https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: श्री कृष्ण की मालिन पर कृपा
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भगवान श्री कृष्ण की मालिन पर कृपा , संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण , श्री लिंग महापुराण , श्रीमहाभारतम्

 भगवान श्री कृष्ण की मालिन पर कृपा , संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण   , श्री लिंग महापुराण , श्रीमहाभारतम् 


भगवान श्री कृष्ण की मालिन पर कृपा :


मथुरा से गोकुल में सुखिया नाम की मालिन फूल फल बेचने आया करती थी। 

जब वह गोकुल में गोपियों के घर जाया करती तो हमेशा गोपियों से कन्हैया के बारे में सुना करती थी, गोपिया कहती नन्दरानी माता यशोदा जी अपनी मधुर स्वर गाकर अपने लाला कन्हैया को आँगन में नचा रही थी। 

कन्हैया के सुन्दर-सुन्दर कोमल चरणों के नूपुर के स्वर इतने मधुर थे, कि कन्हैया के लालिमा को ही देखने का मन करता है। 

मालिन को भी कन्हैया के बारे मे सुन मन को एक सुन्दर अनुभूति महसूस होने लगी थी। 

जब गोपिया मालिन को कन्हैया की बातें नहीं सुनते तो उसे अच्छा नही लगता था। 

मालिन के मन में भी कन्हैया प्रेम जागृत होने लग गया था।




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वह मालिन गोपियों से कहती है, गोपियों तुम कहती हो कृष्ण के भीतर अपार प्रेम है, तो मुझे आज तक क्यों कृष्ण के दर्शन नहीं हुए। 

गोपियों मै भी कृष्ण के दर्शन करना चाहती हूॅ। 

मुझे भी कोई ऐसा उपाय बताओं जिससें मुझे भी कन्हैया के दर्शन हो सके। 

गोपिया कहती है अरे मालिन यदि तुम्हें लाला के दर्शन करने है तो तुम्हें भी कोई संकल्प लेना होगा। 

गोपियों की बात सुन मालिन कहती है - मै तो बहुत गरीब हूँ। 

मैं क्या संकल्प करू यदि कोई संकल्प है जो मैं पूरा सकू तो ऐसा कोई संकल्प बताओं।  


गोपिया मालिन से कहती है तुम प्रतिदिन नंदबाबा के द्वारा पर खडे रहकर कान्हा की प्रतीक्षा करती हो। 

उससे अच्छा तुम नंदभवन की एक सौ आठ प्रदक्षिणा का संकल्प ले लों। 

जैसे ही तुम अपनी प्रदक्षिणा पूरी करोगी। 

तुम्हें अवश्य कन्हैया के दर्शन हो जायेंगे। 

और प्रदक्षिणा करते हुए कन्हैया से प्रार्थना करो कि मुझे भी दर्शन दे।।


गोपियों के कहे अनुसार मालिन नंदभवन की एक सौ आठ प्रदक्षिणा की संकल्प ली करती है, और प्रदक्षिणा करते कन्हैया का स्मरण करने लगी  - हे कन्हैया मुझे दर्शन दो। 

इस तरह उस मालिन का मन धीरे-धीरे कृष्ण प्रेम जागृत होने लगा। 

भगवान कन्हैया के दर्शन के लिए उस मालिन के मन में एक भाव पैदा होने लगा। 

वैसे तो मालिन रोज फल-फूल बेचकर मथुरा चली जाती थी। 

लेकिन उसका मन हर पल नंदभवन के तरफ ही लगा रहता और कान्हा का ही स्मरण करते रहती।  

कान्हा के दर्शन के लिए उसका मन व्याकुल होने लगा। 

अब तो उसके मन में एक ही आस रह गयी थी । 

मन की तड़प इतनी बढ गई कि उस मालिन ने यह प्रतिज्ञा कर ली कि जब तक कन्हैया के दर्शन नहीं होंगे। 

तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगी। 

और प्रण कर फल की टोकरी उठाकर कन्हैया के छवि का ध्यान करते हुए गोकुल की ओर चल पड़ी। 

जैसे ही मालिन नंदभवन पहुंची ओर  जोर-जोर से फल ले लो री फल कहने लगी। 

मालिन की आवाज सुन कान्हा ने सोचा इस मालिन की दृढ़ भक्ति ने मुझे आज इसे दर्शन देने हेतु विवश कर दिया है। 

भगवान कृष्ण उस मालिन के उपासना और कर्म का फल देने के लिए अपने छोटे-छोटे हाथों में अनाज के कुछ दाने ले घर से बाहर आये। 

भगवान का स्वरूप पीताम्बर पहने, कमर में स्वर्ण करधन, बाजूबन्द पहन, कानों में मकराकृति कुण्डल धारण कर, माथे में तिलक लगा मोर मुकुट धारण कर कन्हैया छोटी सी बासुरी धर छमछम करके दौड घर से बाहर आये। 

कन्हैया ने अपनी हाथों में रखे अनाज को उस मालिन के टोकरी में डाल दिये। 

और कन्हैया मालिन से फल लेने को अधीर थे । 

मालिन का मन कान्हा को देख प्रेम से ओत-प्रोत हो गया। 


मालिन की आठ पुत्रियां थीं, पर पुत्र एक भी ना था। 

कान्हा को देख उसके मन में पुत्र भाव जागने लगा था,  और मन ही मन मे सोचने लगी कि मेरा भी ऐसा पुत्र होता तो कितना अच्छा होता। 

माता यशोदा जब कन्हैया को गोद में खिलाती होगी तो उन्हें कितना आनंद होता होगा? 

मुझे भी ऐसा आनंद मिलता। मालिन के हृदय में जिज्ञासा हुई कि कन्हैया मेरी गोद में आ जाए । 

भगवान श्रीकृष्ण तो अन्तर्यामी हैं, वे मालिन के हृदय के भाव जान गए और मालिन की गोद में जाकर बैठ गये। 


अब मालिन के मन में ऐसा पुत्र प्रेम जागा कि कन्हैया मुझे एकलबार माँ कहकर बुलाए। 

कन्हैया को उस मालिन पर दया आ गयी। 

कान्हा ने सोचा जो जीव जैसा भाव रखता है, मैं उसी भाव के अनुसार उससे प्रेम करता हूँ। 

कान्हा ने उसे कहकर कहा- माँ, मुझे फल दे। 

माँ सुनकर मालिन को अतिशय आनंदित हो गई । 

और सोची लाला को क्या दूँ? 

कि  कान्हा के मन को पसंद आये।

भगवान के दुर्लभ करकमलों के स्पर्श का सुख प्राप्त कर मालिन ने उनके दोनों हाथ फल दिया। 

कन्हैया के हाथों में फल आते ही वे नंदभवन की ओर दौड़ अन्दर चले गये। और साथ ही मालिन का मन को भी चोरी करके ले गये हैं।


उस मालिन ने कान्हा के लिए उसने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। 

अब मालिन के मन मे घर जाने की भी इच्छा नहीं हो रही थी । 

लेकिन जाना भी आवश्यक था,  इसलिये उसने टोकरी सिर पर रख कान्हा का स्मरण करते-करते घर पहुँच गयी। 

जैसे ही वे घर पहुच तो देखता है कि कन्हैया ने तो उसकी सम्पूर्ण अभिलाषाओं को पूर्ण कर दिया है | 

भगवान श्रीकृष्ण ने प्रेम के अमूल्य रत्नों–हीरे-मोतियों से उसकी खाली टोकरी भर दी। मालिन की टोकरी कान्हा ने रत्नों से भर दी और उसका प्रकाश चारों ओर उसके प्रकाश से मालिन को सिर्फ कान्हा ही दिखायी दे रहे हैं। 

आगे श्रीकृष्ण, पीछे श्रीकृष्ण, दांये श्रीकृष्ण, बांये श्रीकृष्ण, भीतर श्रीकृष्ण, बाहर श्रीकृष्ण। 

सब तरफ श्रीकृष्ण ही कृष्ण है उनके अलावा उसे और कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। 

इधर कान्हा भी मालिन द्वारा दिये फल सभी गोप-गोपियों को बांट रहे थे, फिर भी फल खत्म नही हो रही है। 

यह देख नाता यशोदा सोचने लगी कि आज कान्हा को आशीर्वाद देने माँ अन्नपूर्णा मेरे घर आयीं हैं। 

इस प्रकार सुखिया मालिन का जीवन सफल हुआ, उसने साधारण लौकिक फल देकर फलों का भी फल श्रीकृष्ण का दिव्य-प्रेम प्राप्त किया। 

श्रीकृष्ण का ध्यान करते-करते वह उन्हीं की नित्यकिंकरी गोलोक में सखी हो गयी।


मनुष्य की बुद्धि भी उस टोकरी जैसी है, भक्ति रत्न सदृश्य है। 

मनुष्य जब अपने सत्कर्म श्रीकृष्ण को अर्पण करता है, तो उसकी टोकरी रूपी बुद्धि रत्न रूपी भक्ति से भर जाती है।


कठोपनिषद में यम और नचिकेता का संवाद भारतीय दर्शन की एक गहन और प्रेरणादायक कथा है, जिसमें आत्मा, मृत्यु और मोक्ष के रहस्यों पर विमर्श होता है। 

यह संवाद कठ शाखा के कृष्ण यजुर्वेद से सम्बद्ध उपनिषद में वर्णित है और इसे मुक्ति के ज्ञान की एक उत्कृष्ट प्रस्तुति माना गया है। 

नीचे मैं इसका विस्तार से वर्णन कर रहा हूँ, संदर्भों के साथ:


कथा का प्रारंभ: नचिकेता का बलिदान हेतु समर्पण


कथा के अनुसार, एक महान ऋषि वाजश्रवस् ने स्वर्गलोक की प्राप्ति के लिए एक यज्ञ ( विशेष रूप से विश्वजित यज्ञ ) किया और उसमें अपनी सारी संपत्ति दान कर दी। 

किन्तु वह केवल बूढ़ी, दुर्गुणयुक्त गौओं को दान में देने लगे। 

यह देखकर उनका पुत्र नचिकेता, जो केवल 8–12 वर्ष का तेजस्वी और सत्यनिष्ठ बालक था, चकित हो उठा।


नचिकेता ने सोचा:

"हीन गौओं का दान देकर पिता कौन-सा पुण्य प्राप्त करेंगे?"

और वह बार-बार अपने पिता से पूछने लगा:

"कस्मै मां दास्यसि?"

( हे पिताजी! आप मुझे किसे दान देंगे? )


वाजश्रवस् क्रोधित होकर बोले:

"मृत्यवे त्वा ददामि"

( मैं तुझे मृत्यु को दे दूँगा। )


नचिकेता ने इसे आदेश मानकर, पितृ आज्ञा का पालन करते हुए मृत्यु के लोक, यमलोक की ओर प्रस्थान किया।

यमलोक में नचिकेता की प्रतीक्षा और यम का आगमन


नचिकेता यमलोक पहुँच गया, परन्तु यमराज वहाँ नहीं थे। 

नचिकेता ने बिना खाए-पीए तीन दिन तक यम के द्वार पर प्रतीक्षा की। 

जब यम लौटे तो उन्होंने नचिकेता की अतिथि-सेवा न कर पाने को अपराध माना और क्षमा मांगते हुए उसे तीन वर ( boons ) देने का वचन दिया – एक-एक प्रत्येक दिन के लिए।


नचिकेता के तीन वरदान


1. पहला वर:


पिता का क्रोध शांत हो, मुझे देखकर वह प्रसन्न हों।


यमराज ने वरदान दिया कि वाजश्रवस् पुत्र को देखकर प्रसन्न होंगे और उसके हृदय में कोई शोक नहीं रहेगा।

(कठोपनिषद, अध्याय 1, वल्ली 1, मंत्र 11)


2. दूसरा वर:


स्वर्गलोक और उसके कर्मों का ज्ञान।


नचिकेता ने स्वर्ग की अग्नि (यज्ञ) के ज्ञान की इच्छा की, जिससे स्वर्ग की प्राप्ति हो सके।


यमराज ने उसे नचिकेता अग्नि का उपदेश दिया और वह यज्ञ नचिकेताग्नि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

(कठोपनिषद, अध्याय 1, वल्ली 1, मंत्र 14-19)


3. तीसरा वर (मुख्य और गूढ़तम):


"मृत्योऽत् परे कं तद्स्यादिति — मृत्यु के पार क्या है? आत्मा मरती है या नहीं?"


यही प्रश्न इस संवाद का केंद्र बिंदु है।


नचिकेता ने पूछा:

"एतद्विदित्वा मुनयो मोदन्ते — यह जानकर ज्ञानी आनंदित होते हैं, कृपया मुझे यह ज्ञान दीजिए।"

(कठोपनिषद, अध्याय 1, वल्ली 1, मंत्र 20)


यम की परीक्षा और आत्मा का ज्ञान


यमराज ने नचिकेता की परीक्षा ली और उसे कई सांसारिक लोभ दिए:


दीर्घायु, पुत्र, धन, रथ, नारी, संगीत आदि।


परंतु नचिकेता अडिग रहा:

"अव्ययेन तु मा मोघं कुरु — इन क्षणभंगुर सुखों से मुझे संतोष नहीं है।"


फिर यमराज ने आत्मा का ज्ञान दिया:


मुख्य उपदेश:


आत्मा नित्य, अजन्मा और अविनाशी है।

"न जायते म्रियते वा कदाचित्..."

(ना आत्मा जन्म लेती है, ना मरती है — कठोप. 1.2.18)


शरीर नष्ट होता है, पर आत्मा नहीं।


श्रेय और प्रेय का विवेक:

मनुष्य के जीवन में दो मार्ग होते हैं —

श्रेय: कल्याण का मार्ग

प्रेय: प्रिय वस्तुओं का मार्ग

ज्ञानी व्यक्ति श्रेय का चयन करता है।

(कठोप. 1.2.1–2)


बुद्धि और इंद्रियों का रूपक:

शरीर एक रथ है, आत्मा उसका स्वामी, बुद्धि सारथी और इंद्रियाँ घोड़े हैं।

(कठोप. 1.3.3–9)


ब्रह्मविद्या का उपदेश:

नचिकेता को यमराज ने बताया कि आत्मा को केवल बुद्धि, ध्यान और वैराग्य से जाना जा सकता है। यह ज्ञान गुरु से प्राप्त होता है।


नचिकेता को मोक्ष प्राप्ति


नचिकेता, जो आत्मज्ञान के लिए जिज्ञासु और दृढ़ था, यमराज के उपदेश को समझ गया।

अंत में उसे ब्रह्मविद्या का बोध हुआ और

"नचिकेता मृत्यु से परे सत्य को जान गया।"




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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण 


श्रीअयोध्या-माहात्म्य :


गोप्रतारतीर्थकी महिमा और श्रीरामके परमधामगमनकी कथा...(भाग 1) 

 

सरयू और घाघराके संगममें दस कोटिसहस्र | 

तथा दस कोटिशत तीर्थ हैं। 

उस संगमके जलमें स्नान करके एकाग्रचित्त हो देवताओं और पितरोंका तर्पण करे तथा अपनी शक्तिके अनुसार दान दे। 

फिर वैष्णवमन्त्रसे हवन करके पवित्र होवे। 

अमावास्या, पूर्णिमा, दोनों द्वादशी तिथि, अयन और व्यतीपातयोग आनेपर संगममें किया हुआ स्नान विष्णुलोक प्रदान करनेवाला है। 

विष्णुभक्त पुरुष भगवान् विष्णुकी पूजा करके उन्हींकी लीला कथाका श्रवण करते हुए विष्णुप्रीतिकारक गीत, वाद्य, नृत्य तथा पुण्यमयी कथा-वार्ताके द्वारा रात्रिमें जागरण करे। 

तत्पश्चात् प्रातः काल विधिपूर्वक श्रद्धासे स्नान करके भगवान् विष्णुका पूजन करे और ब्राह्मणोंको यथाशक्ति सुवर्ण आदि दान करे। 


जो संगमपर श्रद्धापूर्वक सुवर्ण, अन्न और वस्त्र देता है, वह उत्तम गतिको प्राप्त होता है। 

संगममें स्नान करनेवाला मनुष्य सात पीढ़ी पूर्वकी तथा सात पीढ़ी भावी सन्तति इन सबको तार देता है। 

संगमके समीप ही एक दूसरा गोप्रतार नामक तीर्थ है। वह भी बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है। 

उसमें स्नान और दान करनेसे मनुष्य कभी शोकके वशीभूत नहीं होता है। 

जैसे काशीमें मणिकर्णिका, उज्जयिनीमें महाकाल मन्दिर तथा नैमिषारण्यमें चक्रवापीतीर्थ सबसे श्रेष्ठ है, उसी प्रकार अयोध्यामें गोप्रतार-तीर्थका महत्त्व सबसे अधिक है, जहाँ भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे समस्त साकेतनिवासियोंको उनके दिव्य धामकी प्राप्ति हुई थी।


पूर्वकालमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने आलस्यहीन हो देवताओंका कार्य पूरा करके अपने भाइयोंके साथ परम धाममें जानेका विचार किया। 

गुप्तचरोंके मुँहसे यह समाचार सुनकर इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले वानर, भालु, गोपुच्छ एवं राक्षस झुंड-के-झुंड वहाँ आये। 

वानरगण देवताओं, गन्धर्वों तथा ऋषियोंके पुत्र थे। 

वे सब के सब श्रीरामचन्द्रजीके अन्तर्धान होनेका समाचार पाकर वहाँ आ पहुँचे। 

श्रीरामचन्द्रजीके समीप आकर सब वानर यूथपतियोंने कहा- 'राजन् । 

हम सब लोग आपके साथ चलनेके लिये आये ( हैं। पुरुषोत्तम ! यदि आप हमें छोड़कर चले जायँगे तो हम सब लोग महान् दण्डसे मारे गये प्राणियोंकी-सी अवस्थामें पहुँच जायँगे।' )

उन वानर, भालु और राक्षसोंकी बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने उसी क्षण विभीषणसे कहा-'विभीषण! जबतक भूतलपर प्रजा रहे, तबतक तुम भी यहीं रहकर लंकाके महान् साम्राज्यका पालन करो। 

मेरा वचन अन्यथा न करो।' 

विभीषणसे ऐसा कहकर भगवान् श्रीरामचन्द्र हनुमान्जीसे बोले- 'वायुनन्दन ! 

तुम चिरजीवी रहो। 

कपिश्रेष्ठ ! जबतक लोग मेरी कथा कहें, तबतक तुम प्राणोंको धारण करो। 

मयंद और भी द्विविद- ये दोनों अमृतभोजी वानर हैं। 

ये दोनों तबतक इस पृथ्वीपर जीवित रहें, जबतक कि सम्पूर्ण लोकोंकी सत्ता बनी रहे। 

ये सभी वानर यहाँ रहकर मेरे पुत्र-पौत्रोंकी रक्षा करते रहें।'


क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी




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🌷🌷श्री लिंग महापुराण🌷🌷


शिव शक्ति तत्व निरूपण में मुनि मोह नाश का वर्णन....(भाग 1)

    

सूतजी बोले-पूर्व कहे हुये इस ध्यान यज्ञ या पाशुपत योग को सुनकर शिवजी को मुनीश्वर सनत्कुमार आदि प्रणाम करके पुनः महेश्वर से बोले- हे प्रभो ! 

आप हिमवान की पुत्री पार्वती जी के साथ जो क्रीड़ा करते हो उसका रहस्य भी हमें कहने की कृपा करिये।


ऐसा सुनकर नीललोहित पिनाकी अम्बिका की ओर देखकर और प्रणाम करके ब्राह्मणों से बोले - 

स्वेच्छा से शरीर धारण करने वाले मुझको बन्धन मोक्ष कुछ नहीं है। 

यह यज्ञ जीव माया और कर्मों के बन्धन में युक्त होकर भोगता है। 

आत्मरूप मुझे ज्ञान, ध्यान, बन्ध, मोक्ष कुछ भी नहीं है। 

यह प्रकृति पहले मेरी आज्ञा से मेरे मुख को देखने लगे और भवानी शंकर की तरफ देखने लगीं। 

माया मल से निर्मुक्त वह मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उमा एवं शंकर में भेद वास्तव में नहीं है तथा शंकर ही दो प्रकार के रूप में स्थित हैं इसमें सन्देह नहीं। 

परमेश्वर की आज्ञा से यह विज्ञान उत्पन्न होता है तब क्षण मात्र में ही मुक्ति होती है। 

करोड़ों कर्मों द्वारा नहीं। 

प्राणी गर्भ में हो, बालक हो, तरुण हो, वृद्ध हो सब परमेष्ठि शिवजी की कृपा से क्षण मात्र में मुक्त हो जाते हैं। 

यही जगन्नाथ शिव बंध मोक्ष करने वाले हैं। 

भू भुवः स्वः मह, जन, तप, सत्य आदि लोकों सातों द्वीपों में, ब्रह्मांड में, सब पर्वत तथा वनों में सम्पूर्ण जीव जो भी रहते हैं वह चराचर प्राणी सब शिव का ही रूप हैं। 

सब ही रुद्र स्वरूप हैं। 

अतः ऐसे रुद्र पुरुष को नमस्कार है। 

रुद्र की आज्ञा से यह देवी अम्बिका स्थित है।


यह सुनकर सब देवता और मुनीश्वर प्रसन्न हुए और अम्बिका के प्रसाद से शिव सायुज्य को प्राप्त हुये।


क्रमशः शेष अगले अंक में...




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श्रीमहाभारतम् 


।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


( आस्तीकपर्व )


त्रयोदशोऽध्यायः


जरत्कारु का अपने पितरों के अनुरोध से विवाह के लिये उद्यत होना...( दिन 86 )


तद् दारग्रहणे यत्नं संतत्यां च मनः कुरु । 

पुत्रकास्मन्नियोगात् त्वमेतन्नः परमं हितम् ।। २६ ।।


अतः बेटा ! तुम हमारी आज्ञासे विवाह करनेका प्रयत्न करो और संतानोत्पादनकी ओर ध्यान दो। 

यही हमारे लिये सर्वोत्तम हितकी बात होगी ।। २६ ।।


जरत्कारुरुवाच


न दारान् वै करिष्येऽहं न धनं जीवितार्थतः । 

भवतां तु हितार्थाय करिष्ये दारसंग्रहम् ।। २७ ।।


जरत्कारुने कहा- 

पितामहगण! मैंने अपने मनमें यह निश्चय कर लिया था कि मैं जीवनके सुख-भोगके लिये कभी न तो पत्नीका परिग्रह करूँगा और न धनका संग्रह ही; परंतु यदि ऐसा करनेसे आपलोगोंका हित होता है तो उसके लिये अवश्य विवाह कर लूँगा ।। २७ ।।


समयेन च कर्ताहमनेन विधिपूर्वकम् । 

तथा यद्युपलप्स्यामि करिष्ये नान्यथा ह्यहम् ।। २८ ।।


किंतु एक शर्तके साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। 

यदि उस शर्तके अनुसार किसी कुमारी कन्याको पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं ।। २८ ।।


सनाम्नी या भवित्री मे दित्सिता चैव बन्धुभिः । 

भैक्ष्यवत्तामहं कन्यामुपयंस्ये विधानतः ।। २९ ।।


( वह शर्त यों है- ) जिस कन्याका नाम मेरे नामके ही समान हो, जिसे उसके भाई-बन्धु स्वयं मुझे देनेकी इच्छासे रखते हों और जो भिक्षाकी भाँति स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्याका मैं शास्त्रीय विधिके अनुसार पाणिग्रहण करूँगा ।। २९ ।।


दरिद्राय हि मे भार्यां को दास्यति विशेषतः । 

प्रतिग्रहीष्ये भिक्षां तु यदि कश्चित् प्रदास्यति ।। ३० ।।


विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगनेपर भी कौन अपनी कन्या पत्नीरूपमें प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षाके तौरपर अपनी कन्या देगा तो उसे ग्रहण करूँगा ।। ३० ।।


एवं दारक्रियाहेतोः प्रयतिष्ये पितामहाः । 

अनेन विधिना शश्वन्न करिष्येऽहमन्यथा ।। ३१ ।। 

पितामहो ! 

मैं इसी प्रकार, इसी विधिसे विवाहके लिये सदा प्रयत्न करता रहूँगा। 

इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा ।। ३१ ।।


तत्र चोत्पत्स्यते जन्तुर्भवतां तारणाय वै । 

शाश्वतं स्थानमासाद्य मोदन्तां पितरो मम ।। ३२ ।।


इस प्रकार मिली हुई पत्नीके गर्भसे यदि कोई प्राणी जन्म लेगा तो वह आपलोगोंका उद्धार करेगा, अतः आप मेरे पितर अपने सनातन स्थानपर जाकर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें ।। ३२ ।।


इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि आस्तीकपर्वणि जरत्कारुतत्पितृसंवादे त्रयोदशोऽध्यायः ।। १३ ।।


इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत आस्तीकपर्वमें जरत्कारु तथा उनके पितरोंका संवाद नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ।। १३ ।।


क्रमशः...

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु


भगवान सूर्य के वंश :

भगवान सूर्य के वंश : भगवान सूर्य के वंश : भगवान सूर्य के वंश होने से मनु  सूर्यवंशी कहलाये ।   रघुवंशी :-  यह भारत का प्राचीन क्षत्रिय कुल ह...