सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा ) ।।
।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।
🙏🥰 _*श्रीराम राम राम सीताराम शरणम् मम* _🥰🙏
*#मैं_जनक_नंदिनी...3️⃣9️⃣ ओर 4️⃣0️⃣*
_*( माता सीता के व्यथा की आत्मकथा)*_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐
_*रामु तुरत मुनि बेषु बनाई..........*_
*📙( रामचरितमानस )📙*
🙏🙏👇🏼🙏🙏
*मैं वैदेही !*
कैसी विधि की बिडम्बना है ना !
जिन श्रीअंगों में रेशमी वस्त्र ही सुशोभित होते थे .......!
उन में आज वल्कल पहनाये गए हैं ।
वो चरण !
कितनें कोमल ........!
मैं तो स्त्री हूँ प्राकृतिक रूप से कोमल ही होती है स्त्री .....!
पर मुझे विधाता नें कुछ ज्यादा ही कोमल बनाया .........।
किन्तु मेरे श्रीराम !
सीते !
थोडा धीरे दवाओ मेरे पाँव ...........!
उस दिन बोले थे ।
ओह !
मेरे कोमल कर भी चुभते थे मेरे श्रीराम को .....!
इतनें कोमल ।
पर आज वही चरण बिना पादत्राण के वन में चलनें को उद्यत थे ।
जब मेरे श्रीराम अपनें राजसी पोशाक त्याग कर वल्कल धारण कर रहे थे ......!
उस समय वहाँ उपस्थित कौन ऐसा व्यक्ति था जिसके नयन से गंगा यमुना न बहे हों ।
सीता !
मेरी और देखा था कैकेई नें ......!
मैं आगे बढ़ी थी .........!
जी !
माँ ! ।
ये लो वल्कल तुम भी पहन लो....!
और इन राजसी वस्त्रों को उतार दो ।
कैकेई !
ये आवाज इतनी तेज़ थी कि सब स्तब्ध और भयभीत हो उठे थे ।
मै अभी श्राप देकर तुझे भस्म कर दूँगा ...........!
मानों अंगार उगल रहे थे वे शब्द .................!
ये कोई और नही इस कुल के गुरु वशिष्ठ जी थे ।
कैकेई !
ये याद रहे वनवास का वचन राम के लिये माँगा था तुमनें, सीता के लिये नही ..........!
सीता राजसी वस्त्रों में ही जायेगी ......।
कैकेई !
मुझे स्त्री पर कभी क्रोध नही आता .........!
पर तू !
तू तो स्त्री जात पर कलंकिनी है ।
पहली बार मैने गुरु वशिष्ठ जी को इतनें क्रोध में देखा था ............!
वो इतनें क्रोधित हो गए थे कि श्राप दे ही देते कैकेई को.....!
पर मैं ही आगे बढ़ी थी उस समय ......!
और हाथ जोड़ कर मैने मना किया था ।
मैं उस समय अपनें श्रीराम को लेकर अत्यंत दुःखी थी ........!
मैं समझ ही नही पाई कि मेरे हाथ जोड़नें पर गुरु वशिष्ठ जी नें मुझे सिर झुकाकर प्रणाम क्यों किया ..........।
मुझे बाद में पता चला ...........!
वो तो मुझे इष्ट मानते हैं..........!
ये बात वो मुझे जनकपुर में ही मेरे श्रीराम के सामनें बोल चुके हैं ।
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कैकेई थर थर काँप रही थी......!
जब कुल गुरु वशिष्ठ जी नें श्राप की बात कही......!
वो जानती हैं कि इनको कुछ कहनें की भी आवश्यकता नही है ये मात्र किसी को लेकर हृदय से दुःखी भी हो जाएँ तो सामनें वाला स्वतः ही श्रापित हो ही गया ।
और बेचारी कैकेई माता को तो सब नें श्राप ही दिया है ............।
अरुंधती !
गुरु वशिष्ठ जी नें पुकारा .........!
ऋषि पत्नियों के साथ वहीं खड़ी थीं अरुंधती .......!
वो तुरन्त आगे आयीं ।
जी भगवन् !
अपनें पति वशिष्ठ जी को प्रणाम करके बोलीं ।
तुम्हारे पास जितनें आभूषण हैं .......!
और अपनी दिव्य शक्तियों से जितनें आभूषण मंगवा सकती हो ......!
मंगवाओ .......!
और मेरी इन आराध्या भगवती जानकी का श्रृंगार करो ............।
आँखें बन्द करके ये आज्ञा दी थी अपनी पत्नी अरुंधती को कुल गुरु नें ।
मेरा हाथ बड़े स्नेह से पकड़ा था गुरु पत्नी अरुंधती जी नें, और ले गयीं मुझे अपनी कुटिया में.........!
आँखें बन्दकर करके बैठीं ......!
उनके अधरोष्ठ चल रहे थे ।
तभी स्वर्ग के आभूषण उनके हाथों में आनें लगे .........!
वो उन आभूषणों को लेकर मेरे अंगों में लगा रही थीं ...........!
कर्ण फूल ......!
हार .....!
चूड़ामणि ......!
अँगूठी ............!
सब बड़े प्रेम से लगा रही थीं वो श्रद्धेया ।
उनका वो स्नेह .......!
उनका वो मेरे प्रति अनुराग ........!
मैं गदगद् थी ।
ये क्या ?
मुझे जब लेकर आयीं ऋषि पत्नी अरुंधती ...........!
तब मेरा श्रृंगार देखा था कुल गुरु नें ।
ये क्या ?
क्या तुम्हारे पास आभूषणों की कमी हो गयी है ?
या तुम्हारी तप की शक्ति स्वर्गीय आभूषणों को लानें में अब समर्थ नही रही.......!
मुझे कहना चाहिये था .......!
माता अदिति के कुण्डल तक लाकर मै अपनी भगवती श्री सीता को धारण करवाता ।
देवी !
इतनी कृपणता क्यों ?
कुल गुरु नें अपनी पत्नी पर रोष किया ।
फिर मेरे पास आये ............!
उन्होंने एक एक आभूषणों को देखा ।
हाथ में कँगन हैं ...........!
पर ये क्या !
दूसरे हाथ में कोई कँगन नही ?
और नथ बेसर ?
देवी !
अभी तो और भी आभूषण धारण कराये जा सकते हैं ।
ये तुम्हारा परम सौभाग्य है कि ब्रह्म आल्हादिनी का तुम श्रृंगार कर रही हो ..............!
फिर क्यों ?
हे भगवन् !
मै जानती हूँ ........!
मैं और भी आभूषण धारण करवा सकती थी .......!
पर नही ........!
ऋषि पत्नी नें कहा ।
क्यों नही ?
यही तो प्रश्न था कुल गुरु का ।
क्यों की मेरी एक बहन और है ........!
जिसका नाम है !
अनुसुइया ।
वो वन में इंतजार में बैठी है बेचारी ........!
की भगवती सीता जब वन में आयेंगीं तब मैं अपनें हाथों से उनका श्रृंगार करूंगी ......!
मेरी बहन अनुसुइया नें कई वर्षों पहले से ही आभूषणों को सम्भाल के रखा है ।
भगवन् !
अगर मैं सारा श्रृंगार स्वयं ही कर दूंगी और सारे आभूषण में ही लगा दूंगी .....!
तो फिर मेरी बहन ?
वो तो कहेगी ना ........!
कि सारी सेवा स्वयं ही ले गयी मेरी बहन ......!
मेरा ध्यान ही नही रखा ।
अब कुछ संतोष हुआ था
कुल गुरु को ...........!
वो शान्त हो गए थे ।
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*जहँ तहँ देहिं कैकेई गारी ..*
*( रामचरितमानस )*
तभी प्रजा की आवाजें महल के भीतर तक आनें लगीं थीं .....!
सुमन्त्र !
चलो बाहर देखतें हैं प्रजा का आक्रोश कितना है !
ये बात कुल गुरु नें महामन्त्री से कही ...........!
और दोनों ही बाहर चले गये थे ..............।
एक घड़ी बाद ही जब वापस महल में आये तब कुल गुरु नें जो कहा .....!
वो अवध के लिये शुभ तो था ही नही ।
""अवध की हजारों प्रजा महल के चारों ओर इकट्ठी हो गयी है .....!
और उनमें जो पंचायत के प्रधान हैं ........!
उन्होंने निर्णय लिया है ......!
कि कोई सेवक और कोई सेविका कैकेई के साथ या कैकेई की कोई आज्ञा नही मानेंगें.......!
और अगर किसी नें कैकेई की सेवा की और उसकी आज्ञा मानीं तो उसे हम समाज से अलग रखेंगें...........!
उससे किसी का कोई सम्बन्ध नही होगा ..........।
कुल गुरु नें आकर....!
महाराज श्रीदशरथ को ये बात सुनाई ।
किसी राजा को प्रजा का इस प्रकार आंदोलित होना कहाँ प्रिय लगता है .........!
पर आज महाराज दशरथ प्रजा के इस व्यवहार से कुछ प्रसन्न से हुये थे ।
हे दुष्टा
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कैकेई !
तुम्हे पता भी है...!
बाहर क्या हो रहा है ..........!
देखो !
कुल गुरु नें बाहर का दृश्य दिखाया झरोखे के पर्दे को हटा कर ।
वो देखो अवध के सेना नायक ..............!
चतुरंगिनी सेना के नायक........!
पता है कैकेई !
सेनापति निर्णय कर चुके हैं .........!
कि अवध की सेना अब किसी की बात नही मानेगी ............!
महाराज के प्रति भी उनकी निष्ठा अब समाप्त हो गयी है .........!
पूरी सेना नें कह दिया है ........!
हम सब श्रीराम के साथ ही वन में जायेंगें .............!
हमारी अब कोई जिम्मेवारी नही है ।
कितनी मूर्खता कर दी तुमनें कैकेई !
अब कैसे चलाएगा राज्य, तेरा पुत्र भरत ?
बोल कैकेई !
कुल गुरु अत्यन्त रोष में बोल रहे थे ।
ये सुनते ही कैकेई काँप गयी.........!
उसके मुख का रँग डर के कारण बिगड़नें लगा था ।
बोल !
क्या तू और भरत और तेरे मायके के लोग आकर इस अवध के राज्य को चला लेंगें ..............?
क्यों की कैकेई !
तेरी और निर्दोष भरत की सेवा के लिये भी कोई अवध वासी तैयार नही होगा.......!
ये पंचों नें निर्णय कर लिया है ।
चतुरंगिनी सेना भंग हो गयी !
लक्ष्मण को बहुत अच्छा लगा था ये सुनकर ।
पर ये बात मेरे श्रीराम को अच्छी नही लग रही थी .......!
वो गम्भीर हो गए थे ......!
और उन्होंने मन ही मन निर्णय कर लिया था कि अवध को इस समस्या से मुक्ति दिलाकर ही वे वन जायेंगें ।
प्रमुख सेना पति बाहर ही नग्न खड्ग लेकर खड़े हैं .......!
और उनकी सेना की टुकड़ी अवध के हर मार्ग में फैल गयी है .......!
"श्रीराम को हम वन जानें नही देंगें".......!
बस यही कहना है सब का ।
महामन्त्री सुमन्त्र नें आकर फिर ये बात सुनाई ।
दुष्टा कैकेई !
ये सुमन्त्र मुझ से पूछ रहे थे .....!
कुल गुरु !
आप श्राप क्यों नही दे देते कैकेई को ......!
मैने कहा था .....!
महामन्त्री !
कोई ऋषि उसे क्यों श्राप देंनें लगा ...........!
जिसे पति नें ही त्याग दिया हो ......!
जिसनें सत्यवादी पति का इस तरह से अपमान किया हो ......!
उसे श्राप देनें की जरूरत ही क्या !
वो तो स्वतः ही श्रापित हो गयी है ।
हर मार्ग में फैल गये हैं सैनिक .....!
राम को जानें नही देंगें बाहर ....!
और भरत को आनें नही देंगे...........!
भरत के अवध में प्रवेश करते ही उसे बन्दी बना लेंगें ..............!
तुम्हारे समस्त सेवक और सेविकाएँ सब को नजर बन्द करके रखा जाएगा ..........!
क्या करेगी तू कैकेई !
बोल !
इतना सुनते ही कैकेई पहली बार मूर्छित होकर गिरी थीं ।
पर तुरन्त आगे बढ़े मेरे श्री राम, और उन्होनें ही कैकेई को सम्भाला ।
पर मूर्छित है कैकेई ........।
उस समय महाराज दशरथ कुछ प्रसन्न उठे थे ..........!
और उन्होंने अपनें सेनापति को भीतर महल में बुलाया ............!
मैं अवध नरेश तुम को अपनी आज्ञा के बन्धन से मुक्त करता हूँ .......!
तुम को जो उचित लगे वही करो ।
पर सेनापति !
मेरा भरत निर्दोष है उसको कोई हानि नही होनी चाहिये ।
महाराज के वचनों को सुनकर सेनापति नें सिर झुकाया था ।
माँ !
उठो माँ !
कैकेई को सम्भाल रहे हैं.....!
मेरे श्रीराम ।
माँ !
ऐसा कुछ नही होगा ..............!
मै कहता हूँ .....।
ये हमारे सेनापति हैं ......!
अवध के सेनापति हैं ......!
ये जो भी कह रहे हैं मेरे प्रेम के कारण कह रहे हैं.........!
पर इनके मन में अपनें राष्ट्र के प्रति पूरी निष्ठा है ।...... !
कैकेई को सम्भाल रहे हैं.....!
श्रीराम ।
इस दृश्य को देखते ही....!
महाराज दशरथ जी फिर धम्म् से बैठ गए थे ।
माँ !
भरत ही राजा बनेगा ..........!
ये सेनापति मेरी बात का आदर करते हैं ..............!
ये सेनापति धर्मनिष्ठ हैं माँ !
राज भक्त हैं ..........!
ये ऐसा कोई भी कदम नही उठायेगें जिससे अवध राज्य को कोई हानि हो ।
माँ !
आप इन सेनापति को क्षमा कर देना ........!
मैं इनकी ओर से क्षमा माँगता हूँ आपसे ...........।
उफ़ !
किस मिट्टी के बने हो राम !
मेरे श्रीराम का कैकेई के प्रति इस व्यवहार को देखकर सब यही कह रहे थे ।
सेनापति नें अपना खड्ग म्यान में रख लिया .......!
अपनें अश्रु पोंछें ।
आप कितनें महान हो राम !
ये कहते हुए चरणों में गिर गए थे सेनापति ।
माँ !
देखो !
आप उठो .........!
सेनापति मेरी बात को मान गए हैं ....!
और मैं जाते जाते प्रजा को भी समझा दूँगा ......!
प्रधानों से भी बातें कर लूंगा ...........!
ये जो भी कह रहे हैं मेरे प्रेम के कारण ही है ।
कैकेई माता अपलक मेरे श्रीराम को देखे जा रहीं थीं..................!
_*शेष चरिञ अगले भाग में..........*_
_*जनकसुता जग जननि जानकी।*
*अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥*_
_*ताके जुग पद कमल मनावउँ।*
*जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥*_
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏