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श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , श्रीस्कन्द महापुराण :

श्रीमहाभारतम्  , श्री लिंग महापुराण  , श्रीस्कन्द महापुराण :  

श्रीमहाभारतम् : 


।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


( आस्तीकपर्व )


एकोनविंशोऽध्यायः


देवताओं का अमृतपान, देवासुर संग्राम तथा देवताओं की विजय...!


रुधिरेणानुलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः ।

अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते ।। १५ ।।




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वहाँ खून से लथपथ अंगवाले मरे हुए महान् असुर, जो समरभूमि में सो रहे थे, गेरू आदि धातुओं से रँगे हुए पर्वत-शिखरों के समान जान पड़ते थे ।। १५ ।।


हाहाकारः समभवत् तत्र तत्र सहस्रशः ।

अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति ।। १६ ।।


संध्याके समय जब सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक - दूसरेके शस्त्रोंसे कटनेवाले सहस्रों योद्धाओंका हाहाकार इधर - उधर सब ओर गूंज उठा ।। १६ ।।




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परिघेरायसैस्तीक्ष्णैः संनिकर्षे च मुष्टिभिः।

निघ्नतां समरेऽन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत् ।। १७ ।।


उस समरांगणमें दूरवर्ती देवता और दानव लोहेके तीखे परिघोंसे एक-दूसरेपर चोट करते थे और निकट आ जानेपर आपसमें मुक्का - मुक्की करने लगते थे। 

इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात - प्रत्याघातका शब्द मानो सारे आकाशमें गूंज उठा ।। १७ ।।




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छिन्धि भिन्धि प्रधाव त्वं पातयाभिसरेति च ।

व्यश्रूयन्त महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः ।। १८ ।।


उस रणभूमिमें चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि 'टुकड़े-टुकड़े कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो' ।। १८ ।।




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एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये । 

नरनारायणौ देवौ समाजग्मतुराहवम् ।। १९ ।।


इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णुके दो रूप नर और नारायणदेव भी युद्धभूमिमें आ गये ।। १९ ।।


तत्र दिव्यं धनुर्दृष्ट्वा नरस्य भगवानपि ।

चिन्तयामास तच्चक्रं विष्णुर्दानवसूदनम् ।। २० ।।


भगवान् नारायणने वहाँ नरके हाथमें दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानवसंहारक दिव्य चक्रका चिन्तन किया ।। २० ।।


ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं

महाप्रभं चक्रममित्रतापनम् ।

विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं

सुदर्शनं संयति भीमदर्शनम् ।। २१ ।।


चिन्तन करते ही शत्रुओंको संताप देनेवाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाशमार्गसे उनके हाथमें आ गया। 

वह सूर्य एवं अग्निके समान जाज्वल्यमान हो रहा था। 

उस मण्डलाकार चक्रकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। 

उसका नाम तो सुदर्शन था, किंतु वह युद्धमें शत्रुओंके लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था ।। २१ ।।


तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं भयंकरं करिकरबाहुरच्युतः । 

मुमोच वै प्रबलवदुग्रवेगवान् महाप्रभं परनगरावदारणम् ।। २२ ।।


वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था।


उसमें शत्रुओंके बड़े-बड़े नगरोंको विध्वंस कर डालनेकी शक्ति थी। हाथीकी सूँड़के समान विशाल भुजदण्डवाले उग्रवेगशाली भगवान् नारायणने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्रको दानवोंके दलपर चलाया ।। २२ ।।


तदन्तकज्वलनसमानवर्चसं पुनः पुनर्व्यपतत वेगवत्तदा । 

विदारयद् दितिदनुजान् सहस्रशः करेरितं पुरुषवरेण संयुगे ।। २३ ।।


उस महासमरमें पुरुषोत्तम श्रीहरिके हाथोंसे संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्निके समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्रों दैत्यों तथा दानवोंको विदीर्ण करता हुआ बड़े वेगसे बारम्बार उनकी सेनापर पड़ने लगा ।। २३ ।।


दहत् क्वचिज्ज्वलन इवावलेलिहत् प्रसह्य तानसुरगणान् न्यकृन्तत । 

प्रवेरितं वियति मुहुः क्षितौ तथा पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत् ।। २४ ।।


श्रीहरिके हाथोंसे चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्निकी भाँति अपनी लपलपाती लपटोंसे असुरोंको चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े टुकड़े कर डालता था। 

इस प्रकार रणभूमिके भीतर पृथ्वी और आकाशमें घूम-घूमकर वह पिशाचकी भाँति बार-बार रक्त पीने लगा ।। २४ ।।


तथासुरा गिरिभिरदीनचेतसो मुहुर्मुहुः सुरगणमार्दयंस्तदा । 

महाबला विगलितमेघवर्चसः सहस्रशो गगनमभिप्रपद्य ह ।। २५ ।।


इसी प्रकार उदार एवं उत्साहभरे हृदयवाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलोंके समान श्वेत रंग के दिखायी देते थे, उस समय सहस्रों की संख्या में आकाश में उड़-उड़कर शिलाखण्डों की वर्षा से बार-बार देवताओं को पीड़ित करने लगे ।। २५ ।।


क्रमशः...




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श्री लिंग महापुराण 


विष्णु भगवान द्वारा शिवजी की सहस्त्र नामों से स्तुति करना....!


हे ऋषियो ! 

इस प्रकार हरि सहस्त्र नाम से स्तुति करते हुए प्रत्येक नाम पर कमल अर्पण करते रहे। 

शिव ने हरि की परीक्षार्थ हजार कमलों में से एक कमल छिपा दिया। 

हरि विचार करने लगे क्या किया जाय। 

एक कमल कम हो गया सो अपने नेत्र रूपी कमल को निकाल कर शिव को अर्पण कर दिया। 

इस भाव से प्रसन्न हुए शिवजी अग्नि मण्डल से प्रकट हुए। 

उस समय उनका हजारों सूर्य मण्डल के सदृश तेज था। 

वे जटा मुकुट से शोभित शूल, टंक, गदा, चक्र, पाश आदि धारण किए हुए थे। 

ऐसे उग्र रूप को देखकर हरि भगवान ने शम्भु को नमस्कार किया। 

देवता भय से भागने लगे। 


ब्रह्मलोक चलायमान हो गया। 

वसुन्धरा काँपने लगी। 

शिव का तेज सौ योजन तक जलाने लगा। 

ऊपर नीचे के सभी लोकों में हा-हाकार मच गया।


उस समय शंकर हँसते हुए विष्णु से बोले- 

हे जनार्दन ! 

मैंने तुम्हारे देव कार्य को जान लिया है। 

यह सुदर्शन चक्र तुम्हारे लिये देता हूँ। 

ऐसा कहकर हजारों सूर्य के समान तेज वाला चक्र और ब्रह्म पद्म के सदृश हरि को दे दिया और तब से हरि का नाम पद्माक्ष पड़ा। 

शिव ने कहा- 

हे पुरुषोत्तम ! 

मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। 

तुम वरदान माँगो। 

तब विष्णु बोले- 

हे देव ! 

आपकी भक्ति बनी रहे और आप प्रसन्न रहिये, यह वरदान माँगता हूँ और कुछ नहीं। 

यह सुनकर शिव बोले- 

तुम्हारी मेरे में भक्ति बनी रहेगी और तुम सब देवों के पूज्य और वन्दनीय बने रहोगे। 

जब दक्ष की पुत्री सती पिता के अपमान से भस्म होगी और फिर दिव्य रूप से हिमाचल की पुत्री उमा होगी, उस समय तुम ही अवतार लेकर ब्रह्मा की आज्ञा से उमा को मेरे लिए प्रदान करोगे। 

तब मेरे सम्बन्धी तुम लोकों में पूज्य होगे।


ऐसा कहकर नीललोहित भगवान अन्तर्ध्यान हो गये। 

जनार्दन भगवान ने सब युक्तियों से ब्रह्मा के समीप यह कि मेरे द्वारा पठित जो यह स्तोत्र है इसको जो पढ़े या सुने उसको प्रति नाम पर स्वर्ण दान का फल मिलेगा और हजार अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होगा। 

जो इस सहस्त्र नाम द्वारा घृत अथवा जल से शंकर भगवान को स्नान करायेगा उसे भी सहस्त्र यज्ञ का फल प्राप्त होगा और रुद्र का प्यारा होगा। 

तब ब्रह्माजी भी हरि भगवान से तथास्तु कह अपने लोक को चले गये।


सूतजी कहते हैं कि हे द्विजो ! 

जो इस सहस्त्र नाम से शिव की पूजा करेगा या इसका जप करेगा, वह परम गति को प्राप्त होगा।


क्रमशः शेष अगले अंक में...




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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :


ब्राह्मखण्ड ( सेतु - महात्म्य )


सेतु तीर्थ ( रामेश्वर - क्षेत्र ) की महिमा...!  

  

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्। 

प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥


'जिन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा है, जिनका चन्द्रमाके समान गौर वर्ण है, चार भुजाएँ हैं और मुखपर प्रसन्नता छा रही है, ऐसे भगवान् विष्णुका सब विघ्नोंकी शान्तिके लिये ध्यान करना चाहिये।'




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नैमिषारण्य तीर्थमें शौनक आदि ऋषि अष्टांगयोगके साधनमें तत्पर हो एकमात्र ब्रह्मज्ञानके साधनमें संलग्न थे। 

वे सभी महात्मा संसार बन्धनसे मुक्ति चाहनेवाले थे। 

उनमें ममताका सर्वथा अभाव था। 

वे ब्रह्मवादी, धर्मज्ञ, किसीके दोष न देखनेवाले, सत्यव्रती, इन्द्रियसंयमी, क्रोधको जीतनेवाले तथा सब प्राणियोंके प्रति दया रखनेवाले थे। 

शौनक आदि महर्षि इस परम पवित्र मोक्षदायक नैमिषारण्यमें अतिशय भक्तिके साथ सनातनदेव भगवान् विष्णुकी पूजा करते हुए तपस्यामें लगे रहते थे। 

एक समय उन महात्माओंने उत्तम सत्संगका आयोजन किया। 

उसमें वे परम पुण्यमयी पापनाशक कथाएँ कहते और मुक्तिके उपायपर परस्पर प्रश्नोत्तर किया करते थे। 

उसी अवसरपर वहाँ व्यासजीके शिष्य महाविद्वान् पौराणिकों में श्रेष्ठ मुनिवर सूतजी आये। 

उन्हें देखकर शौनकादि महर्षियोंने अर्घ्य आदिके द्वारा उनका पूजन किया। 

जब वे सुखपूर्वक उत्तम आसनपर बैठे, तब महर्षियोंने उनसे पूछा 'सूतजी ! 

जीवोंकी संसारसागरसे किस प्रकार मुक्ति होती है? 

भगवान् शिव अथवा विष्णुमें मनुष्योंकी भक्ति कैसे होती है? 

ये तथा अन्य सब बातें भी आप कृपा करके हमें बताइये।'


तब सूतजीने पहले अपने गुरु श्रीव्यासदेवजीको प्रणाम करके इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया-

'ब्राह्मणो! 

श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा बँधाये हुए सेतुसे जो परम पवित्र हो गया है, वह रामेश्वर नामक क्षेत्र सब तीर्थोंमें उत्तम है। 

उसके दर्शनमात्रसे संसारसागरसे मुक्ति हो जाती है। 

भगवान् विष्णु और शिवमें भक्ति तथा पुण्यकी वृद्धि होती है। 

सेतु का दर्शन करनेपर मनुष्य सब यज्ञोंका कर्ता माना गया है। 

उस ने सब तीर्थों में स्नान और सब प्रकारकी तपस्याका अनुष्ठान कर लिया। 

सेतु में स्नान करनेवाला पुरुष विष्णुधाम में जाकर वहीं मुक्त हो जाता है। 

सेतु, रामेश्वर - लिंग और गन्धमादनपर्वतका चिन्तन करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। 

द्विजवरो! 

जो सेतु की बालुकाओंमें शयन करता है, उसकी धूलसे वेष्टित होता है, उसके शरीरमें बालूके जितने कण सटते हैं, उतनी ब्रह्म हत्याओंका नाश हो जाता है। 

सेतु के मध्यवर्ती प्रदेशकी वायु जिसके सम्पूर्ण शरीरका स्पर्श करती है, उसके दस हजार सुरापानका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। 

पुत्र और पौत्रोंके द्वारा जिसकी हड्डी सेतु में डाली गयी है, उसका दस हजार बार की हुई सुवर्णकी चोरीका पाप उसी क्षण नष्ट हो जाता है। 

जिस मनुष्यका स्मरण करके सेतु तीर्थमें कोई स्नान करता है, उसका भी महापातकियोंके संसर्गसे प्राप्त हुआ दोष तत्क्षण नष्ट हो जाता है। 

मार्गको नष्ट करनेवाला, केवल अपने लिये भोजन बनानेवाला, संन्यासियों और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाला, चाण्डालका अन्न खानेवाला और वेद बेचनेवाला- ये पाँच ब्रह्महत्यारे कहे गये हैं। 

जो ब्राह्मणोंको बुलाकर यह आशा देता है कि 'तुम्हें धन आदि दूँगा' और फिर यह कह देता है कि 'मेरे पास नहीं है' वह भी ब्रह्महत्यारा कहा गया है। 

जो जिससे धर्मका उपदेश ग्रहण करता है, वह उसीसे द्वेष करे या उसकी अवहेलना करे तो वह भी ब्रह्महत्यारा कहा गया है। 

जो पानी पीनेके लिये जलाशयकी ओर जाती हुई गौओंके समूहको रोक देता है, उसको भी ब्रह्मघाती कहा गया है। 

सेतु तीर्थ में आकर वे सभी अपनी पापराशिसे मुक्त हो जाते हैं। 

ब्रह्महत्यारोंके समान जो दूसरे पापी हैं, वे भी सेतुतीर्थमें आकर अपने पापोंसे छुटकारा पा जाते हैं। 

जो उपासनाका परित्याग करता, देवताका अन्न खाता, शराब पीता, शराब पीनेवाली स्त्रीसे संसर्ग रखता, वेश्याका अन्न खाता और किसी समुदाय अथवा संस्थाका अन्न भोजन करता है तथा जो पतितका अन्न खानेमें तत्पर रहता है, ये सभी सुरापी ( शराब पीने वाले ) कहे गये हैं। 

ये सब कर्मों से बहिष्कृत हैं। 

ऐसे लोग भी सेतुतीर्थ में स्नान  करने से पापरहित हो मुक्त हो जाते हैं। 

( पंडारामा प्रभु राज्यगुरु )

क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी 


पाप-पुण्य के बुरे और अच्छे फल , श्री लिंग महापुराण , मैं तो स्वयं शिव हूँ

पाप - पुण्य के बुरे और अच्छे फल , श्री लिंग महापुराण , मैं तो स्वयं शिव हूँ 


पाप - पुण्य के बुरे और अच्छे फल भुगतने की धारणा क्यों ?


शास्त्र में कहा है-

'पापकर्मेति दशधा।' 

अर्थात् पाप कर्म दस प्रकार के होते हैं। 

हिंसा ( हत्या ) , स्तेय ( चोरी ) , व्यभिचार - ये शरीर से किए जाने वाले पाप हैं। 

झूठ बोलना ( अनृत ) , कठोर वचन कहना ( परुष ) और चुगली करना - ये वाणी के पाप हैं। 

परपीड़न और हिंसा आदि का संकल्प करना, दूसरों के गुणों में भी अवगुणों को देखना और निर्दोष जनों के प्रति दुर्भावनापूर्ण दृष्टि ( कुदृष्टि ) रखना, ये मानस पापकर्म कहलाते हैं। 

इन कर्मों को करने से अपने को और दूसरे को कष्ट ही होता है। 

अतः ये कर्म हर हालत में दुखदायी ही हैं।




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स्कंदपुराण में कहा गया है कि


अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । 

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥ -स्कंदपुराण केदारखंड ।


अर्थात अठारह पुराणों में व्यासजी की दो ही बातें प्रधान हैं-परोपकार पुण्य है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना पाप है। 

यही पुराणों का सार है। 

प्रत्येक व्यक्ति को इसका मर्म समझकर आचरण करना चाहिए। 

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। 

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। 

कहकर तुलसीदास ने इसी तथ्य को सरलता से समझाया है।


मार्कण्डेयपुराण ( कर्मफल ) 14/25 में कहा गया है कि पैर में कांटा लगने पर तो एक जगह पीड़ा होती है, पर पाप - कर्मों के फल से तो शरीर और मन में निरंतर शूल उत्पन्न होते रहते हैं।




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पाराशरस्मृति में कहा गया है कि पाप कर्म बन पड़ने पर छिपाना नहीं चाहिए। 

छिपाने से वह बहुत बढ़ता है। 

यहां तक कि मनुष्य सात जन्मों तक कोढ़ी, दुखी, नपुंसक होता है पाप छोटा हो या बड़ा, उसे किसी धर्मज्ञ से प्रकट अवश्य कर देना चाहिए। 

इस प्रकार उसे प्रकट कर देने से पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे चिकित्सा करा लेने पर रोग नष्ट हो जाते हैं।


महाभारत वनपर्व 207 / 51 में कहा गया है कि जो मनुष्य पाप कर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है, वह उस पाप से छूट जाता है तथा 'फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर वह भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है।




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शिवपुराण 1/3/5 में कहा गया है कि पश्चाताप ही पापों की परम निष्कृति है। 

विद्वानों ने पश्चाताप से सब प्रकार के पापों की शुद्धि होना बताया है। 

पश्चाताप करने से जिसके पापों का शोधन न हो, उसके लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए।


पापों का प्रायश्चित्त न करने वाले मनुष्य नरक तो जाते ही हैं, अगले जन्मों में उनके शरीरों में उन पापों के लक्षण आदि भी प्रकट होते हैं। 

अतः पाप का निवारण करने को प्रायश्चित्त अवश्य कर लेना चाहिए। 

स्वर्ग के द्वार पर भीड़ लगी थी। 

धर्मराज को छंटनी करनी थी कि किसे प्रवेश दें और किसे न दें। 

परीक्षा के लिए उन्होंने सभी को दो कागज दिए और एक में अपने पाप और दूसरे में पुण्य लिखने को कहा। 

अधिकांश लोगों ने अपने पुण्य तो बढ़ा - चढ़ा कर लिखे, पर पाप छिपा लिए। 

कुछ आत्माएं ऐसी थीं, जिन्होंने अपने पापों को विस्तार से लिखा और प्रायश्चित्त पूछा । 

धर्मराज ने अंतःकरणों की क्षुद्रता और महानता जांची और पाप लिखने वालों को स्वर्ग में प्रवेश दे दिया।


पुण्य के अच्छे फल की मान्यता क्यों ?


जिन कर्मों से व्यक्ति और समाज की उन्नति होती है, उन्हें पुण्य कर्म कहते हैं। 

सभी शास्त्रों और गोस्वामी तुलसीदास ने परोपकार को सबसे बड़े धर्म के रूप में माना है-

परहित सरिस धर्म नहिं भाई। 

अर्थात् परोपकार के समान महान् धर्म कोई अन्य नहीं है।


द्रौपदी जमुना में स्नान कर रही थी। उसने एक साधु को स्नान करते देखा। 

हवा में उसकी पुरानी लंगोटी उड़कर पानी में बह गई। 

ऐसे में वह बाहर निकलकर घर कैसे जाए, सो झाड़ी में छिप गया। 

द्रौपदी स्थिति को समझ गई और उसने झाड़ी के पास जाकर अपनी साड़ी का एक तिहाई टुकड़ा फाड़कर लंगोट बनाने के लिए साधु को दे दिया। 

साधु ने कृतज्ञतापूर्वक अनुदान स्वीकार किया। 

दुर्योधन की सभा में जब द्रौपदी की लाज उतारी जा रही थी। 

तब उसने भगवान् को पुकारा। 

भगवान् ने देखा कि द्रौपदी के हिस्से में एक पुण्य जमा है। 

साधु की लंगोटी वाला कपड़ा व्याज समेत अनेक गुना हो गया है भगवान् ने उसी को द्रौपदी तक पहुंचाकर उसकी लाज बचाई।


🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷


आदित्य वंश वर्णन में तण्डिकृत शिव सहस्त्रनाम...( भाग 1 )


ऋषि बोले- 

हे सूतजी ! 

आदित्य वंश का और सोम वंश का हमारे प्रति वर्णन कीजिये ।




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सूतजी बोले- 

अदिति ने कश्यप ऋषि के द्वारा आदित्य नामक पुत्र को उत्पन्न किया। 

आदित्य की चार पत्नी हुईं। 

वे संज्ञा, राज्ञी, प्रभा, छाया नाम वाली थीं। 

संज्ञा ने सूर्य के द्वारा मनु को उत्पन्न किया, राज्ञी ने यम यमुना और रैवत को पैदा किया। 

प्रभा ने आदित्य के द्वारा प्रभात को पैदा किया। 

छाया ने सूर्य से, सावर्णि, शनि, तपती तथा वृष्टि को पैदा किया। 

छाया अपने पुत्र से भी ज्यादा यम को प्रेम करती थी। 

मनु ने सहसका और क्रोध में आकर दाहिने पैर से उसे मारा। 

तब छाया अधिक दुखी हुई और यम का एक पैर खराब हो गया जिसमें राध रुधिर और कीड़ा पड़ गए। 

तब उसने गोकर्ण में जाकर हजारों वर्ष शिव की आराधना की। 

शिव के प्रसाद से उसे पितृ लोक का आधिपत्य मिला और शाप से छूट गया।


प्रथम मनु से नौ पुत्र पैदा हुए। 

ये इक्ष्वाकु, नभग, धृष्णु, शर्याति, नारिश्यन्त, नाभाग, अरिष्ट, करुष, पृषध थे। 

इला, जेष्ठा, वरिष्ठा ये पुरुषत्व को प्राप्त हुईं। 

ये मनु की पुत्री थीं। इला का नाम सुद्युम्न हुआ। 

मनु यह सुद्युम्न नाम का पुत्र सोम वंश की वृद्धि करने वाला हुआ। 

उत्कल, गय, विनितास्व नामक इसके पुत्र उत्पन्न हुए।


हरीश्व से दृशदवती में बसुमना नाम का पुत्र हुआ। 

उसका पुत्र त्रिधन्वा नाम का हुआ। ब्रह्मा पुत्र तण्डि के द्वारा वह शिष्यता को प्राप्त हुआ। 

ब्रह्म पुत्र तडित ने शिव सहस्त्रनाम के द्वारा गाणपत्य पदवी को प्राप्त किया। 

ऋषि बोले- 

हे सूतजी ! 

शिवजी के सहस्त्रनाम को हमारे प्रति वर्णन करो। 

जिसके द्वारा तण्डि गाणपत्य पद को प्राप्त हुआ।





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सूतजी बोले- 

हे ब्राह्मणो ! 

वह १०८ नाम से अधिक एक हजार ( ११०८ ) नाम वाला वह स्तोत्र मैं तुम्हें कहता हूँ सो सुनो। 

तब सूतजी ने शिव के स्थिर, स्थाणु, प्रभु, भानु, प्रवर, वरद, सर्वात्मा, सर्व विख्यात, सहस्त्राक्ष, विशालाक्ष, सोम, नक्षत्र, साधक, चन्द्र, शनि, केतु, ग्रह इत्यादि ११०८ नाम वाला महा पुण्यकारक स्तोत्र सुनाया। 

जिसको पढ़ने तथा ब्राह्मणों को सुनाने से हजार अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। 

ब्रह्महत्या, शराब पीने वाला, चोर, गुरु की शैय्या पर शमन करने वाला, शरणागतघाती, मित्र विश्वास घातक, मातृ हत्यारा, वीर हत्यारा, भ्रूण हत्यारा आदि घोर पापी भी इसका शंकर के आश्रय में रहकर तीनों कालों में एक वर्ष तक लगातार जप करने पर सब पापों से छूट जाता है।


क्रमशः शेष अगले अंक में...


मैं तो स्वयं शिव हूँ


एक था भिखारी! रेल सफर में भीख माँगने के दौरान एक सूट बूट पहने सेठ जी उसे दिखे। 

उसने सोचा कि यह व्यक्ति बहुत अमीर लगता है, इससे भीख माँगने पर यह मुझे जरूर अच्छे पैसे देगा। वह उस सेठ से भीख माँगने लगा।

भिखारी को देखकर उस सेठ ने कहा, तुम हमेशा मांगते ही हो, क्या कभी किसी को कुछ देते भी हो ?


भिखारी बोला, साहब मैं तो भिखारी हूँ, हमेशा लोगों से मांगता ही रहता हूँ, मेरी इतनी औकात कहाँ कि किसी को कुछ दे सकूँ ?


सेठ: जब किसी को कुछ दे नहीं सकते तो तुम्हें मांगने का भी कोई हक़ नहीं है। 

मैं एक व्यापारी हूँ और लेन - देन में ही विश्वास करता हूँ, अगर तुम्हारे पास मुझे कुछ देने को हो तभी मैं तुम्हे बदले में कुछ दे सकता हूँ।


तभी वह स्टेशन आ गया जहाँ पर उस सेठ को उतरना था, वह ट्रेन से उतरा और चला गया।


इधर भिखारी सेठ की कही गई बात के बारे में सोचने लगा। 

सेठ के द्वारा कही गयीं बात उस भिखारी के दिल में उतर गई। 

वह सोचने लगा कि शायद मुझे भीख में अधिक पैसा इसीलिए नहीं मिलता क्योकि मैं उसके बदले में किसी को कुछ दे नहीं पाता हूँ। 

लेकिन मैं तो भिखारी हूँ, किसी को कुछ देने लायक भी नहीं हूँ।

लेकिन कब तक मैं लोगों को बिना कुछ दिए केवल मांगता ही रहूँगा।


बहुत सोचने के बाद भिखारी ने निर्णय किया कि जो भी व्यक्ति उसे भीख देगा तो उसके बदले मे वह भी उस व्यक्ति को कुछ जरूर देगा। 

लेकिन अब उसके दिमाग में यह प्रश्न चल रहा था कि वह खुद भिखारी है तो भीख के बदले में वह दूसरों को क्या दे सकता है ?


इस बात को सोचते हुए दिनभर गुजरा लेकिन उसे अपने प्रश्न का कोई उत्तर नहीं मिला।


दुसरे दिन जब वह स्टेशन के पास बैठा हुआ था तभी उसकी नजर कुछ फूलों पर पड़ी जो स्टेशन के आस - पास के पौधों पर खिल रहे थे, उसने सोचा, क्यों न मैं लोगों को भीख के बदले कुछ फूल दे दिया करूँ। 

उसको अपना यह विचार अच्छा लगा और उसने वहां से कुछ फूल तोड़ लिए।


वह ट्रेन में भीख मांगने पहुंचा। 

जब भी कोई उसे भीख देता तो उसके बदले में वह भीख देने वाले को कुछ फूल दे देता। 

उन फूलों को लोग खुश होकर अपने पास रख लेते थे। 

अब भिखारी रोज फूल तोड़ता और भीख के बदले में उन फूलों को लोगों में बांट देता था।


कुछ ही दिनों में उसने महसूस किया कि अब उसे बहुत अधिक लोग भीख देने लगे हैं। 

वह स्टेशन के पास के सभी फूलों को तोड़ लाता था। 

जब तक उसके पास फूल रहते थे तब तक उसे बहुत से लोग भीख देते थे। 

लेकिन जब फूल बांटते बांटते ख़त्म हो जाते तो उसे भीख भी नहीं मिलती थी,अब रोज ऐसा ही चलता रहा ।


एक दिन जब वह भीख मांग रहा था तो उसने देखा कि वही सेठ ट्रेन में बैठे है जिसकी वजह से उसे भीख के बदले फूल देने की प्रेरणा मिली थी।


वह तुरंत उस व्यक्ति के पास पहुंच गया और भीख मांगते हुए बोला, आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ फूल हैं, आप मुझे भीख दीजिये बदले में मैं आपको कुछ फूल दूंगा।


शेठ ने उसे भीख के रूप में कुछ पैसे दे दिए और भिखारी ने कुछ फूल उसे दे दिए। 

उस सेठ को यह बात बहुत पसंद आयी।


सेठ: वाह क्या बात है..? 

आज तुम भी मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो, इतना कहकर फूल लेकर वह सेठ स्टेशन पर उतर गया।


लेकिन उस सेठ द्वारा कही गई बात एक बार फिर से उस भिखारी के दिल में उतर गई। 

वह बार - बार उस सेठ के द्वारा कही गई बात के बारे में सोचने लगा और बहुत खुश होने लगा। 

उसकी आँखे अब चमकने लगीं, उसे लगने लगा कि अब उसके हाथ सफलता की वह चाबी लग गई है जिसके द्वारा वह अपने जीवन को बदल सकता है।


वह तुरंत ट्रेन से नीचे उतरा और उत्साहित होकर बहुत तेज आवाज में ऊपर आसमान की ओर देखकर बोला, मैं भिखारी नहीं हूँ, मैं तो एक व्यापारी हूँ..


मैं भी उस सेठ जैसा बन सकता हूँ... 

मैं भी अमीर बन सकता हूँ !


लोगों ने उसे देखा तो सोचा कि शायद यह भिखारी पागल हो गया है, अगले दिन से वह भिखारी उस स्टेशन पर फिर कभी नहीं दिखा।


एक वर्ष बाद इसी स्टेशन पर दो व्यक्ति सूट बूट पहने हुए यात्रा कर रहे थे। 

दोनों ने एक दूसरे को देखा तो उनमे से एक ने दूसरे को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, क्या आपने मुझे पहचाना ?

सेठ: नहीं तो ! शायद हम लोग पहली बार मिल रहे हैं।

भिखारी: सेठ जी.. आप याद कीजिए, हम पहली बार नहीं बल्कि तीसरी बार मिल रहे हैं।

सेठ: मुझे याद नहीं आ रहा, वैसे हम पहले दो बार कब मिले थे ?


अब पहला व्यक्ति मुस्कुराया और बोला:

हम पहले भी दो बार इसी ट्रेन में मिले थे, मैं वही भिखारी हूँ जिसको आपने पहली मुलाकात में बताया कि मुझे जीवन में क्या करना चाहिए और दूसरी मुलाकात में बताया कि मैं वास्तव में कौन हूँ।


नतीजा यह निकला कि आज मैं फूलों का एक बहुत बड़ा व्यापारी हूँ और इसी व्यापार के काम से दूसरे शहर जा रहा हूँ।


आपने मुझे पहली मुलाकात में प्रकृति का नियम बताया था... 

जिसके अनुसार हमें तभी कुछ मिलता है, जब हम कुछ देते हैं। 

लेन देन का यह नियम वास्तव में काम करता है, मैंने यह बहुत अच्छी तरह महसूस किया है, लेकिन मैं खुद को हमेशा भिखारी ही समझता रहा, इससे ऊपर उठकर मैंने कभी सोचा ही नहीं था और जब आपसे मेरी दूसरी मुलाकात हुई तब आपने मुझे बताया कि मैं एक व्यापारी बन चुका हूँ। 

अब मैं समझ चुका था कि मैं वास्तव में एक भिखारी नहीं बल्कि व्यापारी बन चुका हूँ।


भिखारी ने स्वयं को जब तक भिखारी समझा, वह भिखारी रहा । 

उसने स्वयं को व्यापारी मान लिया, व्यापारी बन गया।


भारतीय मनीषियों ने संभवतः इसीलिए स्वयं को जानने पर सबसे अधिक जोर दिया और फिर कहा:

शिवोभूत्वा शिवम् यजेत॥

शिव बनकर शिव की पूजा करनी चाहिए।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु


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