगों को उनके द्वारा की गयी गलतियों पर मृत्यु दंड देने के लिए करता था ।

एक बार कुछ ऐसा हुआ कि राजा के एक पुराने मंत्री से कोई गलती हो गयी। 

अतः क्रोधित होकर राजा ने उसे शिकारी कुत्तों के सम्मुख फिकवाने का आदेश दे डाला।

सजा दिए जाने से पूर्व  राजा ने मंत्री से उसकी आखिरी इच्छा पूछी।

“राजन ! 

मैंने आज्ञाकारी सेवक के रूप में आपकी 10 सालों से सेवा की है…

मैं सजा पाने से पहले आपसे 10 दिनों की अवधि चाहता हूँ ।” 

मंत्री ने राजा से निवेदन किया ।

राजा ने उसकी बात मान ली ।

दस दिन बाद राजा के सैनिक मंत्री को पकड़ कर लाते हैं और राजा का निर्देश पाते ही उसे जंगली कुत्तों के सामने फेंक देते हैं। 

परंतु यह क्या कुत्ते मंत्री पर टूट पड़ने की बाजए अपनी पूँछ हिला-हिला कर मंत्री के ऊपर कूदने लगते हैं और प्यार से उसके पैर चाटने लगते हैं।

राजा आश्चर्य से यह सब देख रहा था।

उसने मन ही मन सोचा कि आखिर इन जंगली कुत्तों को क्या हो गया है ? 

वे इस तरह क्यों व्यवहार कर रहे हैं ?

आखिरकार राजा से रहा नहीं गया उसने मंत्री से पुछा ।

” ये क्या हो रहा है ।

ये कुत्ते तुम्हे काटने की बजाये तुम्हारे साथ खेल क्यों रहे हैं?”

” राजन ! 

मैंने आपसे जो १० दिनों की अवधि ली थी ।


उसका एक-एक क्षण मैंने इन गूंगे जानवरों की सेवा करने में लगा दिया। 

मैं रोज इन कुत्तों को नहलाता।

खाना खिलाता व हर तरह से उनका ध्यान रखता। 

ये कुत्ते जंगली होकर भी मेरे दस दिन की सेवा नहीं भुला पा रहे हैं।

परंतु खेद है ।

कि आप प्रजा के पालक हो कर भी मेरी 10 वर्षों की स्वामीभक्ति भूल गए और मेरी एक छोटी सी त्रुटि पर इतनी बड़ी सजा सुन दी.! ”

राजा को अपनी भूल का ज्ञान हो चुका था ।

उसने तत्काल मंत्री को मुक्त करने की आज्ञा दी और आगे से ऐसी गलती ना करने की सौगंध ली।

मित्रों , 

कई बार इस राजा की तरह हम भी किसी की बरसों की अच्छाई को उसके एक पल की बुराई के आगे भुला देते हैं। 

यह कहानी हमें क्षमाशील होना सीखाती है।

ये हमें शिक्षा देती है कि हम किसी की हज़ार अच्छाइयों को उसकी एक बुराई के सामने छोटा ना होने दें।
हर हर महादेव हर
  
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

😏 *घमंड से पतन की और* 😌

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
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।। सुंदर कहानी ।।

😏 *घमंड से पतन की और* 😌


*कितना घमंड है आज के इंसान को।* 

*क्या समझता है खुद को ?* 

*आखिर किस बात का घमंड है इंसान को.?* 



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          *सुंदरता पर घमंड*

*एक मामूली दुर्घटना में दो मिनट में ही इंसान की सुंदरता गायब हो जाती है।* 

*वो रोगी बन जाता है।* 

*चमड़ी देखने लायक नहीं होती।*

           *बदन पर घमंड*

*जब इंसान को लकवा हो जाता है।* 

*तब वो खुद उठ नहीं सकता।* 

*हिल नहीं सकता।* 

*बार बार उसे सहारे की जरूरत पड़ती है।* 

*तब कहाँ जाता है उसका ये बदन।*

          *पैसे का घमंड*

*दो मिनट में इंसान का व्यापार ठप्प हो जाता है।* 

*पाई पाई का मोहताज बन जाता है।*



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           *औलाद का घमंड*

*बेटा हो या बेटी कब कोई ऐसा कदम उठा ले कि सारा अहंकार धरा का धरा रह जाए।*-

*कब घर छोड़कर चला  जाए।*

            *सत्ता का घमंड*

*सत्ता कभी भी पलट सकती है।* 

*आप किसी भी समय हीरो से जीरो हो सकते हो।* 

*आपके साथ चलने वाले।*

 *आपकी हाँ में हाँ मिलाने वाले दो ही पल में पलटी खायेगें।* 

*फिर सत्ता नहीं तो क्या करोगे।* 

*फिर भी इंसान को इतना घमण्ड क्यों?*

*इंसान क्या लेकर आया था क्या लेकर जाएगा।* 

*कुछ भी नहीं खाली हाथ ही जाएगा।*
            *कोई साथ नहीं जाएगा*

*एक सूई तक भी साथ नहीं जाएगी।* 

*बस जाता है नाम।* 

*आपका नाम ।* 

*आपका काम।* 

*आपके गुण।* 

*आपका प्यार।* 

*आपका अच्छा व्यवहार।*

 *और आपके अच्छे प्यारे बोल।*

 *छोड दें - दूसरों को नीचा दिखाना।*

 *छोड दें - दूसरों की सफलता से जलना।*

 *छोड दें - दूसरों के धन से जलना।*

 *छोड दें - दूसरों की चुगली करना।*

 *छोड दें - दूसरों की सफलता पर इर्ष्या करना।*

*ये सब मिथ्या है!!*
                                                                   
*◆●स्वयं विचार करें​●◆*

नमस्ते  देवतानाथ नमस्ते गरुणध्वज
 शंखचक्रगदापाणे वासुदेव नमोऽस्तु ते।

नमस्ते निर्गुणानन्त अप्रतर्क्याय वेधसे
ज्ञानाज्ञान निरालम्ब सर्वालम्ब नमोऽस्तु ते।।

हे देवताओं के स्वामी! 

आपको नमस्कार है। 

गरुणध्वज! आपको प्रणाम है। 

शंख - चक्र - गदाधारी वासुदेव! आपको नमस्कार है। 

निर्गुण, अनन्त एवं अतर्कनीय विधाता! आपको नमस्कार है।

ज्ञानाज्ञानस्वरूप, स्वयं निराश्रय किन्तु सबके आश्रय! आपको नमस्कार है।'
      
  || विष्णु भगवान की जय हो ||


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शीशा और पत्थर संग संग रहे तो बात नही घबराने की.....!!

शर्त इतनी है कि बस दोनों ज़िद ना करे टकराने की.....!!

रिश्ता होने से रिश्ता नहीं बनता, रिश्ता निभाने से रिश्ता बनता है।

"दिमाग "से बनाये हुए "रिश्ते " बाजार तक चलते है,,,! 

और "दिल " से बनाये "रिश्ते " आखरी सांस तक चलते है,!!

जय श्री कृष्ण

एकदन्तं महाकायं तप्तकाञ्चनसन्निभम्
 लम्बोदरं  विशालाक्षं वन्देऽहं गणनायकम्।

मुञ्जकृष्णाजिनधरं   नागयज्ञोपवीतिनम् बालेन्दुकलिकामौलिं वन्देऽहं गणनायकम्।।

मैं विशालकाय, तपाये हुए  स्वर्ण- 
सदृश प्रकाशवाले, लम्बोदर, बड़ी - बड़ी आंखों वाले 
श्री एकदन्त गणनायक की वन्दना करता हूं।
जिन्होंने मौंजीमेखला, कृष्ण - मृगचर्म तथा नाग - यज्ञोपवीत धारण कर रखें हैं, 
जिनके मौलिदेश में बालचन्द्र सुशोभित हो रहा है, मैं उन गणनायक की वन्दना करता हूं।'

    || जय श्री गणेश देवा ||

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

महत्वपूर्ण एवं अत्यंत प्रभावशाली विचार

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्रीमददेवीभागवत प्रवचन ।।

एक महत्वपूर्ण एवं अत्यंत प्रभावशाली विचार -


अगर आप कोई भी मन्त्र जाप कर रहे हो या कोई भी आध्यात्मिक साधना कर रहे हो तो अपने समीप थोड़ा पीने वाला जल अवश्य रखे ।

और मन्त्र जाप होने के बाद उस जल का सेवन करे।  

जो मन्त्र आपने पढ़े है या जो साधना आपने की है ।

उनके पॉजिटिव एनर्जी को जल सोख लेता है।  

और उस जल को ग्रहण करने से आप उस शक्ति को अपने अंदर समाहित कर लेते हो।
  
हम सबने सुना होगा की ऋषि मुनि जब भी तपस्या या साधना करते थे तो उनके पास जल का कमंडल हमेशा रहता था । 

और वो उसी जल को किसी व्यक्ति को वरदान देने या शापित करने हेतु उपयोग करते थे।  

उनकी सारी तपोशक्ति उस जल में संरक्षित थी।  

और वो उसी जल को ग्रहण भी करते थे।  

ये बात विज्ञानं में भी साबित है की जल में इलेक्ट्रोमैग्नेटिक एनर्जी है ।

जो अपने औरा में होने वाले विब्रेशन्स को आकर्षित करती है।  

अगर सामान्य भाषा में बोले तो जल आपकी बात सुनता है ।

अगर आप अच्छा बोलोगे तो अच्छा सुनेगा बुरा बोलोगे तो बुरा सुनेगा।  

इसलिए अगर आप कोई मन्त्र करके उसके जल को किसी अन्य व्यक्ति को ग्रहण करने को दे ।

तो उसका प्रभाव उस पर भी पड़ता है।  

इसी प्रकार अभिमंत्रित जल काम करता है।  

आपने ये भी देखा होगा की ज्यादातर मंदिर और कुंड नदियों के तट पर बनाये गए है। 


हमारे धर्म में इस बात का ज्ञान बहुत पहले से ही था।  

जब मंदिरो में मंत्रो । 

श्लोको का उच्चारण होता है ।

पूजा होती है तो उसकी ऊर्जा और शक्ति उन नदियों के जल में समाहित होती है और उसी जल को हम सब ग्रहण करके धन्य होते है।  

अपनी साधना को और प्रभावशाली बनाइये और दूसरो को भी लाभ दिलवाइये।  

|| संत और बसंत में, एक ही समानता है ||

जब बसंत आता है ,तो प्रकृति सुधर जाती है
 और संत आते है ,तो संस्कृति सुधर जाती है।
 
आयुः श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च।
   हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः।।

( 1- ) भावार्थ :- 

बडों का अपमान,देवताओं का अनादर, तथा गुरूजनों का तिरस्कार करने वाले मनुष्य के आयु संपत्ति, यश ,धर्म ,लोगों की शुभ कामना, इह लोक, परलोक यानि कि जो भी कल्याण कारी उत्तम मार्ग या प्राप्य चीजें हैं....!

वो सारी की सारी नष्ट हो जातीं हैं और वह अधो गति को चला जाता है।

गुरू और भगवान शंकर

( 2- ) हर गुरु नींदक  दादुर होई,
         जन्म सहस्र पाव तन सोई। 

भावार्थ :- 

कहते श्री भगवान शंकरजी और श्री गुरु महाराज की निंदा करने वाला  मनुष्य  (अगले जन्म में ) मेंढक होता है। 

और वह हजार जन्म तक वही शरीर पाता है।

( 3- ) पूर्णे तटाके तृषितः सदैव
           भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः ।

कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः
  गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी ॥

भावार्थ:-

जो इन्सान गुरु मिलने के बावजुद प्रमादी रहे....! 

वह मूर्ख पानी से भरे हुए सरोवर के पास होते हुए भी प्यासा....! 

घर में अनाज होते हुए भी भूखा,और कल्पवृक्ष के पास रहते हुए भी दरिद्र है ।

इस लिए मनुष्य को यत्न पूर्वक बडों का सम्मान माता पिता की सेवा और गुरूदेव का आदर और  देवताओं की आराधना करते रहना चाहिए।

   >जय माताजी!!!

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
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-: 25 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
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Skype : astrologer85
Email: prabhurajyguru@gmail.com
आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

।। श्रीमद्भागवत गीता प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्रीमद्भागवत गीता प्रवचन ।।


💐💐ईश्वर की सच्ची भक्ति💐💐

एक पुजारी थे, ईश्वर की भक्ति में लीन रहते. सबसे मीठा बोलते. सबका खूब सम्मान करते. जो जैसा देता है वैसा उसे मिलता है. लोग भी उन्हें अत्यंत श्रद्धा एवं सम्मान भाव से देखते थे।




पुजारी जी प्रतिदिन सुबह मंदिर आ जाते. दिन भर भजन -पूजन करते. लोगों को विश्वास हो गया था कि यदि हम अपनी समस्या पुजारी जी को बता दें तो वह हमारी बात बिहारी जी तक पहुंचा कर निदान करा देंगे।

एक तांगेवाले ने भी सवारियों से पुजारी जी की भक्ति के बारे में सुन रखा था. उसकी बड़ी इच्छा होती कि वह मंदिर आए लेकिन सुबह से शाम तक काम में लगा रहता क्योंकि उसके पीछे उसका बड़ा परिवार भी था।

उसे इस बात काम हमेशा दुख रहता कि पेट पालने के चक्कर में वह मंदिर नहीं जा पा रहा. वह लगातार ईश्वर से दूर हो रहा है. उसके जैसा पापी शायद ही कोई इस संसार में हो. यह सब सोचकर उसका मन ग्लानि से भर जाता था. इसी उधेड़बुन में फंसा उसका मन और शरीर इतना सुस्त हो जाता कि कई बार काम भी ठीक से नहीं कर पाता. घोड़ा बिदकने लगता, तांगा डगमगाने लगता और सवारियों की झिड़कियां भी सुननी पड़तीं।

तांगेवाले के मन का बोझ बहुत ज्यादा बढ़ गया, तब वह एक दिन मंदिर गया और पुजारी से अपनी बात कही- मैं सुबह से शाम तक तांगा चलाकर परिवार का पेट पालने में व्यस्त रहता हूं. मुझे मंदिर आने का भी समय नहीं मिलता. पूजा - अनुष्ठान तो बहुत दूर की बात है।

पुजारी ने गाड़ीवान की आंखों में अपराध बोध और ईश्वर के कोप के भय का भाव पढ लिया. पुजारी ने कहा- 

तो इसमें दुखी होने की क्या बात है ?

तांगेवाला बोला- 

मुझे डर है कि इस कारण भगवान मुझे नरक की यातना सहने न भेज दें. मैंने कभी विधि - विधान से पूजा - पाठ किया ही नहीं, पता नहीं आगे कर पाउं भी या नहीं. क्या मैं तांगा चलाना छोड़कर रोज मंदिर में पूजा करना शुरू कर दूं ?

पुजारी ने गाड़ीवान से पूछा- 

तुम गाड़ी में सुबह से शाम तक लोगों को एक गांव से दूसरे गांव पहुंचाते हो. क्या कभी ऐसा भी हुआ है कि तुमने किसी बूढ़े, अपाहिज, बच्चों या जिनके पास पास पैसे न हों, उनसे बिना पैसे लिए तांगे में बिठा लिया हो ?

गाड़ीवान बोला- 

बिल्कुल ! 

अक्सर मैं ऐसा करता हूं. यदि कोई पैदल चलने में असमर्थ दिखाई पड़ता है तो उसे अपनी गाड़ी में बिठा लेता हूं और पैसे भी नहीं मांगता।

पुजारी यह सुनकर खुश हुए. उन्होंने गाड़ीवान से कहा- 

तुम अपना काम बिलकुल मत छोड़ो. बूढ़ों, अपाहिजों, रोगियों और बच्चों और परेशान लोगों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची भक्ति है।

जिसके मन में करुणा और सेवा की भावना हो, उनके लिए पूरा संसार मंदिर समान है. मंदिर तो उन्हें आना पड़ता है जो अपने कर्मों से ईश्वर की प्रार्थना नहीं कर पाते।

तुम्हें मंदिर आने की बिलकुल जरूरत नहीं है. परोपकार और दूसरों की सेवा करके मुझसे ज्यादा सच्ची भक्ति तुम कर रहे हो।

ईमानदारी से परिवार के भरण-पोषण के साथ ही दूसरों के प्रति दया रखने वाले लोग प्रभु को सबसे ज्यादा प्रिय हैं.यदि अपना यह काम बंद कर दोगे तो ईश्वर को अच्छा नहीं लगेगा पूजा - पाठ, भजन - कीर्तन ये सब मन को शांति देते हैं.मंदिर में हम स्वयं को ईश्वर के आगे समर्पित कर देते हैं.संसार के जीव ईश्वर की  संतान हैं और इनकी सेवा करना ईश्वर की सेवा करना ही है।

आप चाहे किसी भी समाज से हो,अगर आप अपने समाज के किसी उभरते हुए व्यक्तित्व से जलते हो या उसकी निंदा करते हो तो आप निश्चित रूप से उस समाज के लिए कलंक हो..!!

   🙏🏿🙏🏻🙏🏾जय श्री कृष्ण🙏🏼🙏🏽🙏

आज का भगवद चिंतन❌🙏  स्वरूप बोध ❌🙏


         किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन में स्वयं की शक्ति और स्वभाव  को समझने की बहुत बड़ी आवश्यकता होती है। 

हमारे जीवन के प्रगति पथ में निराशा सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करती है। 

हम थोड़ी देर में ही परिस्थिति के आगे घुटने टेक कर उसे अपने ऊपर हावी होने का अवसर दे देते हैं। 

       किसी संग दोष के कारण, किन्हीं बातों के प्रभाव में आकर निराश हो जाना, यह संयोग जन्य स्थिति है और आनंद , प्रसन्नता, उत्साह, उल्लास एवं  सात्विकता यही हमारा मूल स्वभाव है। 

यही हमारा वास्तविक स्वरूप भी है। 

        पानी को कितना भी गर्म कर लें पर वह थोड़ी देर बाद अपने मूल स्वभाव में आकर शीतल हो जायेगा। 

इसी प्रकार हम कितने भी क्रोध में, भय में अशांति में आ जायें पर थोड़ी देर बाद बोध में, निर्भयता में और प्रसन्नता में हमें आना ही होगा क्योंकि यही हमारा मूल स्वभाव है।

          प्रकृति ने प्रत्येक मानव को असीम ऊर्जा से भरा है। 

यदि हम स्वयं को पहचानकर अपनी ऊर्जा का उपयोग परहित में करने लगें तो स्वयं के साथ  -  साथ लाखों लोगों के कल्याण के निमित्त बन सकते है ।

🌹🙏🏻हरि ऊं गुरूदेव  🙏🏻🌹
🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️

भगवद  गीता अध्याय: 18

श्लोक 36-37

श्लोक:
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ।
 अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति॥

 यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्‌।
 तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्‌॥

भावार्थ:

हे भरतश्रेष्ठ! 

अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। 

जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है। 

और जिससे दुःखों के अंत को प्राप्त हो जाता है । 

जो ऐसा सुख है ।


वह आरंभकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत ( जैसे खेल में आसक्ति वाले बालक को विद्या का अभ्यास मूढ़ता के कारण प्रथम विष के तुल्य भासता है । 

वैसे ही विषयों में आसक्ति वाले पुरुष को भगवद्भजन, ध्यान, सेवा आदि साधनाओं का अभ्यास मर्म न जानने के कारण प्रथम 'विष के तुल्य प्रतीत होता' है ) होता है ।

परन्तु परिणाम में अमृत के तुल्य है ।

इसलिए वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।

🕉️🕉️🕉️

*✍️जिंदगी में....*

  *रोकने टोकने वाला कोई  है,*

  *तो भगवान का एहसान मानिए..*

  *क्योंकि जिन बागों में माली नहीं होते,*

  *वो बाग जल्दी ही उजड़ जाते हैं!*

*( इसलिये ईश्वर से प्रार्थना करें कि बडों का आशीर्वाद हम पर सदा बना रहे )*
 
      *🙏जय द्वारकाधीश🙏*
    *🙏जय श्री कृष्णा 🙏*
🕉️🕉️🕉️

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जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

रामेश्वर कुण्ड

 || रामेश्वर कुण्ड || रामेश्वर कुण्ड एक समय श्री कृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर श्रीराधिका के साथ ...