https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: धनुष यज्ञ https://sarswatijyotish.com/India
લેબલ धनुष यज्ञ https://sarswatijyotish.com/India સાથે પોસ્ટ્સ બતાવી રહ્યું છે. બધી પોસ્ટ્સ બતાવો
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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण , धनुष यज्ञ

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण , धनुष यज्ञ 


संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण 

ब्राह्मखण्ड (सेतु-महात्म्य)

लक्ष्मीतीर्थ और अग्नितीर्थ का महात्म्य - पिशाचयोनि को प्राप्त हुए दुष्पण्य का उद्धार...(भाग 3) 
 
राजाके ऐसा कहनेपर धर्मज्ञ पशुमान्ने कहा-राजन् ! 

जिसने सारे नगरको सूना कर दिया है, वह वधके ही योग्य है। 

इस विषयमें कुछ पूछनेकी बात ही नहीं है। 

यह अत्यन्त पापात्मा मेरा पुत्र नहीं, शत्रु ही है। 

जिसने इस नगरको बालकोंसे खाली कर दिया, उस दुष्टके उद्धारका मुझे कोई उपाय नहीं दिखायी देता। 

मैं सच कहता हूँ, इस दुष्टात्माको प्राणदण्ड दिया जाय। 

पशुमान्‌का यह वचन सुनकर समस्त पुरवासी पशुमान्‌की प्रशंसा करते हुए राजासे बोले- 'महाराज! इस दुष्टको मारा न जाय अपितु चुपचाप नगरसे निकाल दिया जाय।' 

तब राजाने दुष्पण्यको बुलाकर कहा- 'ओ दुष्टात्मन् ! 




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तू शीघ्र हमारे राज्यसे बाहर चला जा। 

यदि यहाँ रहेगा, तो मैं तेरा वध कर डालूँगा।' 

इस प्रकार डाँट बताकर राजाने दूतोंद्वारा उसे नगरसे निर्वासित कर दिया।

तदनन्तर दुष्पण्य भयभीत हो उस देशको छोड़कर मुनिमण्डलीसे युक्त वनमें चला गया। 

वहाँ जाकर भी उसने एक मुनिके बालकको जलमें डुबो दिया। 

कुछ बालक खेलने के लिये गये हुए थे, उन्होंने उस बालक को मरा हुआ देख अत्यन्त दुःखी हो उसके पितासे यह समाचार कहा। 

तब उग्रश्रवाने बालकोंसे अपने पुत्रके मारे जानेका समाचार सुनकर तपके प्रभावसे दुष्पण्यके चरित्रको जान लिया और उसे शाप देते हुए कहा- 

'अरे, तूने मेरे पुत्रको पानीमें फेंककर मार डाला है, इसलिये तेरी मृत्यु भी जलमें ही डूबनेसे होगी और मरनेके बाद तू दीर्घकालतक पिशाच बना रहेगा।' 

यह शाप सुनकर दुष्पण्यको बड़ा दुःख हुआ तथा वह उस वनको छोड़कर सिंह आदि क्रूर जन्तुओंसे युक्त दूसरे भयंकर वनमें चला गया। 

वहाँ बड़े जोरकी वर्षा और आँधी चलने लगी। 

दुष्पण्यने देखा एक मरे हुए हाथीका सूखा कंकाल पड़ा है। 

उस समय आँधी और प्रचण्ड वर्षाके कष्टको न सह सकनेके कारण वह उस हाथीके पेटकी गुफामें घुस गया। फिर बड़ी भारी वर्षा हुई। 

जलका महान् प्रवाह हाथीके पेटमें भी भर गया। हाथीका शव उस महाप्रवाहमें बहते-बहते समुद्रमें चला गया। 

दुष्पण्य उस जलमें डूबकर क्षणभरमें प्राणहीन हो गया। 

मृत्युके बाद उसे पिशाचकी योनि मिली। 

भूख-प्याससे पीड़ित होकर वह भयानक रूपधारी पिशाच अनेक प्रकारके दुःख सहता हुआ गहन वनमें रहने लगा। 

एक वनसे दूसरे वनमें दौड़ता और कष्ट भोगता हुआ वह क्रमशः दण्डकारण्यमें आया। 

वहाँ उसने उच्चस्वरसे पुकार लगायी-'हे तपस्वी महात्माओ! आपलोग बड़े कृपालु और सब प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले हैं। मैं दुःखसे अत्यन्त पीड़ित हूँ। अतः मुझे अपनी दयादृष्टिसे अनुगृहीत करें। पूर्वकालमें मैं पाटलिपुत्र नगरमें पशुमान्‌का पुत्र दुष्पण्य नामक वैश्य था। उस समय मैंने बहुत-से बालकोंकी हत्या की। अब मैं पिशाचयोनिको प्राप्त हुआ हूँ। भूख-प्यास सहन करनेकी मुझमें शक्ति नहीं रह गयी है। अतः आपलोग कृपा करके मेरी रक्षा करें। तपोधनो! जिस प्रकार मैं पिशाचयोनिसे छूट जाऊँ वैसा प्रयत्न कीजिये।'

पिशाचका यह वचन सुनकर तपस्वी मुनियोंने महर्षि अगस्त्यजीसे कहा- 'भगवन् ! इस पिशाचके उद्धारका कोई उपाय बतलावें।' तब अगस्त्यजीने अपने प्रिय शिष्य सुतीक्ष्णको बुलाकर कहा-'वत्स सुतीक्ष्ण ! तुम शीघ्र गन्धमादन पर्वतपर चले जाओ। वहाँ सब पापोंका नाश करनेवाला महान् अग्नितीर्थ है। महामते ! इस पिशाचके उद्धारके उद्देश्यसे तुम उस तीर्थमें स्नान करो।' अगस्त्यजीके ऐसा कहनेपर सुतीक्ष्णजी गन्धमादन पर्वतपर गये और अग्नितीर्थमें जाकर पिशाचके लिये स्नानका संकल्प करके वहाँ उन्होंने तीन दिनतक नियमपूर्वक स्नान किया। फिर रामनाथ आदि तीर्थोंका सेवन और स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मण सुतीक्ष्णजी अपने आश्रमपर लौट आये। उस तीर्थमें स्नानके प्रभावसे वह पिशाच शीघ्र ही दिव्य देहको प्राप्त हुआ और सुतीक्ष्ण, अगस्त्य तथा अन्य तपोधनोंको बार-बार प्रणाम करके उनकी आज्ञा ले प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गलोक को चला गया।

क्रमशः...
शेष अगले अंक में जारी





श्रीमहाभारतम् 
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।। श्रीहरिः ।।
* श्रीगणेशाय नमः *
।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।

(आस्तीकपर्व)

एकोनत्रिंशोऽध्यायः

कश्यपजी का गरुड को हाथी और कछुए के पूर्वजन्म की कथा सुनाना, गरुड का उन दोनों को पकड़कर एक दिव्य वटवृक्ष की शाखा पर ले जाना और उस शाखा का टूटना...(दिन 114)
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अपश्यन्निर्मलजलं नानापक्षिसमाकुलम् । स तत् स्मृत्वा पितुर्वाक्यं भीमवेगोऽन्तरिक्षगः ।। ३७ ।। 

नखेन गजमेकेन कूर्ममेकेन चाक्षिपत् । समुत्पपात चाकाशं तत उच्चैर्विहंगमः ।। ३८ ।।

उन्होंने देखा, सरोवरका जल अत्यन्त निर्मल है और नाना प्रकारके पक्षी इसमें सब ओर चहचहा रहे हैं। तदनन्तर भयंकर वेगशाली अन्तरिक्षगामी गरुडने पिताके वचनका स्मरण करके एक पंजेसे हाथीको और दूसरेसे कछुएको पकड़ लिया। फिर वे पक्षिराज आकाशमें ऊँचे उड गये ।। ३७-३८ ।।

सोऽलम्बं तीर्थमासाद्य देववृक्षानुपागमत् । ते भीताः समकम्पन्त तस्य पक्षानिलाहताः ।। ३९ ।। 

न नो भञ्ज्यादिति तदा दिव्याः कनकशाखिनः । प्रचलाङ्गान् स तान् दृष्ट्वा मनोरथफलद्रुमान् ।। ४० ।। 

अन्यानतुलरूपाङ्गानुपचक्राम खेचरः । काञ्चनै राजतैश्चैव फलैर्वैदूर्यशाखिनः ।
सागराम्बुपरिक्षिप्तान् भ्राजमानान् महाद्रुमान् ।। ४१ ।।

उड़कर वे फिर अलम्बतीर्थमें जा पहुँचे। वहाँ (मेरुगिरिपर) बहुत-से दिव्य वृक्ष अपनी सुवर्णमय शाखा-प्रशाखाओंके साथ लहलहा रहे थे। जब गरुड उनके पास गये, तब उनके पंखोंकी वायुसे आहत होकर वे सभी दिव्य वृक्ष इस भयसे कम्पित हो उठे कि कहीं ये हमें तोड़ न डालें। गरुड रुचिके अनुसार फल देनेवाले उन कल्पवृक्षोंको काँपते देख अनुपम रूप-रंग तथा अंगोंवाले दूसरे दूसरे महावृक्षोंकी ओर चल दिये। उनकी शाखाएँ वैदूर्य मणिकी थीं और वे सुवर्ण तथा रजतमय फलोंसे सुशोभित हो रहे थे। वे सभी महावृक्ष समुद्रके जलसे अभिषिक्त होते रहते थे ।। ३९-४१ ।।

तमुवाच खगश्रेष्ठं तत्र रौहिणपादपः । अतिप्रवृद्धः सुमहानापतन्तं मनोजवम् ।। ४२ ।।

वहीं एक बहुत बड़ा विशाल वटवृक्ष था। उसने मनके समान तीव्र-वेगसे आते हुए पक्षियोंके सरदार गरुडसे कहा ।। ४२ ।।

रौहिण उवाच

येषा मम महाशाखा शतयोजनमायता । एतामास्थाय शाखां त्वं खादेमौ गजकच्छपौ ।। ४३ ।।

वटवृक्ष बोला-पक्षिराज ! यह जो मेरी सौ योजनतक फैली हुई सबसे बड़ी शाखा है, इसीपर बैठकर तुम इस हाथी और कछुएको खा लो ।। ४३ ।।

ततो द्रुमं पतगसहस्रसेवितं महीधरप्रतिमवपुः प्रकम्पयन् । खगोत्तमो द्रुतमभिपत्य वेगवान् बभञ्ज तामविरलपत्रसंचयाम् ।। ४४ ।।

तब पर्वतके समान विशाल शरीरवाले, पक्षियोंमें श्रेष्ठ, वेगशाली गरुड सहस्रों विहंगमोंसे सेवित उस महान् वृक्षको कम्पित करते हुए तुरंत उसपर जा बैठे। बैठते ही अपने असह्य वेगसे उन्होंने सघन पल्लवोंसे सुशोभित उस विशाल शाखाको तोड़ डाला ।। ४४ ।।

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि सौपर्णे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ।। २९ ।।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें गरुडचरित्र-विषयक उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। २९ ।।

क्रमशः...
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🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷
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शिव पूजा का विधान....(भाग 1)
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शैलादि बोले- शिव पूजा के विधान को मैं तुम्हें संक्षेप से कहूँगा। यह शिव शास्त्रोक्त मार्ग से शिवजी ने स्वयं पूर्व में कहा है।

चन्दन से चर्चित दोनों हाथों को अन्जली बाँधकर करन्यास करे इसको शिवहस्ता कहते हैं। ऐसे हाथों से शिव की पूजा करनी चाहिए। तत्वगत आत्मा की व्यवस्था करके पूर्व की तरह आत्मा की शुद्धि करनी चाहिए। पृथ्वी, जल, आग, वायु, आकाश आदि पाँचों तत्वों की शुद्धि करे। षट सहित सद्य और तृतीय मन्त्र से फट् तक धारा की शुद्धि, षट सहित सद्य और तृतीय मन्त्र से फट् तक जल की शुद्धि, वाहि के तृतीय मन्त्र से फट् तक अग्नि की शुद्धि, वायवी चौथे मन्त्र से षष्ट सहित फट् तक वायु की शुद्धि और षष्ट सहित तृतीय से आकाश की शुद्धि करनी चाहिए। इस प्रकार उक्त संहार करके अमृत धारा का सुष्मना में ध्यान करे। शान्तातीत आदि की निवृत्ति तक आर्तनाद बिन्दु अकार, उकार मकार वाले (ॐ वाले) सदा शिव को ब्रह्मन्यास करके पाँचों मुखों के पन्द्रह नेत्रों वाले प्रभु का ध्यान करे तथा मूल मन्त्र से पाद से लेकर केश पर्यन्त महामुद्राओं को बाँध कर 'मैं शिव हूँ' ऐसा ध्यान करके शक्तियों का स्मरण करके आसन की कल्पना करके, अन्तःकरण में सर्वोदय चार सहित नाभी रूपी वह्नि कुण्ड में पूर्ववत् सदा शिव का ध्यान करे, बिन्दु से अमृत धारा गिरती है इसका ध्यान करके, ललाट में दीपशिखाकार शिव का ध्यान करके आत्म शुद्धि इस प्रकार से करे और प्राण अपान का संयम कर सुष्मना के द्वारा वायु का संयम करे और षष्ट मन्त्र से ताल मुद्रा करके, दिगबन्धन करके स्थान शुद्धि प्रणव से तीन तत्वों का विन्यास करके उसके ऊपर बिन्दु का ध्यान करके जल से पूर्ण करके संहिता से अभिमन्त्रित करे। द्वितीय मन्त्र से अमृती करके, तीसरे से विशुद्ध करके, चौथे से अवगुण्ठन करके, पंचम से अवलोकन करके, षष्ठ से रक्षा करके, कुश पुण्ज से, अर्घ जल से सर्व द्रवों का तथा आत्मा का शोधन करे तथा रुद्र गायत्री से शेष सबका प्रोक्षण करे। पंचामृत और पंच गव्य आदि को ब्रह्मांगों से और मूल मत्र से अभिमन्त्रित करे। ऐसे द्रव्य शुद्धि करके, मौन होकर पुष्पांजलि दे। प्रणावादि नमो पर्यन्त मन्त्रों का जप करके पुष्प छोड़े।

पाशुपात मन्त्र से, पाशुपतास्त्र से शिवलिंग की मूर्धा पर पुष्प वर्षा करे। ॐ नमः शिवाय मूल मन्त्र से भगवान की पूजा करे। पुनः पुष्पांजलि देकर दीप, धूप आदि से पूजा करे। शिवजी की मूर्धा पर पुष्प चढ़ावें। शून्य मस्तक न छोड़े। क्योंकि कहा है कि जिस राजा के राज में शून्य मस्तक शिवलिंग रहता है उसके राज में दुर्भिक्ष अकाल अलक्ष्मी, महा रोग वाहन क्षय होता है। इसलिये राजा को धर्म, अर्थ, काम और मुक्ति की सिद्धि के लिए शून्य लिंग मस्तक न रहने दे।

शिवलिंग को स्नान कराकर वस्त्र से पौंछे। गन्ध, पुष्प, दीप, धूप, नैवेद्य, अलंकार आदि शिव को मूल मन्त्र से अर्पण करे। आरती करे, दीपदान दे और धेनु मुद्रा का प्रदर्शन करे। मूल मन्त्र से नमस्कार करे। मूल मन्त्र का यथायोग्य जप करे। दशाँश हवन इत्यादि करे। ब्रह्मांग जप समर्पण, आत्म निवेदन, स्तुति नमस्कार आदि करे। गुरु की पूजा आदि अन्त में विनायक का पूजन भी करे।

इस प्रकार जो ब्राह्मण सर्व कामनाओं के लिए लिंग में अथवा स्थण्डल में शिव की पूजा करता है वह एक माह में या एक वर्ष में करने पर ही शिव सायुज्य को प्राप्त कर लेता है। लिंगार्चक पुरुष छः मास में ही शिव सायुज्य पाता है। सात परिक्रमा करके दण्डवत प्रणाम करना चाहिए। प्रदक्षिणा करने पर पग पग पर सैंकड़ों अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इसलिए सर्व कार्य सिद्धि के लिए शिव की पूजा करनी चाहिए। भोग की इच्छा वाला भोगों को प्राप्त करता है, राजा राज्य को प्राप्त करता है। पुत्रार्थी पुत्र पाता है। रोगी रोग से मुक्त होता है। जो-जो पुरुष जो-जो कामना करता है वह सभी को प्राप्त करता है।

क्रमशः शेष अगले अंक में...


🏹🏹🏹 *धनुष यज्ञ* 🏹🏹🏹

🍁🍁🍁 *भाग  38* 🍁🍁🍁

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---------- गतांक से आगे -----

सज्जनों ,--- श्रीराम जी ने लक्ष्मण की तरफ देखा । लक्ष्मण जी शान्त हो गये । श्रीराम जी ने परशुराम जी तरफ देखकर कहा ,  महराज ! छमा करें बालक है - इसने आपका कुछ भी अपराध नही किया है , आपका असली अपराधी तो मै हूँ -

*तेहिं नाही कछु काज बिगारा  । अपराधी मै नाथ तुम्हारा ।।*

महराज ! लक्ष्मण तो आपको एवं आपके प्रभाव को नही जानता । फिर महराज बालक के वचन पर आप ध्यान ही मत दीजिये । आपका अपराधी मै हूँ , आपके सामने खडा हूँ अब आप कृपा करिये या क्रोध करिये । दण्ड दीजिये या छमा करिये । जिस प्रकार से आपके हृदय को शान्ति मिले वही कीजिये ।  परशुराम जी ने कहा , तुम्हारी बात तो ठीक है , पर मै जब भी शान्त होना चाहता हुँ तब तुम्हारा भाई अपनी कुटिल मुस्कान से मुझे शान्त ही नही होने देता । मित्रों इतने मे लक्ष्मण जी परशुराम जी को देखकर पुनः मुस्करा दिये । परशुराम जी ने कहा ये देखो - ये देखो  

*अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें* ।

 अब कुछ भी हो जाय , चाहे मुझे सारा ब्रम्ह्याण्ड धिक्कारे मै इसे छोडने वाला नही हूँ । मेरे फरसे की कहानी सुनकर राजाओ की स्त्रियों का गर्भपात हो जाता है , वही फरसा हाथ मे होता हुआ भी यह बालक अभी तक जीवित है और जीवित ही नही वरन मुस्करा भी रहा है । मै फरसा उठाता तो हूँ कि इसका बध कर दूँ पर यह फरसा भी आज मुझसे विपरीत हो गया लगता है , मेरा हाथ ही नही उठ रहा है । आज मै और मेरा फरसा यह दया रुपी पाठ कहा से पढ लिया जो कि मेरे लिए अत्यन्त कष्टकारी हो रहा है । इतना सुनते ही लक्ष्मण जी कहते हैं महराज आज तक तो मैने सुना था कि क्रोध करने से शरीर जलता है और दया करने से शरीर की रक्षा होती है पर मुझे तो आज यह विपरीति दिख रहा है -

*जौ पै कृपाँ जरहिं मुनि गाता । क्रोध भएँ तनु राख बिधाता ।।*

मित्रों सभा मे अजीब सन्नाटा । परशुराम जी कहते हैं , इस बालक को मेरी आँख से दूर करो । गोस्वामी बाबा बडा सूक्ष्म अन्तर बताते है दोनो मे । किसी ने कहा लक्ष्मण जी कुछ ज्यादा ही बोल रहे है , दूसरे ने कहा परशुराम जी भी बोल रहे हैं ? तीसरे ने कहा , ना परशुराम जी बोल नही रहे हैं फिर , 

*बोलत लखनहिं* 

और परशुराम जी ? 

*भृगुपति बकहिं कुठार उठाए* । 

बडे क्रोध मे है फरसा लेकर । परशुराम जी कहते है इसे मेरी आँखो से दूर करो । लक्ष्मण जी कहते है! काहे को आँख से दूर कराते हो ? कोई करेगा कि नही करेगा । 

*मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाही*

 ।आँखे ही मूँद लो कही कोई है ही नही । कितनी सुन्दर बात कही है । बहिर्मुखी दृष्टि से देखोगे तो दूसरा है । लेकर आँख मूंदकर अन्तर्मुखी वृत्ति से देखोगे तो कोई और है हि नही - एक ही है केवल एक ही । 
सज्जनों बात ज्यादा बढ गई । राम जी ने -

 *सुनि लछिमन बिहंसे बहुरि  नैन तरेरे राम*

 राम जी ने केवल लक्ष्मण की ओर देखा ।

 लक्ष्मण तुरंत -

 *गुरु समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम ।*

 मित्रों यही लक्ष्मण जी की विशेषता हैं । इतने क्रोध मे है कि परशुराम जी का उत्तर दे रहे हैं लेकिन अभिमान से नही जुडे हुये हैं ।

 लक्ष्मण जी -- भगवान से जुडे़ है । अभिमान से जुडे हुये क्रोधी की और भगवान से जुडे हुये क्रोधी की स्थिति मे अन्तर है - बहुत अन्तर हैं ।जो अभिमान से जुडा हुआ होगा , उसे रोको तो कहेगा , हमे मत रोको , हम कह रहे हैं हमे मत रोको । दो लोग लड रहे हो एक को पकड लो तो ज्यादा जोश दिखायेगा । छोड़ दो बस -.छोड़ दो बस । ऐसे ही करते हैं क्रोधी । पर जो भगवान से जुडा है । राम जी ने कुछ कहा भी नही देखा बस ।

 लक्ष्मण जी बैठ गए । लक्ष्मण जी से किसी ने. पूँछा तुम्हे बुरा नही लगा ? तुम्हे रोंक दिया गया , उनसे कोई कुछ नही कह रहा हैं ।लक्ष्मण जी कहते है अपना भला बुरा क्या ? हमसे राम जी ने कहा बोलो तो बोलने लगे । उन्होने कहा चुप तो चुप हो गए ।जैसे राम जी की इच्छा । 

यह है भक्त का लक्षण ।

सज्जनों 
*गुरु समीप गवने सुकुचि* 

गुरु के पास जाकर ही क्यूँ बैठे ? राम जी नाराज न हो जाए

  *नैन तरेरे राम* । 

मानो संसार को उपदेश दिया अगर लीलाबस भगवान नाराज हो जाएं, भगवान रुठ जाएं तो सदगुरु की शरण मे चले जाना चाहिए ।

*कबिरा हरि के रुठते सदगुरु के सरने जाइ*

राम जी आगे आये । श्री राम जी ने परशुराम जी से कुछ कहा ,

 *राम वचन सुनि सकुच जुडाने* ।

 मित्रों बोलने का ढंग होता है । वही बात लक्ष्मण जी कह रहे हैं तो परशुराम जी नाराज हो जाते है और वही बात राम जी कह रहे है तो परशुराम जी शान्त हो जाते हैं । कैसे ? जानते है अगले सत्र मे --- तब तक *जय जय सीताराम*
🙏🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

भगवान सूर्य के वंश :

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