https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: સપ્ટેમ્બર 2020

श्रीराधारानी ने अपने चरण कमलों में सुख देने वाले

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्रीमद्भागवत प्रवचन ।।

 श्रीराधारानी ने अपने चरण कमलों में सुख देने वाले 


           हमारी श्रीराधारानी ने अपने चरणकमलों में सुख देने वाले उन्नीस चिन्हों को धारण किया है...!

जो समस्त सुखों की खान, कमल से भी कोमल हैं और उनके चरणों की रज की चाह ब्रह्मा, शिव, सनकादिक, नारद, व्यास आदि भी करते हैं..!

            इन्हीं श्री चरणों का ध्यान करने पर मनुष्य को प्राकृत और अप्राकृत वैभव देने के साथ ही श्रीकृष्ण की प्राप्ति करा देते हैं...! 

इन चिह्नों के ध्यान से मन और हृदय पवित्र होते हैं तथा सांसारिक क्लेश, पीड़ा और भय का नाश होता है..

श्रीराधा के बांये पैर में कुल 11 चिह्न हैं --- 

             बांये पैर के अंगूठे के मूल में जौ, उसके नीचे चक्र, चक्र के नीचे छत्र, छत्र के नीचे कंकण, अंगूठे के बगल में ऊर्ध्वरेखा, मध्यमा के नीचे कमल का फूल, कमल के फूल के नीचे फहराती हुई ध्वजा, कनिष्ठिका के नीचे अंकुश, एड़ी में ऊंगलियों की ओर मुंह वाला अर्धचन्द्र,  चन्द्रमा के दायीं ओर पुष्प और बायीं ओर लता के चिह्न हैं...!

             छत्र --- 

श्रीराधा के बांये चरण में छत्र का चिह्न यह दर्शाता है कि यदुपति, व्रजपति, गोपपति एवं त्रिभुवनपति श्रीकृष्ण की स्वामिनी श्रीराधा हैं। 

वे समस्त गोपीयूथ की भी स्वामिनी हैं। 

इस चिह्न का ध्यान करने से मनुष्य को राज्यसुख और ऐश्वर्य की प्राप्ति व त्रिविध तापों से रक्षा होती है।

             चक्र --- 

व्रजभूमि में एकछत्र  व्रजेश्वरी श्रीराधा का ही राज्य है। 

तेज - तत्त्व का प्रतीक चक्र - चिह्न ध्यान करने पर भक्तों के मन के कामरूपी निशाचर को मारकर अज्ञान का नाश कर देता है।

              ध्वज --- 

कलियुग की कुटिल गति देखकर मनुष्य शीघ्र ही भयभीत हो जाता है। 

अत: उसे निर्भयता और सभी कार्यों में विजय दिलाने के लिए श्रीराधा ने अपने चरण में ध्वज-चिह्न धारण किया है।

              लता --- 

वाम - चरण में लता चिह्न है और श्रीकृष्ण के चरण में वृक्ष चिह्न है। 

जिस प्रकार लता वृक्ष का आश्रय लेकर सदैव ऊपर चढ़ती चली जाती है उसी प्रकार श्रीराधा सदैव श्रीकृष्णाश्रय में रहती हैं। 

लता चिह्न का ध्यान करने से साधक की सदैव उन्नति होती है और भगवान श्रीराधाकृष्ण में प्रीति बढ़ती है।

             पुष्प --- 

मानिनी ( रूठी ) श्रीराधिका को मनाते समय भगवान श्रीकृष्ण उनके पांव पलोटते है। 

श्रीराधा के चरण श्रीकृष्ण को कठोर न प्रतीत हों इस लिए श्रीराधाजी अपने चरणों में पुष्पचिह्न धारण करती हैं।

इस का ध्यान करने से मनुष्य श्रीराधाजी की भक्ति प्राप्त करता है, उसका यश बढ़ता है और मन प्रसन्न रहता है।

             कंकण --- 

निकुंजलीला में कंकणों के मुखरित होने से श्रीराधा ने कंकण उतारकर रख दिए और उनका चिह्न अपने चरणकमल में धारण किया है ।

 इनका ध्यान मंगलकारक है।

              कमल --- 

कमल चिह्न का भाव है कि लक्ष्मीजी इन चरणों का सदा ध्यान करती हैं, उन पर बलिहार जाती हैं। 

इस चिह्न का ध्यान सभी प्रकार के वैभव व नवनिधि का दाता है।

             ऊर्ध्वरेखा -   

संसाररूप सागर अपार है, इस लिए श्रीराधा ने वाम - चरण में ऊर्ध्वरेखा धारणकर पुल बांध दिया है। 

भक्त श्रीराधा के चरणों में ऊर्ध्वरेखा का ध्यान करने से सहज ही संसार-सागर से पार हो जाते हैं।

 जो श्रीराधा के चरणों की भक्ति करते हैं उनकी कभी अधोगति नहीं होती है।

               अंकुश --- 

मनरूपी उन्मत्त हाथी किसी भी प्रकार वश में नहीं आता है। 

अत: मन के निग्रह के लिए श्रीराधा के चरणों में अंकुश चिह्न का ध्यान करना चाहिए।

              अर्ध-चन्द्र --- अर्ध-चन्द्र निष्कलंक माना जाता है।

 यह शिवजी व गणेशजी के मस्तक पर विराजमान रहता है और एक - एक दिन करके वृद्धि को प्राप्त होता है। 

श्रीराधा के चरण में अर्ध - चन्द्र के चिह्न का ध्यान त्रिताप को नष्ट करके भक्ति और समृद्धि को बढ़ाता है।

 चन्द्रमा मन के देवता है....! 

भक्तों का मन श्रीराधा के चरणों में लगा रहे इसलिए श्रीराधा के चरण में अर्ध - चन्द्र का चिह्न है।

             यव ( जौ ) --- 

यव के चिह्न का अर्थ है कि भोजन की चिन्ता और सांसारिक मोहमाया को छोड़कर इन चरणकमलों की शरण लेने से सारे पाप - ताप मिट जाते हैं। 

जौ का चिह्न सर्वविद्या और सिद्धियों का दाता है....! 

इस का ध्यान करने वालों को सुमति, सुगति, विद्या और सुख - सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।
जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण जय श्री कृष्ण

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

रामायण के सात काण्ड मानव की उन्नति के सात सोपान

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जय द्वारकाधीश

।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।

♦️🌹रामायण के सात काण्ड मानव की उन्नति के सात सोपान🌹♦️

 
 1 बालकाण्ड  –

बालक प्रभु को प्रिय है क्योकि उसमेँ छल , कपट , नही होता विद्या , धन एवं प्रतिष्ठा बढने पर भी जो अपना हृदय निर्दोष निर्विकारी बनाये रखता है...!

उसी को भगवान प्राप्त होते है। 

बालक जैसा निर्दोष निर्विकारी दृष्टि रखने पर ही राम के स्वरुप को पहचान सकते है। 


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जीवन मेँ सरलता का आगमन संयम एवं ब्रह्मचर्य से होता है। 

बालक की भाँति अपने मान अपमान को भूलने से जीवन मेँ सरलता आती है....! 

बालक के समान निर्मोही एवं निर्विकारी बनने पर शरीर अयोध्या बनेगा ।

जहाँ युद्ध,वैर ,ईर्ष्या नहीँ है ,वही अयोध्या है...! 

2 अयोध्याकाण्ड  – 

यह काण्ड मनुष्य को निर्विकार बनाता है। 

जब जीव भक्ति रुपी सरयू नदी के तट पर हमेशा निवास करता है....!

तभी मनुष्य निर्विकारी बनता है। 

भक्ति अर्थात् प्रेम ,अयोध्याकाण्ड प्रेम प्रदान करता है । 

रामका भरत प्रेम , राम का सौतेली माता से प्रेम आदि ,सब इसी काण्ड मेँ है। 

राम की निर्विकारिता इसी मेँ दिखाई  देती है । 

अयोध्याकाण्ड का पाठ...!

करने से परिवार मेँ प्रेम बढता है ।

उसके घर मेँ लडाई झगडे नहीँ होते । 

उसका घर अयोध्या बनता है । 

कलह का मूल कारण धन एवं...!

प्रतिष्ठा है । 

अयोध्याकाण्ड का फल निर्वैरता है । 

सबसे पहले अपने घर की ही सभी प्राणियोँ मेँ भगवद् भाव रखना चाहिए।

3 अरण्यकाण्ड  – 

 यह निर्वासन प्रदान करता है । 

इसका मनन करने से वासना नष्ट होगी । 

बिना अरण्यवास ( जंगल ) के जीवन मेँ दिव्यता नहीँ आती । 

रामचन्द्र राजा होकर भी सीता के साथ वनवास किया । 

वनवास मनुष्य हृदय को कोमल बनाता है। 

तप द्वारा ही कामरुपी रावण का बध होगा । 

इसमेँ सूपर्णखा ( मोह ) एवं  शबरी ( भक्ति ) दोनो ही है। 

भगवान राम सन्देश देते हैँ कि मोह को त्यागकर भक्ति को अपनाओ ।

4 किष्किन्धाकाण्ड  – 

जब मनुष्य निर्विकार एवं निर्वैर होगा तभी जीव की ईश्वर से मैत्री होगी । 

इसमे सुग्रीव और राम अर्थात् जीव और ईश्वर की मैत्री का वर्णन है। 

जब जीव सुग्रीव की भाँति हनुमान अर्थात् ब्रह्मचर्य का आश्रय लेगा तभी उसे राम मिलेँगे। 

जिसका कण्ठ सुन्दर है वही सुग्रीव है। 

कण्ठ की शोभा आभूषण से नही बल्कि राम नाम का जप करने से है। 

जिसका कण्ठ सुन्दर है....!

उसी की मित्रता राम से होती है...! 

किन्तु उसे हनुमान यानी ब्रह्मचर्य की सहायता लेनी पडेगी...!
 

5 सुन्दरकाण्ड  – 

जब जीव की मैत्री राम से हो...! 

जाती है तो वह सुन्दर हो जाता है ।

इस काण्ड मेँ हनुमान को सीता के दर्शन होते है। 

सीताजी पराभक्ति है....!

जिसका जीवन सुन्दर होता है उसे ही पराभक्ति के दर्शन होते है । 

संसार समुद्र पार करने वाले को पराभक्ति सीता के दर्शन होते है । 

ब्रह्मचर्य एवं रामनाम का आश्रय लेने वाला संसार सागर को पार करता है ।

संसार सागर को पार करते समय....!

मार्ग मेँ सुरसा बाधा डालने आ जाती है....! 

अच्छे रस ही सुरसा है....! 

नये नये रस की वासना रखने वाली जीभ ही सुरसा है। 

संसार सागर पार करने की कामना रखने वाले को जीभ को वश मे रखना होगा । 

जहाँ पराभक्ति सीता है वहाँ शोक नही रहता ,जहाँ सीता है वहाँ अशोकवन है।

 6 लंकाकाण्ड  – 

जीवन भक्तिपूर्ण होने पर राक्षसो का संहार होता है काम क्रोधादि ही राक्षस हैँ । 

जो इन्हेँ मार सकता है....!

वही काल को भी मार सकता है । 

जिसे काम मारता है उसे काल भी मारता है....!

लंका शब्द के अक्षरो को इधर उधर करने पर होगा कालं । 

काल सभी को मारता है किन्तु हनुमान जी काल को भी मार देते हैँ । 

क्योँकि वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैँ पराभक्ति का दर्शन करते है ।

7 उत्तरकाण्ड  – 

इस काण्ड मेँ काकभुसुण्डि एवं गरुड संवाद को बार बार पढना चाहिए । 

इसमेँ सब कुछ है ।

जब तक राक्षस...!

काल का विनाश नहीँ होगा तब तक उत्तरकाण्ड मे प्रवेश नही मिलेगा । 

इसमेँ भक्ति की कथा है । 

भक्त कौन है  ? 

जो भगवान से एक क्षण भी अलग नही हो सकता वही भक्त है...! 

पूर्वार्ध मे जो काम रुपी रावण को मारता है....! 

उसी का उत्तरकाण्ड सुन्दर बनता है...!

वृद्धावस्था मे राज्य करता है । 

जब जीवन के पूर्वार्ध मे युवावस्था मे काम को मारने का प्रयत्न होगा तभी उत्तरार्ध –

उत्तरकाण्ड सुधर पायेगा । 

अतः जीवन को सुधारने का प्रयत्न युवावस्था से ही करना चाहिए ।

 _भावार्थ रामायण से_ 

 *🌹जय सियाराम जय जय सियाराम🌹* 
🙏 _जय श्री राम.... जय वीर हनुमान...._ 🙏

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।। सत्य महाभारत कि कहानी ।।

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।। सत्य महाभारत  कि कहानी ।।


।। सत्य कहानी ।।


*महाभारत  को पढ़ने का समय न हो तो भी इसका नव सार सूत्र हमारे जीवन में उपयोगी सिद्ध हो सकता है :-

1.  संतानों की गलत माँग और हठ पर समय रहते अंकुश नहीं लगाया, तो अंत में आप असहाय हो जायेंगे = *कौरव




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2.   आप भले ही कितने बलवान हो लेकिन  अधर्म के साथ हो तो आपकी विद्या अस्त्र शस्त्र शक्ति और वरदान सब निष्फल हो जायेगा =  *कर्ण*

3.   संतानों को इतना महत्वाकांक्षी मत बना दो कि विद्या का दुरुपयोग कर स्वयंनाश कर सर्वनाश को आमंत्रित करे =  *अश्वत्थामा

4.  कभी किसी को ऐसा वचन मत दो  कि आपको अधर्मियों के आगे समर्पण करना पड़े  = *भीष्म पितामह

5.  संपत्ति, शक्ति व सत्ता का दुरुपयोग और दुराचारियों का साथ अंत में स्वयंनाश का दर्शन कराता है =  *दुर्योधन


 

6.  अंध व्यक्ति- अर्थात मुद्रा, मदिरा, अज्ञान, मोह और काम ( मृदुला) अंध व्यक्ति के हाथ में सत्ता  भी विनाश की ओर ले जाती है  = *धृतराष्ट्र

7.   व्यक्ति के पास विद्या  विवेक से बँधी  हो तो विजय अवश्य मिलती है = *अर्जुन

8.   हर कार्य में छल, कपट, व  प्रपंच रच कर आप हमेशा सफल नहीं हो सकते = *शकुनि

9.  यदि आप नीति,  धर्म, व कर्म का सफलता पूर्वक पालन करेंगे तो विश्व की कोई भी शक्ति आपको पराजित नहीं कर सकती = *युधिष्ठिर

*‼️ यदि इन सूत्रों से शिक्षा लेना सम्भव नहीं होता है तो जीवन में  महाभारत संभव है।* 🙏

🙏🙏ॐ हरि ॐ 🙏🙏

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।। बहुत सुंदर वचनामृत कहानी ।।

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जय द्वारकाधीश

।। बहुत सुंदर कहानी ।।


।। बहुत सुंदर वचनामृत कहानी ।।

श्री डोंगरे जी महाराज वचनामृत 


भगवान शंकराचार्य जी से  किसी ने पूछा था भगवन इस संसार में शत्रु कौन है तो शंकराचार्य स्वामी जी ने उत्तर दिया कि अपना मन ही शत्रु है ; 

फिर से प्रश्न किया कि मित्र कौन है तो कहा कि मन ही मित्र है । 

जिस चाबी से ताला बंद होता है,उसी चाबी से खुलता भी है। 

यही मन जब काम सुख का चिंतन करता है ;




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विषयों का चिंतन करता है तो पतन करने वाला बन जाता है और भय क्रोध और अशांति उत्पन्न करता है और यही मन जब परमात्मा का चिंतन करता है तो आनंद देने वाला हो जाता है और भगवान की गोद में बैठा देता है । 

मन से ही बंधन है और मुक्ति भी मन से ही है ।

जयति जय बालकपि केलि
कौतुक उदित -चंडकर - मंडल -ग्रासकर्त्ता।

राहु  - रवि  - शुक्र - पवि  - गर्व खर्वीकरण
शरण  - भयहरण  जय  भुवन - भर्त्ता।।

हनुमानजी आपकी जय हो, जय हो। 

आपने बचपन में ही बाललीला से उदयकालीन प्रचण्ड सूर्य के मण्डल को लाल - लाल खिलौना समझकर निगल लिया था। 

उस समय आपने राहु, सूर्य,इन्द्र और वज्र का गर्व चूर्ण कर दिया था। 

हे शरणागत के भय हरने वाले! हे विश्व का भरण - पोषण करने वाले! ! 

आपकी जय हो,जय हो।'

जय श्री कृष्ण 





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     अनुपयोगिता सें लोहा जंग खा जाता है,

स्थिरता से पानी अपनी शुद्धता खो देता है..

          इसी तरह

निष्क्रियता मस्तिष्क की ताकत सोख लेती है..!

इस लिए  जीवन में निरंतर सक्रिय रहें .
    
संस्कारो पर नाज

बेटा अब खुद कमाने वाला हो गया था ...!

इस लिए बात - बात पर अपनी माँ से झगड़ पड़ता था ये वही माँ थी जो बेटे के लिए पति से भी लड़ जाती थी। 

मगर अब फाइनेसिअली इंडिपेंडेंट बेटा पिता के कई बार समझाने पर भी इग्नोर कर देता और कहता, 

" यही तो उम्र है शौक की,खाने पहनने की, जब आपकी तरह मुँह में दाँत और पेट में आंत ही नहीं रहेगी तो क्या करूँगा। "

बहू खुशबू भी भरे पूरे परिवार से आई थी, इस लिए बेटे की गृहस्थी की खुशबू में रम गई थी।

बेटे की नौकरी अच्छी थी तो फ्रेंड सर्किल उसी हिसाब से मॉडर्न थी।

बहू को अक्सर वह पुराने स्टाइल के कपड़े छोड़ कर मॉडर्न बनने को कहता, मगर बहू मना कर देती....! 

वो कहता....!




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" कमाल करती हो तुम, आजकल सारा ज़माना ऐसा करता है, मैं क्या कुछ नया कर रहा हूँ। "

तुम्हारे सुख के लिए सब कर रहा हूँ और तुम हो कि उन्हीं पुराने विचारों में अटकी हो।

क्वालिटी लाइफ क्या होती है तुम्हें मालूम ही नहीं।

और बहू कहती "क्वालिटी लाइफ क्या होती है, ये मुझे जानना भी नहीं है, क्योकि लाइफ की क्वालिटी क्या हो, मैं इस बात में विश्वास रखती हूँ।"

आज अचानक पापा आई. सी. यू. में एडमिट हुए थे।

हार्ट अटेक आया था।

डॉक्टर ने पर्चा पकड़ाया, *तीन लाख* और जमा करने थे। 

डेढ़ लाख का बिल तो पहले ही भर दिया था मगर अब ये तीन लाख भारी लग रहे थे। 

वह बाहर बैठा हुआ सोच रहा था कि अब क्या करे।

उसने कई दोस्तों को फ़ोन लगाया कि उसे मदद की जरुरत है, मगर किसी ने कुछ तो किसी ने कुछ बहाना कर दिया। 

आँखों में आँसू थे और वह उदास था तभी खुशबू  खाने का टिफिन लेकर आई और बोली,"अपना ख्याल रखना भी जरुरी है। 

ऐसे उदास होने से क्या होगा? हिम्मत से काम लो, बाबू जी को कुछ नहीं होगा आप चिन्ता मत करो। 

कुछ खा लो फिर पैसों का इंतजाम भी तो करना है आपको मैं यहाँ बाबूजी के पास रूकती हूँ आप खाना खाकर पैसों का इंतजाम कीजिये।

" पति की आँखों से टप - टप आँसू झरने लगे। "

" कहा न आप चिन्ता मत कीजिये। 

जिन दोस्तों के साथ आप मॉडर्न पार्टियां करते हैं आप उनको फ़ोन कीजिये, देखिए तो सही, कौन कौन मदद को आता हैं। "

" पति खामोश और सूनी निगाहों से जमीन की तरफ़ देख रहा था।

कि खुशबू का हाथ उसकी पीठ पर आ गया। "

और वह पीठ  को सहलाने लगी।

"सबने मना कर दिया। "

सबने कोई न कोई बहाना बना दिया खुशबू।

आज पता चला कि ऐसी दोस्ती तब तक की है जब तक जेब में पैसा है। 



किसी ने भी हाँ नहीं कहा जबकि उनकी पार्टियों पर मैंने लाखों उड़ा दिये।"

" इसी दिन के लिए बचाने को तो माँ-बाबा कहते थे। 

खैर, कोई बात नहीं, आप चिंता न करो, हो जाएगा सब ठीक।

 कितना जमा कराना है? "

" अभी तो तनख्वाह मिलने में भी समय है, आखिर चिन्ता कैसे न करूँ खुशबू ? "

"तुम्हारी ख्वाहिशों को मैंने सम्हाल रखा है।"

"क्या मतलब....?"




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" तुम जो नई नई तरह के कपड़ो और दूसरी चीजों के लिए मुझे पैसे देते थे वो सब मैंने सम्हाल रखे हैं।

माँ जी ने फ़ोन पर बताया था, तीन लाख जमा करने हैं। मेरे पास दो लाख थे।

बाकी मैंने अपने भैया से मंगवा लिए हैं।

टिफिन में सिर्फ़ एक ही डिब्बे में खाना है बाकी में पैसे हैं।"

खुशबू ने थैला टिफिन सहित उसके हाथों में थमा दिया।

" खुशबू ! तुम सचमुच अर्धांगिनी हो, मैं तुम्हें मॉडर्न बनाना चाहता था, हवा में उड़ रहा था।
मगर तुमने अपने संस्कार नहीं छोड़े. आज वही काम आए हैं। "

सामने बैठी माँ के आँखो में आंसू थे उसे आज खुद के नहीं बल्कि पराई माँ के संस्कारो पर नाज था और वो बहु के सर पर हाथ फेरती हुई ऊपरवाले का शुक्रिया अदा कर रही थी।




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सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।


‼️राम कृपा ही केवलम्‼️


वाल्मीकि रामायण अनुसार ऋषि विश्वामित्र द्वारा कही गई मा गंगा जन्म की कथा

ऋषि विश्वामित्र ने इस प्रकार कथा सुनाना आरम्भ किया, "पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। 

सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। 

हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम उमा था। 

गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न थी। 

वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर मनमाने मार्गों का अनुसरण करती थी। 

उसकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देवता लोग विश्व के क्याण की दृष्टि से उसे हिमालय से माँग कर ले गये। 

पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा बड़ी तपस्विनी थी। 




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उसने कठोर एवं असाधारण तपस्या करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया।"

विश्वामित्र के इतना कहने पर राम ने कहा, "गे भगवन्! जब गंगा को देवता लोग सुरलोक ले गये तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?" 

इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, "महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष तक भी उनके किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। 

एक बार महादेव जी के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। 

जब उनके इस विचार की सूचना ब्रह्मा जी सहित देवताओं को मिली तो वे विचार करने लगे कि शिव जी के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? 

उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत किया। 

उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ। 

देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। 

इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। 

गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करत हुये बहुत दिन हो गये हैं। 

मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। 

उमा ने गंगा आश्वासन दिया कि वे इसके लिये कोई प्रबन्ध करने का प्रयत्न करेंगी। 

"वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। 




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उनके कोई पुत्र नहीं था। 

सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। 

केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। 

सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति थी जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। 

दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे। 

उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। 

दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे। 

कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। 

केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।

उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। 

रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकल जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। 

उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। 

कालचक्र बीतता गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। 

सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। 

इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। 

असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। 

अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। 

एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। 

शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया।





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राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, "गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। 

अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये।" 

राम के इस तरह कहने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, " राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। 

फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। 

यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण करके उस घोड़े को चुरा लिया। 

घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। 

पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। 

उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। 

खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। 

उनके इस नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। 

पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल पर है इस लिये वे इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। 

पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। 

रुष्ट होकर सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो। 

पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये। 

उन्होंने देखा कपिलदेव आँखें बन्द किये बैठे हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। 

उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। 

सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। 

उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया। 





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"जब महाराज सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। "

वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उसी मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा जिसे उसके चाचाओं ने बनाया था।

मार्ग में जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिले उनका यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। 

अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। 

उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कहीं जलाशय दिखाई नहीं पड़ा। 

तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। 

उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि बाबाजी! 

मैं इनका तर्पण करना चाहता हूँ। 

पास में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताइये। 

यदि आप इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानते हैं तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें। 

गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। 

इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है। 

अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। 

गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृतान्त सुनाया। 

महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। 

वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी।" 

थोड़ा रुककर ऋषि विश्वामित्र कहा, "महाराज सगर के देहान्त के पश्चात् अंशुमान बड़ी न्यायप्रियता के साथ शासन करने लगे। 

अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये। 

दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्य का भार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने लगे किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो पाई और उनका स्वर्गवास हो गया। 

इधर जब राजा दिलीप का धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ तो उसे राज्य का भार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने चले गये। 

पर उन्हें भी मनवांछित फल नहीं मिला। 

भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। 

इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। 

उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। 

इस के अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो। 

ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। 

गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। 

इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये।

"भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। 

वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। 

केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। 




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अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। 

इस की सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। 

उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इस लिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। 

गंगा के इस वेगपूर्ण अवतरण से उनका अहंकार शिव जी से छुपा न रहा। 

महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। 

गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। 

गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। 

भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। 

छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। 

गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। 

सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली। 

जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगा जी जाती थीं। 

स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे। 

जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। 

चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। 

गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं। 

इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। 

यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। 

उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। 

इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। 

उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। 

उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी। 


‼️राम कृपा ही केवलम्‼️


*❗अनपायनी भक्ति❗*

   


प्रश्न उठता है भक्ति कैसी हो ?

        

तब इसके लिए हमें श्रीरामचरितमानस में स्वयं सर्व श्रीगोस्वामी तुलसीदास, सीता जी, हनुमान जी, भरत जी, लक्ष्मण जी, भगवान के सखा गुह, सनकादिक ऋषि-मुनि इत्यादि जैसी भक्ति का वरदान प्रभु से मांगते हैं उसे समझना होगा।

श्रीमद्भागवत में श्री हनुमान जी महाराज को 👉परम भागवत ( अर्थात सर्वश्रेष्ठ भक्त ) कहा गया है, श्री हनुमान जी महाराज स्वयं भगवान शिव के अवतार हैं, और शिव जी को भी परम-वैष्णव कहा गया है, अतः भक्ति में हनुमान जी महाराज और शिव जी दोनों हीं उच्चतम आदर्श हैं । 

श्री रामचरितमानस में श्रीहनुमान जी महाराज प्रभु से अनपायनी भक्ति का वर मांगते हैं।

यथा-

चौ॰-नाथ भगति अति सुखदायनी ।
  देहु कृपा करि अनपायनी ॥

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी ।
  एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥

 ( श्रीरामचरितमानस 5.34.1 )

भावार्थ:-हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। 

श्री हनुमान्‌जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने एवमस्तु' ( ऐसा ही हो ) कहा॥

उससे पहले श्री हनुमान जी को सीता माँ की कृपा मिल चुकी थी ..उन्हें पहले सीता जी का अनुपम वरदान मिल चूका था।

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
 करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
 ( श्री रामचरितमानस 5.17.2 )




भावार्थ:-हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने हो ओ। 

श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें, वो तुमसे बहुत छोह ( प्रेम ) करें।

अतः साधक सीता जी के कृपा की छाया में रहते हुए श्री हनुमान जी महाराज का अनुसरण कर प्रभु श्री राम की"अनपायनी भक्ति को प्राप्त कर सकता है।

भक्ति का भाव स्वरुप जैसा भी हो सब में सीता जी की कृपा जरुरी है, सभी भावों में प्रभु के प्रति सेवा का भाव अर्थात 👉 "दास्यभक्ति" का तत्व हमेशा मौजूद होता है, दास्य-भक्ति के परम-आदर्श श्री हनुमान जी महाराज हैं।

  *🌹🙏जय जय राम सीताराम राम राम राम 🙏🌹*

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
सेल नंबर: . + 91- 7010668409 / + 91- 7598240825 WHATSAPP नंबर : + 91 7598240825 ( तमिलनाडु )
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