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जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है..?

जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है..? 


जप के प्रकार और कौन से जप से क्या होता है..?


जप के अनेक प्रकार हैं। 

उन सबको समझ लें तो एक जपयोग में ही सब साधन आ जाते हैं। 

परमार्थ साधन के कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग ये चार बड़े विभाग हैं। जपयोग में इन चारों का अंतर्भाव हो जाता है। 

जप के कुछ मुख्य प्रकार ये हैं- 

1. नित्य जप, 2. नैमित्तिक जप, 3. काम्य जप, 4. निषिद्ध जप, 5. प्रायश्चित जप, 6. अचल जप, 7. चल जप, 8. वाचिक जप, 9. उपांशु जप, 10. भ्रमर जप, 11. मानस जप, 12. अखंड जप, 13. अजपा जप और 14. प्रदक्षिणा जप इत्यादि। 



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1. नित्य जप


प्रात:-सायं गुरु मंत्र का जो नित्य-नियमित जप किया जाता है, वह नित्य जप है। 

यह जप जपयोगी को नित्य ही करना चाहिए। 

आपातकाल में, यात्रा में अथवा बीमारी की अवस्‍था में, जब स्नान भी नहीं कर सकते, तब भी हाथ, पैर और मुंह धोकर कम से कम कुछ जप तो अवश्य कर ही लेना चाहिए, जैसे झाड़ना, बुहारना, बर्तन मलना और कपड़े धोना रोज का ही काम है, वैसे ही नित्य कर्म भी नित्य ही होना चाहिए। 

उससे नित्य दोष दूर होते हैं, जप का अभ्यास बढ़ता है, आनंद बढ़ता जाता है और चित्त शुद्ध होता जाता है और धर्म विचार स्फुरने लगते हैं। 

और जप संख्या ज्यों-ज्यों बढ़ती है, त्यों-त्यों ईश्वरी कृपा अनुभूत होने लगती और अपनी निष्ठा दृढ़ होती जाती है। 




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2. नैमित्तिक जप


किसी निमित्त से जो जप होता है, वह नैमित्तिक जप है। 

देव-पितरों के संबंध में कोई हो, तब यह जप किया जाता है। 

सप्ताह में अपने इष्ट का एक न एक बार होता ही है। 

उस दिन तथा एकादशी, पूर्णिमा, अमावस्या आदि पर्व दिनों में और महाएकादशी, महाशिवरात्रि, श्री रामनवमी, श्री कृष्णाष्टमी, श्री दुर्गानवरात्र, श्री गणेश चतुर्थी, श्री रथ सप्तमी आदि शुभ दिनों में तथा ग्रहणादि पर्वों पर एकांत स्थान में बैठकर अधिक अतिरिक्त जप करना चाहिए। 

इससे पुण्य-संग्रह बढ़ता है और पाप का नाश होकर सत्यगुण की वृद्धि होती है और ज्ञान सुलभ होता है। 

यह जप रात में एकांत में करने से दृष्टांत भी होते हैं। 

'न देवतोषणं व्यर्थम'- देव को प्रसन्न करना कभी व्यर्थ नहीं होता, यही मंत्रशास्त्र का कहना है। 

 

इष्टकाल में इसकी सफलता आप ही होती है। 

पितरों के लिए किया हुआ जप उनके सुख और सद्गति का कारण होता है और उनसे आशीर्वाद मिलते हैं। 

हमारा उनकी कोख से जन्म लेना भी इस प्रकार चरितार्थ हो जाता है। 

जिसको उद्देश्य करके संकल्पपूर्वक जो जप किया जाता है, वह उसी को प्राप्त होता है, यह मंत्रशास्त्र का सिद्धांत है। 

इस प्रकार पुण्य जोड़कर वह पितरों को पहुंचाया जा सकता है। इससे उनके ऋण से मुक्ति मिल सकती है। 

इस लिए कव्य कर्म के प्रसंग में और पितृपक्ष में भी यह जप अवश्य करना चाहिए। गुरु मंत्र से हव्यकर्म भी होता है। 



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3. काम्य जप


किसी कामना की सिद्धि के लिए जो जप किया जाता है, उसे काम्य जप कहते हैं। 

यह काम्य कर्म जैसा है, मोक्ष चाहने वाले के काम का नहीं है। 

आर्त, अर्थार्थी, कामकामी लोगों के लिए उपयोगी है। 

इसके साधन में पवित्रता, नियमों का पूर्ण पालन, सावधानता, जागरूकता, धैर्य, निरलसता, मनोनिग्रह, इन्द्रिय निग्रह, वाक् संयम, मिताहार, मितशयन, ब्रह्मचर्य इन सबका होना अत्यंत ही आवश्यक है। 

योग्य गुरु से योग्य समय में लिया हुआ योग्य मंत्र हो, विधिपूर्वक जप हो, मन की एकाग्रता हो, दक्षिणा दे, भोजन कराएं, हवन करें, इस सांगता के साथ अनुष्ठान हो तो साधक की कामना अवश्य पूर्ण होती है।


इसमें कोई गड़बड़ हो तो मंत्र सिद्ध नहीं हो सकता। 

काम्य जप करने के अनेक मंत्र हैं। 

जप से पुण्य संग्रह तो होता है, पर भोग से उसका क्षय भी होता है। 

इस लिए प्राज्ञ पुरुष इसे अच्‍छा नहीं समझते। परंतु सभी साधक समान नहीं होते। 

कुछ ऐसे भी कनिष्ठ साधक होते ही हैं, जो शुद्ध मोक्ष के अतिरिक्त अन्य धर्माविरुद्ध कामनाएं भी पूरी करना चाहते हैं। 

क्षुद्र देवताओं और क्षुद्र साधनों के पीछे पड़कर अपनी भयंकर हानि कर लेने की अपेक्षा वे अपने इष्ट मंत्र का काम्य जप करके चित्त को शांत करें और परमार्थ प्रवण हों, यह अधिक अच्छा है। 




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4. निषिद्ध जप


मनमाने ढंग से अविधिपूर्वक अनियम जप जपने को निषिद्ध जप कहते हैं। 

निषिद्ध कर्म की तरह यह बहुत बुरा है। 

मंत्र का शुद्ध न होना, अपवित्र मनुष्य से मंत्र लेना, देवता कोई और मंत्र कोई और ही, अनेक मंत्रों को एकसाथ अविधिपूर्वक जपना, मंत्र का अर्थ और विधि न जानना, श्रद्धा का न होना, देवताराधन के बिना ही जप करना, किसी प्रकार का भी संयम न रखना- ये सब निषिद्ध जप के लक्षण हैं। 

ऐसा निषिद्ध जप कोई न करे, उससे लाभ होने के बदले प्राय: हानि ही हुआ करती है। 




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5. प्रायश्चित जप


अपने हाथ से अनजान से कोई दोष या प्रमाद हो जाए तो उस दुरित-नाश के लिए जो जप किया जाता है, वह प्रायश्चित जप है। 

प्रायश्चित कर्म के सदृश है और आवश्यक है। 

मनुष्य के मन की सहज गति अधोगति की ओर है और इससे उसके हाथों अनेक प्रमाद हो सकते हैं। 

यदि इन दोषों का परिमार्जन न हो तो अशुभ कर्मों का संचित निर्माण होकर मनुष्य को अनेक दु:ख भोगने पड़ते हैं और उर्वरित संचित प्रारब्ध बनकर भावी दु:खों की सृष्टि करता है। 

पापों के नाश के लिए शास्त्र में जो उपाय बताए गए हैं, उनको करना इस समय इतना कठिन हो गया है कि प्राय: असंभव ही कह सकते हैं। 

इस लिए ऐसे जो कोई हों, वे यदि संकल्पपूर्वक यह जप करें तो विमलात्मा बन सकते हैं।


मनुष्य से नित्य ही अनेक प्रकार के दोष हो जाते हैं। यह मानव स्वभाव है। 

इस लिए नित्य ही उन दोषों को नष्ट करना मनुष्य का कर्तव्य ही है। 

नित्य जप के साथ यह जप भी हुआ करे। 

अल्पदोष के लिए अल्प और अधिक दोष के लिए अधिक जप करना चाहिए। 

नित्य का नियम करके चलाना कठिन मालूम हो तो सप्ताह में एक ही दिन सही, यह काम करना चाहिए। 

प्रात:काल में पहले गो‍मूत्र प्राशन करें, तब गंगाजी में या जो तीर्थ प्राप्त हो उसमें स्नान करें। 

यह भी न हो तो 'गंगा गंगेति' मंत्र कहते हुए स्नान करें और भस्म-चंदनादि लगाकर देव, गुरु, द्विज आदि के दर्शन करें। 

अश्वत्थ, गौ आदि की परिक्रमा करें। 

केवल तुलसी दल-तीर्थ पान करके उपवास करें और मन को एकाग्र करके संकल्पपूर्वक अपने मंत्र का जप करें। इससे पवित्रता बढ़ेगी और मन आनंद से झूमने लगेगा। 

जब ऐसा हो, तब समझें कि अब सब पाप भस्म हो गए। दोष के हिसाब से जप संख्या निश्चित करें और वह संख्‍या पूरी करें।




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6. अचल जप


यह जप करने के लिए आसन, गोमुखी आदि साहित्य और व्यावहारिक और मानसिक स्वास्थ्य होना चाहिए। 

इस जप से अपने अंदर जो गुप्त शक्तियां हैं, वे जागकर विकसित होती हैं और परोपकार में उनका उपयोग करते बनता है। 

इसमें इच्छाशक्ति के साथ-साथ पुण्य संग्रह बढ़ता जाता है। 

इस जप के लिए व्याघ्राम्बर अथवा मृगाजिन, माला और गोमुखी होनी चाहिए। 

स्नानादि करके आसन पर बैठे, देश-काल का स्मरण करके दिग्बंध करें और तब जप आरंभ करें।


अमुक मंत्र का अमुक संख्या जप होना चाहिए और नित्य इतना होना चाहिए, इस प्रकार का नियम इस विषय में रहता है, सो समझ लेना चाहिए और नित्य उतना जप एकाग्रतापूर्वक करना चाहिए। 

जप निश्चित संख्‍या से कभी कम न हो। 

जप करते हुए बीच में ही आसन पर से उठना या किसी से बात करना ठीक नहीं, उतने समय तक चित्त की और शरीर की स्थिरता और मौन साधे रहना चाहिए। 

इस प्रकार नित्य करके जप की पूर्ण संख्या पूरी करनी चाहिए। 

यह चर्या बीच में कहीं खंडित न हो इसके लिए स्वास्थ्य होना चाहिए इसलिए आहार - विहार संयमित हों। 

एक स्‍थान पर बैठ निश्चित समय में निश्चित जप संख्‍या एकाग्र होकर पूरी करके देवता को वश करना ही इस जप का मुख्य लक्षण है। 

इस काम में विघ्न तो होते ही हैं, पर धैर्य से उन्हें पार कर जाना चाहिए। 

इस जप से अपार आध्यात्मिक शक्ति संचित होती है। 

भस्म, जल अभिमंत्रित कर देने से वह उपकारी होता है, यह बात अनुभवसिद्ध है। 




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7. चल जप


यह जप नाम स्मरण जैसा है। 

प्रसिद्ध वामन प‍ंडित के कथनानुसार 'आते - जाते, उठते - बैठते, करते - धरते, देते - लेते, मुख से अन्न खाते, सोते - जागते, रतिसुख भोगते, सदा सर्वदा लोकलाज छोड़कर भगच्चिंतन करने' की जो विधि है, वही इस जप की है। 

अंतर यही कि भगवन्नाम के स्थान में अपने मंत्र का जप करना है। 

यह जप कोई भी कर सकता है। 

इसमें कोई बंधन, नियम या प्रतिबंध नहीं है। 

अन्य जप करने वाले भी इसे कर सकते हैं। इससे वाचा शुद्ध होती है और वाक् - शक्ति प्राप्त होती है। 

पर इस जप को करने वाला कभी मिथ्या भाषण न करे; निंदा, कठोर भाषण, जली - कटी सुनाना, अधिक बोलना, इन दोषों से बराबर बचता रहे। 

इससे बड़ी शक्ति संचित होती है। 

इस जप से समय सार्थक होता है, मन प्रसन्न रहता है, संकट, कष्ट, दु:ख, आघात, उत्पात, अपघात आदि का मन पर कोई असर नहीं होता।


जप करने वाला सदा सुरक्षित रहता है। 

सुखपूर्वक संसार - यात्रा पूरी करके अनायास परमार्थ को प्राप्त होता है। 

उसकी उत्तम गति होती है, उसके सब कर्म यज्ञमय होते हैं और इस कारण वह कर्मबंध से छूट जाता है। 

मन निर्विषय हो जाता है। 

ईश - सान्निध्य बढ़ता है और साधक निर्भय होता है। 

उसका योग - क्षेम भगवान वहन करते हैं। 

वह मन से ईश्वर के समीप और तन से संसार में रहता है। 

इस जप के लिए यों तो माला की कोई आवश्यकता नहीं है, पर कुछ लोग छोटी - सी 'सुमरिनी' रखते हैं इस लिए कि कहीं विस्मरण होने का - सा मौका आ जाए तो वहां यह सु‍मरिनी विस्मरण न होने देगी। 

सुमरिनी छोटी होनी चाहिए, वस्त्र में छिपी रहनी चाहिए, किसी को दिखाई न दे। 

सुमिरन करते हुए होंठ भी न हिेलें। 

सब काम चुपचाप होना चाहिए, किसी को कुछ मालूम न हो। 




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8. वा‍चिक जप


जिस जप का इतने जोर से उच्चारण होता है कि दूसरे भी सुन सकें, उसे वाचिक जप कहते हैं। 

बहुतों के विचार में यह जप निम्न कोटि का है और इससे कुछ लाभ नहीं है। 

परंतु विचार और अनुभव से यह कहा जा सकता है कि यह जप भी अच्‍छा है। 

विधि यज्ञ की अपेक्षा वाचिक जप दस गुना श्रेष्ठ है, यह स्वयं मनु महाराज ने ही कहा है। 

जपयोगी के लिए पहले यह जप सुगम होता है। 

आगे के जप क्रमसाध्य और अभ्याससाध्य हैं। 

इस जप से कुछ यौगिक लाभ होते हैं।


सूक्ष्म शरीर में जो षट्चक्र हैं उनमें कुछ वर्णबीज होते हैं। 

महत्वपूर्ण मंत्रों में उनका विनियोग रहता है। 

इस विषय को विद्वान और अनुभवी जपयोगियों से जानकर भावनापूर्वक जप करने से वर्णबीज शक्तियां जाग उठती हैं। 

इस जप से वाक् - सिद्धि तो होती ही है, उसके शब्दों का बड़ा महत्व होता है। 

वे शब्द कभी व्यर्थ नहीं होते। 

अन्य लोग उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। 

जितना जप हुआ रहता है, उसी हिसाब से यह अनुभव भी प्राप्त होता है। 

एक वाक् - शक्ति भी सिद्ध हो जाए तो उससे संसार के बड़े - बड़े काम हो सकते हैं। 

कारण, संसार के बहुत से काम वाणी से ही होते हैं। 

वाक् - शक्ति संसार की समूची शक्ति का तीसरा हिस्सा है। 

यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों के लिए उपयोगी है। 




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9. उपांशु जप


वाचिक जप के बाद का यह जप है। 

इस जप में होंठ हिलते हैं और मुंह में ही उच्चारण होता है, स्वयं ही सुन सकते हैं, बाहर और किसी को सुनाई नहीं देता। 

विधियज्ञ की अपेक्षा मनु महाराज कहते हैं कि यह जप सौ गुना श्रेष्ठ है। 

इससे मन को मूर्च्छना होने लगती है, एकाग्रता आरंभ होती है, वृत्तियां अंतर्मुख होने लगती हैं और वाचिक जप के जो - जो लाभ होते हैं, वे सब इसमें होते हैं। 

इससे अपने अंग - प्रत्यंग में उष्णता बढ़ती हुई प्रतीत होती है। 

यही तप का तेज है। 

इस जप में दृष्टि अर्धोन्मीलित रहती है। 

एक नशा - सा आता है और मनोवृत्तियां कुंठित - सी होती हैं, यही मूर्च्छना है। 

इसके द्वारा साधक क्रमश: स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करता है। 

वाणी के सहज गुण प्रकट होते हैं। 

मंत्र का प्रत्येक उच्चार मस्तक पर कुछ असर करता - सा मालूम होता है- 

भालप्रदेश और ललाट में वेदनाएं अनुभूत होती हैं। 

अभ्यास से पीछे स्थिरता आ जाती है। 




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10. भ्रमर जप


भ्रमर के गुंजार की तरह गुनगुनाते हुए जो जप होता है, वह भ्रमर जप कहाता है। 

किसी को यह जप करते, देखते - सुनने से इसका अभ्यास जल्दी हो जाता है। 

इसमें होंठ नहीं हिलते, जीभ हिलाने का भी कोई विशेष कारण नहीं। 

आंखें झपी रखनी पड़ती हैं। 

भ्रूमध्य की ओर यह गुंजार होता हुआ अनुभूत होता है। 

यह जप बड़े ही महत्व का है। 

इसमें प्राण सूक्ष्म होता जाता है और स्वाभाविक कुम्भक होने लगता है। 

प्राणगति धीर - धीमी होती है, पूरक जल्दी होता है और रेचक धीरे - धीरे होने लगता है। 

पूरक करने पर गुंजार व आरंभ होता है और अभ्यास से एक ही पूरक में अनेक बार मंत्रावृत्ति हो जाती है। 


इसमें मंत्रोच्चार नहीं करना पड़ता। 

वंशी के बजने के समान प्राणवायु की सहायता से ध्यानपूर्वक मंत्रावृत्ति करनी होती है। 

इस जप को करते हुए प्राणवायु से ह्रस्व - दीर्घ कंपन हुआ करते हैं और आधार चक्र से लेकर आज्ञा चक्र तक उनका कार्य अल्पाधिक रूप से क्रमश: होने लगता है। 

ये सब चक्र इससे जाग उठते हैं। 

शरीर पुलकित होता है। 

नाभि, हृदय, कंठ, तालु और भ्रूमध्य में उत्तरोत्तर अधिकाधिक कार्य होने लगता है। 

सबसे अधिक परिणाम भ्रूमध्यभाग में होता है। 

वहां के चक्र के भेदन में इससे बड़ी सहायता मिलती है। 

मस्तिष्क में भारीपन नहीं रहता। 

उसकी सब शक्तियां जाग उठती हैं। 

स्मरण शक्ति बढ़ती है। 

प्राक्तन स्मृति जागती है। 

मस्तक, भालप्रदेश और ललाट में उष्णता बहुत बढ़ती है। 

तेजस परमाणु अधिक तेजस्वी होते हैं और साधक को आंतरिक प्रकाश मिलता है। 

बुद्धि का बल बढ़ता है। 

मनोवृत्तियां मूर्च्छित हो जाती हैं। 

नागस्वर बजाने से सांप की जो हालत होती है, वही इस गुंजार से मनोवृत्तियों की होती है। 

उस नाद में मन स्वभाव से ही लीन हो जाता है और तब नादानुसंधान का जो बड़ा काम है, वह सुलभ हो जाता है। 


'योगतारावली' में भगवान श्री शंकराचार्य कहते हैं कि भगवान श्री शंकर ने मनोलय के सवा लाख उपाय बताए। 

उनमें नादानुसंधान को सबसे श्रेष्ठ बताया। 

उस अनाहत संगीत को श्रवण करने का प्रयत्न करने से पूर्व भ्रमर-जप सध जाए तो आगे का मार्ग बहुत ही सुगम हो जाता है। 

चित्त को तुरंत एकाग्र करने का इससे श्रेष्ठ उपाय और कोई नहीं है। 

इस जप से साधक को आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होती है और उसके द्वारा वह स्वप‍रहित साधन कर सकता है। 

यह जप प्रपंच और परमार्थ दोनों में काम देता है। 

शांत समय में यह जप करना चाहिए। 

इस जप से यौगिक तन्द्रा बढ़ती जाती है और फिर उससे योगनिद्रा आती है। 

इस जप के सिद्ध होने से आंतरिक तेज बहुत बढ़ जाता है और दिव्य दर्शन होने लगते हैं, दिव्य जगत प्रत्यक्ष होने लगता है, इष्टदर्शन होते हैं, दृष्टांत होते हैं और तप का तेज प्राप्त होता है। 

कवि कुलतिलक कालिदास ने जो कहा है- 


शमप्रधानेषु तपोधनेषु

गूढं हि दहात्मकमस्ति तेज:।


बहुत ही ठीक है- 'शमप्रधान त‍पस्वियों में ( शत्रुओं को ) जलाने वाला तेज छिपा हुआ रहता है।' 




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11. मानस जप 


यह तो जप का प्राण ही है। 

इससे साधक का मन आनंदमय हो जाता है। 

इसमें मंत्र का उच्चार नहीं करना होता है। मन से ही मंत्रावृत्ति करनी होती है। 

नेत्र बंद रहते हैं। 

मंत्रार्थ का चिंतन ही इसमें मुख्‍य है। 

श्री  पंडारामा महाराज ने कहा है कि विधियज्ञ की अपेक्षा यह जप हजार गुना श्रेष्ठ है। 

भिन्न मंत्रों के भिन्न-भिन्न अक्षरार्थ और कूटार्थ होते हैं। 

उन्हें जानने से इष्टदेव के स्वरूप का बोध होता है। 

पहले इष्टदेव का सगुण ध्यान करके यह जप किया जाता है, पीछे निर्गुण स्वरूप का ज्ञान होता है। 

और तब उसका ध्यान करके जप किया जाता है। 

नादानुसंधान के साथ - साथ यह जप करने से बहुत अधिक उपायकारी होता है। 

केवल नादानुसंधान या केवल जप की अपेक्षा दोनों का योग अधिक अच्‍छा है। 

श्रीमदाद्य शंकराचार्य नादानुसंधान की महिमा कथन करते हुए कहते हैं- 

'एकाग्र मन से स्वरूप चिंतन करते हुए दाहिने कान से अनाहत ध्वनि सुनाई देती है। 

भेरी, मृदंग, शंख आदि आहत नाद में ही जब मन रमता है तब अनाहत मधुर नाद की महिमा क्या बखानी जाए? 

चित्त जैसे - जैसे विषयों से उपराम होगा, वैसे - वैसे यह अनाहत नाद अधिकाधिक सुनाई देगा। 

नादाभ्यंतर ज्योति में जहां मन लीन हुआ, तहां फिर इस संसार में नहीं आना होता है अर्थात मोक्ष होता है।'


( प्रबोधसुधाकर 144 - 148 ) 'योगतारावली' में श्रीमदाद्य शंकराचार्य ने इसका वर्णन किया है। 

श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने 'ज्ञानेश्वरी' में इस साधन की बात कही है। 

अनेक संत - महात्मा इस साधन के द्वारा परम पद को प्राप्त हो गए। यह ऐसा साधन है कि अल्पायास से निजानंद प्राप्त होता है। 

नाद में बड़ी विचित्र शक्ति है। 

बाहर का सुमधुर संगीत सुनने से जो आनंद होता है, उसका अनुभव तो सभी को है, पर भीतर के इस संगीत का माधुर्य और आनंद ऐसा है कि तुरंत मनोलय होकर प्राणजय और वासनाक्षय होता है। 


इन्द्रियाणां मनो नाथो मनोनाथस्तु मारुत:।

मारुतस्य लयो नाथ: स लयो नादमाश्रित:।।


(ह.प्र.) 


'श्रोत्रादि इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी प्राणवायु है। 

प्राणवायु का स्वामी मनोलय है और मनोलय नाद के आसरे होता है।' 


सतत नादानुसंधान करने से मनोलय बन पड़ता है। 

आसन पर बैठकर, श्वासोच्छवास की क्रिया सावकाश करते हुए, अपने कान बंद करके अंतरदृष्टि करने से नाद सुनाई देता है। 

अभ्यास से बड़े नाद सुनाई देते हैं और उनमें मन रमता है। 

मंत्रार्थ का चिंतन, नाद का श्रवण और प्रकाश का अनुसंधान- 

ये तीन बातें साधनी पड़ती हैं। 

इस साधन के सिद्ध होने पर मन स्वरूप में लीन होता है, तब प्राण, नाद और प्रकाश भी लीन हो जाते हैं और अपार आनंद प्राप्त होता है। 


12. अखंड जप 


यह जप खासकर त्यागी पुरुषों के लिए है। 

शरीर यात्रा के लिए आवश्यक आहारादि का समय छोड़कर बाकी समय जपमय करना पड़ता है। 

कितना भी हो तो क्या, सतत जप से मन उचट ही जाता है, इसलिए इसमें यह विधि है कि जप से जब चित्त उचटे, तब थोड़ा समय ध्यान में लगाएं, फिर तत्वचिंतन करें और फिर जप करें। 

कहा है- 


जपाच्छ्रान्त: पुनर्ध्यायेद् ध्यानाच्छ्रान्त: पुनर्जपेत्।

जपध्यानपरिश्रान्त: आत्मानं च विचारयेत्।।


'जप करते - करते जब थक जाएं, तब ध्यान करें। 

ध्यान करते - करते थकें, तब फिर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें, तब आत्मतत्व का विचार करें।'


'तज्जपस्तदर्थभावनम्' इस योगसूत्र के अनुसार मंत्रार्थ का विचार करके उस भावना के साथ मंत्रावृत्ति करें। 

तब जप बंद करके स्वरूपवाचक 'अजो नित्य:' इत्यादि शब्दों का विचार करते हुए स्वरूप ध्यान करें। 

तब ध्यान बंद करके तत्वचिंतन करें। 

आत्मविचार में ज्ञानविषयक ग्रंथावलोकन भी आ ही जाता है। 

उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, शांकरभाष्य, श्रीमदाचार्य के स्वतंत्र ग्रंथ, अद्वैतसिद्धि, स्वाराज्यसिद्धि, नैष्कर्म्यसिद्धि, खंडन - खंडखाद्य, अष्टावक्र गीता, अवधूत गीता, योवासिष्ट आदि ग्रंथों का अवलोकन अवश्य करें। 

जो संस्कृत नहीं जानते, वे भाषा में ही इनके अनुवाद पढ़ें अथवा अपनी भाषा में संत - महात्माओं के जो तात्विक ग्रंथ हों, उन्हें देखें। 

आत्मानंद के साधनस्वरूप जो दो संपत्तियां हैं, उनके विषय में कहा गया है- 


अत्यन्ताभावसम्पत्तौ ज्ञातुर्ज्ञेयस्य वस्तुन:।

युक्तया शास्त्रैर्यतन्ते ये ते तन्त्राभ्यासिन: स्थिता:।।


(यो.वा.) 


'ज्ञाता और ज्ञेय दोनों मिथ्‍या हैं। 

ऐसी स्थिर बुद्धि का स्थिर होना अभाव संपत्ति कहाता है और ज्ञाता और ज्ञेय रूप से भी उनकी प्रतीति का न होना अत्यंत अभाव संपत्ति कहाता है। 

इस प्रकार की संपत्ति के लिए जो लोग युक्ति और शास्त्र के द्वारा यत्नवान होते हैं, वे ही मनोनाश आदि के सच्चे अभ्यासी होते हैं।'


ये अभ्यास तीन प्रकार के होते हैं- 

ब्रह्माभ्यास, बोधाभ्यास और ज्ञानाभ्यास।


दृश्यासम्भवबोधेन रागद्वेषादि तानवे।

रतिर्नवोदिता यासौ ब्रह्माभ्यास: स उच्यते।।


(यो.वा.) 


दृश्य पदार्थों के असंभव होने के बोध से रागद्वेष क्षीण होते हैं, तब जो नवीन रति होती है, उसे ब्रह्माभ्यास कहते हैं। 


सर्गादावेव नोत्पन्नं दृश्यं नास्त्येव तत्सदा।

इदं जगदहं चेति बोधाभ्यासं विदु: परम्।।


(यो.वा.)


सृष्टि के आदि में यह जगत उत्पन्न ही नहीं हुआ। 

इस लिए वह यह जगत और अहं (मैं) हैं ही नहीं, ऐसा जो बोध होता है, उसे ज्ञाता लोग बोधाभ्यास कहते हैं। 


तच्चिन्तनं तत्कथनमन्योन्यं तत्वबोधनम्।

एतदेकपरत्वं च ज्ञानाभ्यासं विदुर्बुधा:।।


(यो.वा.) 


उसी तत्व का चिंतन करना, उसी का कथन करना, परस्पर उसी का बोध करना और उसी के परायण होकर रहना, इसको बुधजन ज्ञानाभ्यास के नाम से जानते हैं।


अभ्यास अर्थात आत्मचिंतन का यह सामान्य स्वरूप है। 

ये तीनों उपाय अर्थात जप, ध्यान और तत्वचिंतन सतत करना ही अखंड जप है। 

सतत 12 वर्षपर्यंत ऐसा जप हो, तब उसे तप कहते हैं। इससे महासिद्धि प्राप्त होती है। 

गोस्वामी तुलसीदास, समर्थ गुरु रामदास आदि अनेक संतों ने ऐसा तप किया था। 


13. अजपा जप 


यह सहज जप है और सावधान रहने वाले से ही बनता है। 

किसी भी तरह से यह जप किया जा सकता है। 

अनुभवी महात्माओं में यह जप देखने में आता है। 

इसके लिए माला का कुछ काम नहीं। 

श्वाछोच्छवास की क्रिया बराबर हो ही रही है, उसी के साथ मंत्रावृत्ति की जा सकती है। 

अभ्यास से मंत्रार्थ भावना दृढ़ हुई रहती है, सो उसका स्मरण होता है। 

इसी रीति से सहस्रों संख्‍या में जप होता रहता है। 

इस विषय में एक महात्मा कहते हैं- 


राम हमारा जप करे, हम बैठे आराम। 


14. प्रदक्षिणा जप


इस जप में हाथ में रुद्राक्ष या तुलसी की माला लेकर वट, औदुम्बर या पीपल - वृक्ष की अथवा ज्योतिर्लिंगादि के मंदिर की या किसी सिद्धपुरुष की, मन में ब्रह्म भावना करके, मंत्र कहते हुए परिक्रमा करनी होती है। इससे भी सिद्धि प्राप्त होती है- 

मनोरथ पूर्ण होता है। 


यहां तक मंत्र जप के कुछ प्रकार, विस्तार भय से संक्षेप में ही निवेदन किए। 

अब यह देखें कि जपयोग कैसा है- 

योग से इसका कैसा साम्य है। 

योग के यम - नियमादि 8 अंग होते हैं। 

ये आठों अंग जप में आ जाते हैं। 


(1) यम👉 यह बाह्येन्द्रियों का निग्रह अर्थात 'दम' है। 

आसन पर बैठना, दृष्टि को स्थिर करना यह सब यम ही है। 


(2) नियम👉 यह अंतरिन्द्रियों का निग्रह अर्थात् 'शम्' है। 

मन को एकाग्र करना इत्यादि से इसका साधन इसमें होता है। 


(3) स्थिरता👉 से सुखपूर्वक विशिष्ट रीति से बैठने को आसन कहते हैं। 

जप में पद्मासन आदि लगाना ही पड़ता है।


(4) प्राणायाम👉 विशिष्ट रीति से श्वासोच्छवास की क्रिया करना प्राणायाम है। 

जप में यह करना ही पड़ता है। 


(5) प्रत्याहार👉 शब्दादि विषयों की ओर मन जाता है, वहां से उसे लौटकर अंतरमुख करना प्रत्याहार है, सो इसमें करना पड़ता है। 


(6) धारणा👉 एक ही स्थान में दृष्टि को स्थिर करना जप में आवश्यक है। 


(7) ध्यान👉 ध्येय पर चित्त की एकाग्रता जप में होनी ही चाहिए। 


(8) समाधि👉 ध्येय के साथ तदाकारता जप में आवश्यक ही है। 

तात्पर्य, अष्टांग योग जप में आ जाता है, इसी लिए इसे जपयोग कहते हैं। 

कर्म, उपासना, ज्ञान और योग के मुख्य - मुख्य अंग जपयोग में हैं इस लिए यह मुख्य साधन है। 

यह योग सदा सर्वदा सर्वत्र सबके लिए है। 

इस समय तो इससे बढ़कर कोई साधन ही नहीं। पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

पाप-पुण्य के बुरे और अच्छे फल , श्री लिंग महापुराण , मैं तो स्वयं शिव हूँ

पाप - पुण्य के बुरे और अच्छे फल , श्री लिंग महापुराण , मैं तो स्वयं शिव हूँ 


पाप - पुण्य के बुरे और अच्छे फल भुगतने की धारणा क्यों ?


शास्त्र में कहा है-

'पापकर्मेति दशधा।' 

अर्थात् पाप कर्म दस प्रकार के होते हैं। 

हिंसा ( हत्या ) , स्तेय ( चोरी ) , व्यभिचार - ये शरीर से किए जाने वाले पाप हैं। 

झूठ बोलना ( अनृत ) , कठोर वचन कहना ( परुष ) और चुगली करना - ये वाणी के पाप हैं। 

परपीड़न और हिंसा आदि का संकल्प करना, दूसरों के गुणों में भी अवगुणों को देखना और निर्दोष जनों के प्रति दुर्भावनापूर्ण दृष्टि ( कुदृष्टि ) रखना, ये मानस पापकर्म कहलाते हैं। 

इन कर्मों को करने से अपने को और दूसरे को कष्ट ही होता है। 

अतः ये कर्म हर हालत में दुखदायी ही हैं।




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स्कंदपुराण में कहा गया है कि


अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । 

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥ -स्कंदपुराण केदारखंड ।


अर्थात अठारह पुराणों में व्यासजी की दो ही बातें प्रधान हैं-परोपकार पुण्य है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना पाप है। 

यही पुराणों का सार है। 

प्रत्येक व्यक्ति को इसका मर्म समझकर आचरण करना चाहिए। 

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। 

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। 

कहकर तुलसीदास ने इसी तथ्य को सरलता से समझाया है।


मार्कण्डेयपुराण ( कर्मफल ) 14/25 में कहा गया है कि पैर में कांटा लगने पर तो एक जगह पीड़ा होती है, पर पाप - कर्मों के फल से तो शरीर और मन में निरंतर शूल उत्पन्न होते रहते हैं।




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पाराशरस्मृति में कहा गया है कि पाप कर्म बन पड़ने पर छिपाना नहीं चाहिए। 

छिपाने से वह बहुत बढ़ता है। 

यहां तक कि मनुष्य सात जन्मों तक कोढ़ी, दुखी, नपुंसक होता है पाप छोटा हो या बड़ा, उसे किसी धर्मज्ञ से प्रकट अवश्य कर देना चाहिए। 

इस प्रकार उसे प्रकट कर देने से पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे चिकित्सा करा लेने पर रोग नष्ट हो जाते हैं।


महाभारत वनपर्व 207 / 51 में कहा गया है कि जो मनुष्य पाप कर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा 'फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर वह भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है।




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शिवपुराण 1/3/5 में कहा गया है कि पश्चाताप ही पापों की परम निष्कृति है। 

विद्वानों ने पश्चाताप से सब प्रकार के पापों की शुद्धि होना बताया है। 

पश्चाताप करने से जिसके पापों का शोधन न हो, उसके लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए।


पापों का प्रायश्चित्त न करने वाले मनुष्य नरक तो जाते ही हैं, अगले जन्मों में उनके शरीरों में उन पापों के लक्षण आदि भी प्रकट होते हैं। 

अतः पाप का निवारण करने को प्रायश्चित्त अवश्य कर लेना चाहिए। 

स्वर्ग के द्वार पर भीड़ लगी थी। 

धर्मराज को छंटनी करनी थी कि किसे प्रवेश दें और किसे न दें। 

परीक्षा के लिए उन्होंने सभी को दो कागज दिए और एक में अपने पाप और दूसरे में पुण्य लिखने को कहा। 

अधिकांश लोगों ने अपने पुण्य तो बढ़ा - चढ़ा कर लिखे, पर पाप छिपा लिए। 

कुछ आत्माएं ऐसी थीं, जिन्होंने अपने पापों को विस्तार से लिखा और प्रायश्चित्त पूछा । 

धर्मराज ने अंतःकरणों की क्षुद्रता और महानता जांची और पाप लिखने वालों को स्वर्ग में प्रवेश दे दिया।


पुण्य के अच्छे फल की मान्यता क्यों ?


जिन कर्मों से व्यक्ति और समाज की उन्नति होती है, उन्हें पुण्य कर्म कहते हैं। 

सभी शास्त्रों और गोस्वामी तुलसीदास ने परोपकार को सबसे बड़े धर्म के रूप में माना है-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। 

अर्थात् परोपकार के समान महान् धर्म कोई अन्य नहीं है।


द्रौपदी जमुना में स्नान कर रही थी। उसने एक साधु को स्नान करते देखा। 

हवा में उसकी पुरानी लंगोटी उड़कर पानी में बह गई। 

ऐसे में वह बाहर निकलकर घर कैसे जाए, सो झाड़ी में छिप गया। 

द्रौपदी स्थिति को समझ गई और उसने झाड़ी के पास जाकर अपनी साड़ी का एक तिहाई टुकड़ा फाड़कर लंगोट बनाने के लिए साधु को दे दिया। 

साधु ने कृतज्ञतापूर्वक अनुदान स्वीकार किया। 

दुर्योधन की सभा में जब द्रौपदी की लाज उतारी जा रही थी। 

तब उसने भगवान् को पुकारा। 

भगवान् ने देखा कि द्रौपदी के हिस्से में एक पुण्य जमा है। 

साधु की लंगोटी वाला कपड़ा व्याज समेत अनेक गुना हो गया है भगवान् ने उसी को द्रौपदी तक पहुंचाकर उसकी लाज बचाई।


🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷


आदित्य वंश वर्णन में तण्डिकृत शिव सहस्त्रनाम...( भाग 1 )


ऋषि बोले- 

हे सूतजी ! 

आदित्य वंश का और सोम वंश का हमारे प्रति वर्णन कीजिये ।




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सूतजी बोले- 

अदिति ने कश्यप ऋषि के द्वारा आदित्य नामक पुत्र को उत्पन्न किया। 

आदित्य की चार पत्नी हुईं। 

वे संज्ञा, राज्ञी, प्रभा, छाया नाम वाली थीं। 

संज्ञा ने सूर्य के द्वारा मनु को उत्पन्न किया, राज्ञी ने यम यमुना और रैवत को पैदा किया। 

प्रभा ने आदित्य के द्वारा प्रभात को पैदा किया। 

छाया ने सूर्य से, सावर्णि, शनि, तपती तथा वृष्टि को पैदा किया। 

छाया अपने पुत्र से भी ज्यादा यम को प्रेम करती थी। 

मनु ने सहसका और क्रोध में आकर दाहिने पैर से उसे मारा। 

तब छाया अधिक दुखी हुई और यम का एक पैर खराब हो गया जिसमें राध रुधिर और कीड़ा पड़ गए। 

तब उसने गोकर्ण में जाकर हजारों वर्ष शिव की आराधना की। 

शिव के प्रसाद से उसे पितृ लोक का आधिपत्य मिला और शाप से छूट गया।


प्रथम मनु से नौ पुत्र पैदा हुए। 

ये इक्ष्वाकु, नभग, धृष्णु, शर्याति, नारिश्यन्त, नाभाग, अरिष्ट, करुष, पृषध थे। 

इला, जेष्ठा, वरिष्ठा ये पुरुषत्व को प्राप्त हुईं। 

ये मनु की पुत्री थीं। इला का नाम सुद्युम्न हुआ। 

मनु यह सुद्युम्न नाम का पुत्र सोम वंश की वृद्धि करने वाला हुआ। 

उत्कल, गय, विनितास्व नामक इसके पुत्र उत्पन्न हुए।


हरीश्व से दृशदवती में बसुमना नाम का पुत्र हुआ। 

उसका पुत्र त्रिधन्वा नाम का हुआ। ब्रह्मा पुत्र तण्डि के द्वारा वह शिष्यता को प्राप्त हुआ। 

ब्रह्म पुत्र तडित ने शिव सहस्त्रनाम के द्वारा गाणपत्य पदवी को प्राप्त किया। 

ऋषि बोले- 

हे सूतजी ! 

शिवजी के सहस्त्रनाम को हमारे प्रति वर्णन करो। 

जिसके द्वारा तण्डि गाणपत्य पद को प्राप्त हुआ।





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सूतजी बोले- 

हे ब्राह्मणो ! 

वह १०८ नाम से अधिक एक हजार ( ११०८ ) नाम वाला वह स्तोत्र मैं तुम्हें कहता हूँ सो सुनो। 

तब सूतजी ने शिव के स्थिर, स्थाणु, प्रभु, भानु, प्रवर, वरद, सर्वात्मा, सर्व विख्यात, सहस्त्राक्ष, विशालाक्ष, सोम, नक्षत्र, साधक, चन्द्र, शनि, केतु, ग्रह इत्यादि ११०८ नाम वाला महा पुण्यकारक स्तोत्र सुनाया। 

जिसको पढ़ने तथा ब्राह्मणों को सुनाने से हजार अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। 

ब्रह्महत्या, शराब पीने वाला, चोर, गुरु की शैय्या पर शमन करने वाला, शरणागतघाती, मित्र विश्वास घातक, मातृ हत्यारा, वीर हत्यारा, भ्रूण हत्यारा आदि घोर पापी भी इसका शंकर के आश्रय में रहकर तीनों कालों में एक वर्ष तक लगातार जप करने पर सब पापों से छूट जाता है।


क्रमशः शेष अगले अंक में...


मैं तो स्वयं शिव हूँ


एक था भिखारी! रेल सफर में भीख माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे। 

उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत अमीर लगता है, इससे भीख माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा। वह उस सेठ से भीख माँगने लगा।

भिखारी को देखकर उस सेठ ने कहा, तुम हमेशा मांगते ही हो, क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो ?


भिखारी बोला, साहब मैं तो भिखारी हूँ, हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ, मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ ?


सेठ: जब किसी को कुछ दे नहीं सकते तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है। 

मैं एक व्यापारी हूँ और लेन - देन में ही विश्वास करता हूँ, अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी मैं तुम्हे बदले में कुछ दे सकता हूँ।


तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ को उतरना था, वह ट्रेन से उतरा और चला गया।


इधर भिखारी सेठ की कही गई बात के बारे में सोचने लगा। 

सेठ के द्वारा कही गयीं बात उस भिखारी के दिल में उतर गई। 

वह सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसीलिए नहीं मिलता क्योकि मैं उसके बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ। 

लेकिन मैं तो भिखारी हूँ, किसी को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ।

लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिए केवल मांगता ही रहूँगा।


बहुत सोचने के बाद भिखारी ने निर्णय किया कि जो भी व्यक्ति उसे भीख देगा तो उसके बदले मे वह भी उस व्यक्ति को कुछ जरूर देगा। 

लेकिन अब उसके दिमाग में यह प्रश्न चल रहा था कि वह खुद भिखारी है तो भीख के बदले में वह दूसरों को क्या दे सकता है ?


इस बात को सोचते हुए दिनभर गुजरा लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला।


दुसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस - पास के पौधों पर खिल रहे थे, उसने सोचा, क्यों न मैं लोगों को भीख के बदले कुछ फूल दे दिया करूँ। 

उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिए।


वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा। 

जब भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता। 

उन फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे। 

अब भिखारी रोज फूल तोड़ता और भीख के बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था।


कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं। 

वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़ लाता था। 

जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे। 

लेकिन जब फूल बांटते बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी,अब रोज ऐसा ही चलता रहा ।


एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे है जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की प्रेरणा मिली थी।


वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच गया और भीख मांगते हुए बोला, आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल हैं, आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा।


शेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे दे दिए और भिखारी ने कुछ फूल उसे दे दिए। 

उस सेठ को यह बात बहुत पसंद आयी।


सेठ: वाह क्या बात है..? 

आज तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो, इतना कहकर फूल लेकर वह सेठ स्टेशन पर उतर गया।


लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक बार फिर से उस भिखारी के दिल में उतर गई। 

वह बार - बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा। 

उसकी आँखे अब चमकने लगीं, उसे लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को बदल सकता है।


वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला, मैं भिखारी नहीं हूँ, मैं तो एक व्यापारी हूँ..


मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ... 

मैं भी अमीर बन सकता हूँ !


लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद यह भिखारी पागल हो गया है, अगले दिन से वह भिखारी उस स्टेशन पर फिर कभी नहीं दिखा।


एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो व्यक्ति सूट बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। 

दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनमे से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, क्या आपने मुझे पहचाना ?

सेठ: नहीं तो ! शायद हम लोग पहली बार मिल रहे हैं।

भिखारी: सेठ जी.. आप याद कीजिए, हम पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं।

सेठ: मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे हम पहले दो बार कब मिले थे ?


अब पहला व्यक्ति मुस्कुराया और बोला:

हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में मिले थे, मैं वही भिखारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ।


नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ।


आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति का नियम बताया था... 

जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब हम कुछ देते हैं। 

लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है, मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, लेकिन मैं खुद को हमेशा भिखारी ही समझता रहा, इससे ऊपर उठकर मैंने कभी सोचा ही नहीं था और जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक व्यापारी बन चुका हूँ। 

अब मैं समझ चुका था कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि व्यापारी बन चुका हूँ।


भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी रहा । 

उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया, व्यापारी बन गया।


भारतीय मनीषियों ने संभवतः इसीलिए स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा:

शिवोभूत्वा शिवम् यजेत॥

शिव बनकर शिव की पूजा करनी चाहिए।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु


संस्कृति और प्राकृतिक विचार वाणी के चार पाप ,

संस्कृति और प्राकृतिक विचार वाणी के चार पाप ,


।। संस्कृति और प्रवृत्ति विचार ।।


हनुमानजी विगत कुछ दिनों से भगवान् राम के आस पास व्यग्र भाव से विचरण कर रहे थे लेकिन कुछ पूछने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी। 

एक दिन भगवान् श्रीराम एक शिलाखंड पर बैठे हुए थे और हनुमानजी उनकी चरण सेवा कर रहे थे।





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भगवान् भक्तों का कष्ट बहुत दिन न देख पाने के स्वभाव के कारण स्वयं पहल करते हुए बोले कि- हनुमान ! 

इधर आप बहुत व्यग्र दिखाई दे रहे है, जो कुछ भी पूछना है निःसंकोच पूछो।

हनुमानजी बड़े विनम्रभाव से बोले की प्रभु आपने तो हमें माँ सीता का पता लगाने के लिए भेजा था, लेकिन समर्थ होते हुए भी आपने अंगद को संधि प्रस्ताव लेकर क्यों भेजा ? 

यदि रावण आपका संधि प्रस्ताव मान लेता तो उसने जो सीता माँ का अपमान किया था उसका दंड आप कैसे देते ?




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भगवान् श्रीराम मुस्कुराए और बोले कि- दुनिया, समाज और संस्कृति सब तर्क के आधार पर नहीं चलता, सबके अपने अपने गुण धर्म और सबकी अपनी अपनी प्रवृत्ति होती है और सब उसी के अनुसार चलते है। 

रावण राक्षस है और हम आर्य, हमारी उसकी प्रवृत्ति भिन्न है, पर स्त्री गमन, दुराचार, किसी की स्त्री हरण कर लेना, उपद्रव करके संसार के सारे सुख वैभव का उपभोग करना उसकी स्वाभाविक संस्कृति है।

हम आर्य है, हम जो अपने पराक्रम और परिश्रम से प्राप्त करना चाहते है वही वह आतंक फैलाकर पाना चाहता है। 

तुम जिसे अपराध मान रहे हो वैसा कर्म तो वह देव, गंधर्व, किन्नरों के साथ कई बार कर चुका है जिसका कोई कभी प्रतिकार नहीं किया। 

हम जो सीताजी को वापस मांग रहे हैं, उसे यह मेरा अपराध लग रहा है क्योंकि आज तक किसी ने ऐसी हिम्मत नहीं की। 

अब इसे विधि का विधान कहें या प्राणियों का तुच्छ अहंकार कि जिस कृत्य से उसे थोड़ा बहुत भौतिक सुख मिल जाता है वह उसी को अपना संस्कृति बना लेता है। 

तुच्छ बुद्धि वाले ऐसा कृत्य अनादी काल तक करते रहेंगे। 

तुम निश्चिन्त रहो हनुमान रावण पुत्र पुत्रादि, बंधु, बांधव सब गंवाकर भी मेरा प्रस्ताव नहीं मानेगा। 

वैसे प्रत्यक्ष रूप से यह लड़ाई मेरे और रावण के बीच की है, लेकिन यह लड़ाई वास्तव में दो संस्कृतियों और दो प्रवृत्तियों के बीच की है, जो अनादी काल तक चलती रहेगी। 

इनमें समझौता कभी हो ही नहीं सकता। आर्य और राक्षस हर युग में रहेंगे।

    *जय जय श्री राधे*



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वाणी के चार पाप

1. परुष भाषण अर्थात् कठोर वाणीः कभी-भी कड़वी बात नहीं बोलनी चाहिए। 
किसी भी बात को मृदुता से, मधुरता से एवं अपने हृदय का प्रेम उसमें मिलाकर फिर कहना चाहिए। कठोर वाणी का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
 
गुरु ने शिष्य को किसी घर के मालिक की तलाश करने के लिए भेजा। 
शिष्य जरा ऐसा ही था – अधूरे लक्षणवाला। 
उसने घर की महिला से पूछाः
 
"ए माई ! 
तेरा आदमी कहाँ है ?"
 
महिला क्रोधित हो गयी और उसने चेले को भगा दिया। फिर गुरुजी स्वयं गये एवं बोलेः
 
"माता जी ! 
आपके श्रीमान् पतिदेव कहाँ है ?"
 
उस महिला ने आदर के साथ उन्हें बिठाया एवं कहाः "पतिदेव अभी घर आयेंगे।"
 
दोनों ने एक ही बात पूछी किन्तु पूछने का ढंग अलग था। 
इस प्रकार कठोर बोलना यह वाणी का एक पाप है। 
वाणी का यह दोष मानवता से पतित करवाता है।
 
2. अनृत वाणी अर्थात् अपनी जानकारी से विपरीत बोलनाः हम जो जानते हैं वह न बोलें, मौन रहें तो चल सकता है किन्तु जो बोलें वह सत्य ही होना चाहिए, अपने ज्ञान के अनुसार ही होना चाहिए। 
अपने ज्ञान का कभी अनादर न करें, तिरस्कार न करें। 
जब हम किसी के सामने झूठ बोलते हैं तब उसे नहीं ठगते, वरन् अपने ज्ञान को ही ठगते हैं, अपने ज्ञान का ही अपमान करते हैं। 
इससे ज्ञान रूठ जाता है, नाराज हो जाता है। 
ज्ञान कहता है कि 'यह तो मेरे पर झूठ का परदा ढाँक देता है, मुझे दबा देता है तो इसके पास क्यों रहूँ ?' ज्ञान दब जाता है।
इस प्रकार असत्य बोलना यह वाणी का पाप है।
 
3. पैशुन्य वाणी अर्थात् चुगली करनाः इधर की बात उधर और उधर की बात इधर करना। 
क्या आप किसी के दूत हैं कि इस प्रकार संदेशवाहक का कार्य करते हैं ? 
चुगली करना आसुरी संपत्ति के अंतर्गत आता है। इससे कलह पैदा होता है, दुर्भावना जन्म लेती है। चुगली करना यह वाणी का तीसरा पाप है।
 
4. असम्बद्ध प्रलाप अर्थात् असंगत भाषणः प्रसंग के विपरीत बात करना। 
यदि शादी-विवाह की बात चल रही हो तो वहाँ मृत्यु की बात नहीं करनी चाहिए। 
यदि मृत्यु के प्रसंग की चर्चा चल रही हो तो वहाँ शादी-विवाह की बात नहीं करनी चाहिए।
 
*इस प्रकार मानव की वाणी में कठोरता, असत्यता, चुगली एवं प्रसंग के विरुद्ध वाणी – ये चार दोष नहीं होने चाहिए। 
इन चार दोषों से युक्त वचन बोलने से बोलनेवाले को पाप लगता है।
!!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 ( तमिलनाडु )
Skype : astrologer85 website :https://sarswatijyotish.com/ 
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद.. 
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....

जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

भगवान सूर्य के वंश :

भगवान सूर्य के वंश : भगवान सूर्य के वंश : भगवान सूर्य के वंश होने से मनु  सूर्यवंशी कहलाये ।   रघुवंशी :-  यह भारत का प्राचीन क्षत्रिय कुल ह...