https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: જાન્યુઆરી 2025

सत्संग का प्रभाव / समय’ और ‘धैर्य / भगवान शंकर का डमरू

 सत्संग का प्रभाव / समय’ और ‘धैर्य / भगवान शंकर का डमरू

             सत्संग का प्रभाव

एक शिष्य अपने गुरु के पास आकर बोला......! 

‘गुरुजी, लोग हमेशा प्रश्न करते है कि सत्संग का असर क्यों नहीं होता? 

मेरे मन में भी यह प्रश्न चक्कर लगा रहा है। 

कृपा करके मुझे इसका उत्तर समझाएं।

गुरुजी ने उसके सवाल पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। 

लेकिन थोड़ी देर बाद बोले, ‘वत्स जाओ, एक घड़ा मदिरा ले आओ।’


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शिष्य मदिरा का नाम सुनते ही अवाक रह गया। 

‘ गुरुजी और शराब’ वह सोचता ही रह गया। 

गुरूजी ने फिर कहा,....! ‘ 

सोचते क्या हो......!

' जाओ एक घड़ा मदिरा ले आओ।’ 

वह गया और मदिरा का घड़ा ले आया। 

फिर गुरुजी ने शिष्य से कहा....! 

‘ यह सारी मदिरा पी लो। ’ 

शिष्य यह बात सुनकर अचंभित हुआ। 

आगाह करते हुए गुरु जी ने फिर कहा,.....! 

‘ वत्स, एक बात का ध्यान रखना, मदिरा मुंह में लेने पर निगलना मत। 

इसे शीघ्र ही थूक देना। 

मदिरा को गले के नीचे न उतारना। ’ 

शिष्य ने वही किया, मदिरा को मुंह में भरकर तत्काल थूक देता, देखते - देखते घड़ा खाली हो गया।

फिर आकर उसने गुरुजी से कहा....! 

‘ गुरुदेव, घड़ा खाली हो गया। ’ 

गुरुजी ने पूछा, ‘तुझे नशा आया या नहीं?’ 

शिष्य बोला, ‘गुरुदेव, नशा तो बिल्कुल नहीं आया।

’ गुरुजी बोले.....!, 

‘अरे मदिरा का पूरा घड़ा खाली कर गए और नशा नहीं चढ़ा? 

यह कैसे संभव है ? ’ 

शिष्य ने कहा......! 

‘ गुरुदेव, नशा तो तब आता जब मदिरा गले से नीचे उतरती.....! 

गले के नीचे तो एक बूंद भी नहीं गई फिर नशा कैसे चढ़ता ? ’

गुरुजी ने समझाया....! 

‘ सत्संग को ऊपर-ऊपर से जान लेते हो, सुन लेते हो गले के नीचे तो उतारते ही नहीं....! 

व्यवहार में यह आता नहीं तो प्रभाव कैसे पड़ेगा? 

सत्संग के वचन को केवल कानों से नहीं,मन की गहराई से भी सुनना होता है।

एक - एक वचन को ह्रदय में उतारना पड़ता है।

उस पर आचरण करना ही सत्संग के वचनों का सम्मान है..!!


   🙏🏿🙏🏻🙏जय श्री कृष्ण🙏🏽🙏🏼🙏🏾

         ' समय ’ और ‘ धैर्य '

एक साधु था, वह रोज घाट के किनारे बैठ कर चिल्लाया करता था.....! 

”जो चाहोगे सो पाओगे”, जो चाहोगे सो पाओगे।” 

बहुत से लोग वहाँ से गुजरते थे पर कोई भी उसकी बात पर ध्यान नही देता था और सब उसे एक पागल आदमी समझते थे.



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एक दिन एक युवक वहाँ से गुजरा और उसने उस साधु की आवाज सुनी....!

 “ जो चाहोगे सो पाओगे”, 

जो चाहोगे सो पाओगे”,

और आवाज सुनते ही उसके पास चला गया उसने साधु से पूछा -

“महाराज आप बोल रहे थे कि....! 

" जो चाहोगे सो पाओगे’ तो क्या आप मुझको वो दे सकते हो जो मै जो चाहता हूँ? ”

साधु उसकी बात को सुनकर बोला –

“ हाँ बेटा तुम जो कुछ भी चाहता है मै उसे जरुर दुँगा, बस तुम्हे मेरी बात माननी होगी लेकिन पहले ये तो बताओ कि तुम्हे आखिर चाहिये क्या? ” 

युवक बोला-

” मेरी एक ही ख्वाहिश है मै हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनना चाहता हूँ.“

साधू बोला.....!

” कोई बात नही मै तुम्हे एक हीरा और एक मोती देता हूँ....! 

उससे तुम जितने भी हीरे मोती बनाना चाहोगे बना पाओगे! ” 

और ऐसा कहते हुए साधु ने अपना हाथ आदमी की हथेली पर रखते हुए कहा....! " 

”  पुत्र, मैं तुम्हे दुनिया का सबसे अनमोल हीरा दे रहा हूं....! "

लोग इसे ‘ समय ’ कहते हैं....! 

इसे तेजी से अपनी मुट्ठी में पकड़ लो और इसे कभी मत गंवाना, तुम इससे जितने चाहो उतने हीरे बना सकते हो.

युवक अभी कुछ सोच ही रहा था कि साधु उसका दूसरी हथेली, पकड़ते हुए बोला....! 

” पुत्र , इसे पकड़ो, यह दुनिया का सबसे कीमती मोती है.....! " 

लोग इसे “ धैर्य ” कहते हैं....! 

जब कभी समय देने के बावजूद परिणाम ना मिलें तो इस कीमती मोती को धारण कर लेना....! 

याद रखन जिसके पास यह मोती है....! 

वह दुनिया में कुछ भी प्राप्त कर सकता है.....!


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युवक गम्भीरता से साधु की बातों पर विचार करता है और निश्चय करता है.....! 

कि आज से वह कभी अपना समय बर्वाद नहीं करेगा और हमेशा धैर्य से काम लेगा। 

और ऐसा सोचकर वह हीरों के एक बहुत बड़े व्यापारी के यहाँ काम शुरू करता है और अपने मेहनत और ईमानदारी के बल पर एक दिन खुद भी हीरों का बहुत बड़ा व्यापारी बनता है....!

तात्पर्य :

' समय ’ और ‘ धैर्य ....!’ 

वह दो हीरे-मोती हैं जिनके बल पर हम बड़े से बड़ा लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।

अतः ज़रूरी है कि हम अपने कीमती समय को बर्वाद ना करें और अपनी मंज़िल तक पहुँचने के लिए धैर्य से काम लें..!!

    🙏🏾🙏🏿🙏🏼जय श्री कृष्ण🙏🏽🙏🙏🏻


|| भगवान शंकर का डमरू ||


भगवान शिव के डमरू का महत्व यह है कि यह डमरू ब्रह्मांड का प्रतीक है, जो हमेशा विस्तार और पतन कर रहा है। 

एक विस्तार के बाद यह ढह जाता है और फिर इसका विस्तार होता है, यह सृष्टि की प्रक्रिया है। 


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अगर आप अपने दिल की धड़कन को देखें तो यह सिर्फ एक सीधी रेखा नहीं है बल्कि एक लय है जो ऊपर और नीचे जाती है। 

सारा संसार लय के सिवा कुछ नहीं है; 

ऊर्जा बढ़ रही है और फिर से उठने के लिए ढह रही है।तो डमरू इसी ब्रह्मांड का प्रतीक है। 

डमरू के आकार को देखो, यह ऊपर और नीचे की ओर ढह जाता है और फिर से फैलता है। 

पुराणों के अनुसार भगवान शिव के गले पर मौजूद सर्प वासुकी नागों के राजा हैं।

भगवान शिव का घातक सर्प को आभूषण के रूप में धारण करना यह दर्शाता है कि वे समय और मृत्यु से स्वतंत्र हैं और वास्तव में समय भी उनके ही नियंत्रण में है। 

भगवान शिव को सभी प्राणियों के स्वामी पशुपतिनाथ के रूप में भी जाना जाता है और जैसा कि एक और कहानी है....! 

ऐसा माना जाता है कि एक बार जब सांप की प्रजाति खतरे में थी....! 

तो शिव ने उन्हें आश्रय दिया और इस प्रकार, वह एक रक्षक के रूप में इन सांपों को आभूषण के रूप में पहनते हैं। 

पशुओं के स्वामी होने के कारण उनके व्यवहार पर भी उनका पूर्ण नियंत्रण होता है। 

सांप दुनिया में सभी बुराई और काल प्रकृति के स्वामी हैं। 

सर्प को अपने गले में धारण करके....! 

भगवान शिव हमें आश्वासन देते हैं कि कोई भी बुराई हमें छू नहीं सकती है या हमें नष्ट नहीं कर सकती है।

        || डमरू धारी सब पर भारी ||

पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 

( द्रविड़ ब्राह्मण )

शनि देव की कथा

*||  शनिदेव की कथा-||*


शनि देव की कृपा 


राजा हरिश्चंद्र का जीवन एक प्रेरणा स्रोत है।

जिसमें सत्य के प्रति उनकी निष्ठा और समर्पण ने उन्हें अद्भुत चुनौतीओं का सामना करने के लिए प्रेरित किया।



शनिदेव,जो न्याय और सच्चाई के देवता माने जाते हैं।

ने राजा हरिश्चंद्र की कठिनाइयों के दौरान उनके प्रति अपनी कृपा प्रदर्शित की। 

हरिश्चंद्र ने अपनी सच्चाई के लिए पुत्र का बलिदान किया और पत्नी को बेचने जैसी कठिनाइयों का सामना किया। 

ऐसे समय में, जब सारे जगत ने उनके साहस को चुनौती दी, शनिदेव ने उनका साथ दिया।

राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा केवल उनके व्यक्तिगत संघर्ष तक सीमित नहीं थी।

बल्कि यह इस बात का प्रतीक थी कि सत्य के मार्ग पर चलना कितना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। 

उन्होंने अपने सिद्धांतों को बनाए रखा, जिसके परिणाम स्वरूप शनिदेव ने उन्हें आशीर्वाद दिया। 

यह आशीर्वाद न केवल उनके जीवन के कठिन क्षणों को आसान बनाने में सहायक रहा। 

बल्कि यह उनके प्रति शनिदेव की करुणा और न्याय का प्रतीक भी बना। 

राजा हरिश्चंद्र ने अपनी मेहनत और ईमानदारी से उनके साथ अपनी स्थायी बंधन स्थापित किया ।

राजा हरिश्चंद्र के जीवन में शनिदेव की कृपा का महत्व इस बात से भी स्पष्ट होता है कि जब वह सत्य के मार्ग से भटकने के लिए विवश हुए।

तब भी उनके प्रयासों के फलस्वरूप शनिदेव ने उन्हें सही रास्ता दिखाने की भरपूर कोशिश की। 

यही कारण है कि आज भी लोगों में राजा हरिश्चंद्र के प्रति श्रद्धा और शनिदेव के प्रति विश्वास बना हुआ है।






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सत्य की राह पर चलकर उन्होंने शनिदेव की कृपा अर्जित की, जो हमें यह संदेश देती है कि सच्चाई और ईमानदारी हमेशा फल देती है।

राजा हरिश्चंद्र का अद्वितीय उदाहरण -

राजा हरिश्चंद्र भारतीय इतिहास के एक प्रतीकात्मक व्यक्तित्व हैं।

जिन्होंने सत्य और न्याय के प्रति अपनी अटूट निष्ठा से ज्ञात किया। 

उनका उदाहरण केवल एक कथा नहीं, बल्कि यह एक प्रेरणा है, जो समाज को सच्चाई और अपने आदर्शों के प्रति समर्पण की सीख देती है। 

वह एक ऐसे राजा थे, जिन्होंने अपने राज्य की सुख-शांति के लिए किसी भी कीमत पर सत्य को नहीं छोड़ा। 

उनके जीवन में आने वाली कठिनाइयों और परीक्षणों के बीच, उनके बलिदान ने यह सिद्ध किया कि व्यक्ति की सच्चाई और ईमानदारी उसे हर परिस्थिति में ऊंचा स्थान देती है।

राजा हरिश्चंद्र का सबसे बड़ा बलिदान तब देखा गया जब उन्होंने अपने पिता की अंतिम संस्कार के लिए सभी संपत्ति और स्थिति को त्याग दिया। 

इस कृत्य से यह स्पष्ट हो गया कि जीवन में सोने या सिंहासन की तुलना में सत्य का पालन सर्वोपरि है। 

उनका उदाहरण हमें सिखाता है कि व्यक्तिगत सुख से अधिक महत्वपूर्ण है।

समाज और मानवता के प्रति हमारी जिम्मेदारियाँ। 

उन्होंने जो मार्ग चुना, वह केवल एक व्यक्तिगत यात्रा नहीं थी।






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बल्कि यह समाज को यह संदेश देने का माध्यम था कि सच्चाई और नैतिकता हमेशा विजयी होती हैं।

राजा हरिश्चंद्र की कथा केवल ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि इनमें अनेकों प्रासंगिकता है जो आज के दौर में भी अत्यधिक उचित हैं। 

हमें उनसे यह सीखने की आवश्यकता है कि संकट और चुनौतियों के समय हमें अपनी निष्ठा और आदर्शों को नहीं छोड़ना चाहिए। 

उनके जीवन से प्राप्त यह शिक्षा हमें प्रेरित करती है कि हमें सदैव सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए।

चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों।

राजा हरिश्चंद्र की कथा भारतीय धार्मिक किंवदंतियों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। 

उनके साहस, सत्यनिष्ठा और बलिदान की कहानी ने सदियों से लोगों को प्रेरित किया है। 

इस कथा का केंद्रीय तत्व शनिदेव का प्रभाव है। 

राजा हरिश्चंद्र ने अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना किया, जिसका मुख्य कारण शनिदेव का श्राप था। 

यह श्राप उन्हें उनके वादे को निभाने के लिए बाधित करता है। 

विभिन्न चुनौतियों और संतापों के बावजूद,राजा हरिश्चंद्र ने सच्चाई का मार्ग नहीं छोड़ा।

जो इस कथा के महत्वपूर्ण नैतिक पाठों में से एक है।

इस कथा के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि जीवन में कठिनाइयों का सामना धैर्य और सत्यनिष्ठा के साथ करना चाहिए। 

शनिदेव, जो न्याय और कर्म का प्रतीक हैं, ने राजा के कार्यों के अनुसार उन्हें विभिन्न परीक्षाओं में डाला, जिससे ये सिद्ध होता है।

कि व्यक्ति के कर्म ही उसके जीवन की दिशा निर्धारित करते हैं। 

हरिश्चंद्र ने स्पष्ट किया कि सत्य और धर्म का पालन करना कितना महत्वपूर्ण है।

चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों। उनके त्याग और बलिदान ने यह सिखाया कि आत्म-सम्मान और नैतिकता को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए।

इस प्रकार, राजा हरिश्चंद्र और शनिदेव की कथा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है।
बल्कि यह हमारे जीवन में सत्य, नैतिकता और कर्तव्य के महत्व पर भी प्रकाश डालती है। 

इस कथा से प्राप्त शिक्षा आज के समकालीन समाज में भी हमारे लिए प्रासंगिक है। 

जीवन की चुनौतियों का सामना करते समय हमें धैर्य और मजबूती के साथ आगे बढ़ना चाहिए। 

सत्य और नैतिकता का पालन करना ही असली विजय है।

 || जय श्री शनिदेव प्रणाम आपको ||

एक बहुत ही सुंदर रचना पढ़ने को मिली है, आप भी आनंद लें।

हैं राम हमारे यूपी में
हैं श्याम हमारे यूपी में
           शिव की काशी है यूपी मे
             रहते सन्यासी यूपी में...!






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ब्रज का पनघट है यूपी में
गंगा का तट है यूपी में
          मोदी का मेला यूपी में
          योगी का खेला यूपी में....!

अद्भुत अपनापन यूपी में
अद्भुत अल्हड़पन यूपी में
          दशरथ के नंदन यूपी में
         यशुदा के नंदन यूपी में....!

वेदों की वानी यूपी में
झांसी की रानी यूपी में
        हैं सभी सयानें यूपी में
        हैं देश दिवानें यूपी में....!

हम हिन्दू जिस दिन ठानेंगे
हम अपनीं करके मानेंगे
      श्री राम नगरिया न्यारी है
      मथुरा काशी की बारी है....!

जिनको बस सत्ता प्यारी है
यूपी उन सब पर भारी है
      सम्मान मिलेगा यूपी में
      फिर फूल खिलेगा यूपी में....!

हम उदासीनता त्यागेंगे
घर छोड़ राक्षस सब भागेंगे
     यह यूपी है इंसानों की
    यह यूपी है भगवानों की....!

उत्तर प्रदेश है,उत्तम प्रदेश
      सत्य सनातन की जय हो....!



कर्म के अनुसार परिणाम तय
    होतें है।कर्म के इस सुनिश्चित
    एवं अटल विधान से अवतारी...!

    योगी ,सिद्ध,महात्मा भी नहीं
    बच पाते।विष्णु के रूप में मिले
    नारद के शाप का परिणाम था...!

    जो मर्यादा पुरुषोत्तम राम को
    चौदह वर्षों तक पत्नी के विरह
    में वन-वन भटकना पड़ा।कर्म-
    फल का यही सिद्धांत भगवान
    कृष्ण पर भी लागू हुआ, जब...!

    उन्हें राम के रूप में बाली वध
    के फलस्वरूप एक शिकारी के
    तीर से प्राण गवाने पड़े।किसी
    जन्म में धृतराष्ट्र ने चिड़िया के...!

    बच्चों की आँखें फोड़ी थी,उस
    कर्मफल को भोगने के लिए
    उन्हें अंधता मिली।हालांकि
    इसमें उन्हें 108 जन्म लगे।कर्म
    की गति को बड़ा ही गूढ़ माना
    गया है।
" गहना कर्मणोगति "।
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 
  🙏🙏🙏🙏🙏🙏

गोवर्धन पर्वता महात्म

|| गोवर्द्धन लीला ||

       
गो का अर्थ है ज्ञान और भक्ति, ज्ञान और भक्ति को बृद्धिगत करने वाली लीला ही गोवर्धन लीला है । 




ज्ञान और भक्ति के बढ़ने से देहाध्यास नष्ट होता है जीव को रासलीला में प्रवेश मिलता है।

ज्ञान और भक्ति को बढ़ाने हेतु क्या जाय ?
       
घर छोड़ना पड़ेगा, गोप गोपियों ने घर छोड़कर गिरिराज पर वास किया था।

हमारा घर भोगभूमि होने के कारण राग - द्वेष , अहंभाव - तिरस्कार , वासना आदि हमें घेरे रहते हैं।

घर में विषमता होती है और पाप भी ,भोग भूमि में भक्ति कैसे बढ़ जायेगी, सात्विक भूमि में ही भक्ति बढ़ सकती है।

गृहस्थ का घर विविध वासनाओं के सूक्ष्म परमाणु से भरा हुआ होता है।

ऐसा वातावरण भक्ति में बाधक है ऐसे वातावरण में रहकर न तो भक्ति बढ़ाई जा सकती है और न ज्ञान, अतः एकाध मास किसी नीरव पवित्र स्थल पर जाकर , किसी पवित्र नदी के तट पर वास करके भक्ति और ज्ञान की आराधना श्रेयस्कर है।

प्रवृत्ति छोड़ना तो अशक्य है किन्तु उसे कम करके निवृत्ति बढ़ायी जा सकती है।

गो का अर्थ इन्द्रिय भी है, इन्द्रियों का संवर्धन त्याग से होता है,भोग से नहींं, भोग से इन्द्रियाँ क्षीण होती हैं।





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भोगमार्ग से हटाकर उन्हें भक्तिमार्ग में ले जाना चाहिए, किन्तु उस समय इन्द्रादि देव वासना की बरसात कर देते हैं।

मनुष्य की भक्ति उनसे देखी नहीं जाती, प्रवृत्तिमार्ग छोड़कर निवृत्ति की ओर बढ़ते समय विषय वासना की बरसात बाधा करने आ जाती है।

इन्द्रियों का देव इन्द्र प्रभु भजन करने जा रहे जीव को सताता है, वह सोचता है कि उसके सिर पर पाँव रख कर उसको कुचल कर जीव आगे बढ़ जायेगा।

अतः ध्यान , सत्कर्म , भक्ति आदि में जीव की अपेक्षा देव अधिक बाधक हैं।

जीव सतत् ध्यान करे तो स्वर्ग के देवों से भी श्रेष्ठ हो जाता है।

इस लिए जब भी इन्द्र भक्ति मार्ग में विघ्न डाले तब गोवर्धन नाथ का आश्रय लेना चाहिए।

गोवर्धन लीला में पूज्य और पूजक एक हो जाते हैं, जब तक पूज्य एवं पूजक एक न हों तब तक आनन्द नहीं आता, पूजा करने वाले श्रीकृष्ण ने गिरिराज पर आरोहण किया यह तो अद्वैत का प्रथम सोपान है।





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गोवर्धन लीला ज्ञान और भक्ति को बढ़ाती है। 

जब ईश्वर के व्यापक स्वरुप का अनुभव हो पाता है , तभी ज्ञान और भक्ति बढ़ती है, ईश्वर जगत में व्याप्त है और सारा जगत ईश्वर में समाहित है।

वासना वेग को हटाने के लिए श्रीकृष्ण का आश्रय लेना चाहिए।

भगवान ने हाथ की सबसे छोटी उँगली पर गोवर्धन पर्वत धारण किया था यह उँगली सत्वगुण का प्रतीक है।

इन्द्रियों की वासना वर्षा के समय सत्वगुण का आश्रय लेना चाहिए, दुःख में विपत्ति में मात्र प्रभू का आश्रय लेना चाहिए-

*भक्ताभिलाषी चरितानुसारी*
  *दुग्धादि चौर्येण यशोविसारी।*

*कुमारतानन्दित घोषनारी मम*
  *प्रभूः श्री गिरिराजधारी।।*

  || गोवर्धन धारी की जय हो ||

भक्त को औरों के धर्म का आदर करना चाहिए |
  

        

सारे अवतारों में महापुरुषों ने अलग - अलग तरीकों से एक ही बात बताई है कि मानव को भक्त होना चाहिए। 
भक्ति करना जीवन के प्रति एक आश्वासन होता है कि सारे काम हम कर रहे हैं।

लेकिन कराने वाली शक्ति कोई और है। 

एक भक्त की ये विशेषता होती है कि वह अपने धर्म के प्रति समर्पित रहता ही है। 

लेकिन दूसरे के धर्म का वह आदर करता है। 

श्रीराम ने भी एक बार कहा है कि-

 *भगति पच्छ हठ नहिं सठताई।*
       *दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।*

अर्थात्, 

जो भक्त अपनी भक्ति के पक्ष में हठ करता है।

लेकिन दूसरे के मत का खंडन करने की मूर्खता नहीं करता है और जिसने दूसरे के धर्म के खंडन करने के कुतर्कों को बहा दिया है।

ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।' 

अभी महाकुंभ चल रहा है। 

ये इसी का प्रमाण है। 

हमें अपने धर्म का मान करना चाहिए। 

दूसरे क्या कहते हैं, ये उन पर छोड़ दो। 

क्या जवाब देंगे लोगों का जब सवाल ही बेकार हो। 

जब आप एक धर्म के प्रति समर्पित हो रहे होते हैं तो दूसरे आपको अपने धर्म के प्रति बेहोश करने का प्रयास करेंगे। 

भक्ति होश का एक नाम है। 

इसलिए एक भक्त को कभी बेहोश नहीं होना चाहिए। 

जब आप होश में होते हैं तो वही करते हैं, जो चाहते हैं। 

लेकिन जब बेहोश हो जाते हैं, तो करते कुछ और हैं लेकिन होता कुछ और ही है।

    || जय श्री सीताराम जी ||

|| माघ मास की षटतिला एकादशी ||
         
इस एकादशी को माघ कृष्ण एकादशी, तिल्दा एकादशी या सत्तिला एकादशी भी कहा जाता है।



इस दिन भगवान विष्णु की विधिवत पूजा करने के साथ व्रत रखने का विधान है।

हिंदू धर्म में एकादशी तिथि का विशेष महत्व है। 

हर साल 24 एकादशी पड़ती हैं, जिसमें एक शुक्ल पक्ष तो वहीं दूसरी एकादशी कृष्ण पक्ष की होती है। ।

वहीं यहां हम बात करने जा रहे हैं षटतिला एकादशी के बारे में, जो इस बार 25 जनवरी को रखा जाएगा।

वैदिक पंचांग के मुताबिक 24 जनवरी 2025 को शाम 7 बजकर 25 पर होगी और इस तिथि का समापन 25 जनवरी को रात 8 बजकर 31 मिनट पर होगा। 

ऐसे में 25 जनवरी 2025 को षटतिला एकादशी का व्रत रखा जाएगा।

षठतिला एकादशी का पारण 26 जनवरी को सुबह 7 बजकर 12 मिनट से लेकर 9 बजकर 21 मिनट तक होगा।

बन रहा है ये शुभ संयोग षठतिला एकादशी पर चंद्रमा जल तत्व की राशि वृश्चिक में होगा, चंद्र और मंगल का संबंध भी बना रहेगा। 

इस दिन सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में होगा, जिससे स्नान - दान के लिए बेहद शुभ माना जाता है।

षटतिला एकादशी का महत्व-
      
*इस दिन भगवान विष्णु की आराधना करने से सुख - समृद्धि की प्राप्ति होती है। 

बता दें कि ‘षट’ शब्द का अर्थ है ‘छह’ यानी इस दिन तिल का इस्तेमाल छह तरीकों से करना शुभ माना जाता है। 

वहीं इस दिन तिल का दान करना काफी लाभप्रद माना जाता है। 

इस दिन व्रत रखने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। 

मान्यता है कि इस व्रत में जो व्यक्ति जितने रूपों में तिल का उपयोग तथा दान करता है उसे उतने हजार वर्ष तक स्वर्ग मिलता है। 

सके अलावा जल में तिल मिलाकर तर्पण करने से भी मृत पूर्वजों को शांति मिलती है।





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एकादशी पर क्यों नहीं खाते हैं चावल ? 

ज्योतिषीय व पौराणिक मान्यता

ज्योतिषीय मान्यता :

एकादशी के दिन चावल न खाने के पीछे ज्योतिष मान्यता भी है। 

इसके अनुसार चावल में जल तत्व की मात्रा काफी अधिक पाई जाती है। 

जल पर चंद्रमा का प्रभाव अधिक पड़ता है। 

चावल खाने से शरीर में जल की मात्रा बढ़ती है, इससे मन विचलित, चंचल और अस्थिर होता है। 

मन के चंचल होने से व्रत के नियमों का पालन करने में बाधा आती है। 

एकादशी व्रत में मन का पवित्र और सात्विक भाव का पालन अति आवश्यक होता है, इस लिए एकादशी के दिन चावल और इससे बनी चीजें खाना वर्जित माना गया है।

पौराणिक मान्यता -

धार्मिक कथाओं के अनुसार जो लोग एकादशी के दिन चावल ग्रहण करते हैं उन्हें अगले जन्म में रेंगने वाले जीव की योनि में जन्म मिलता है। 

हालांकि द्वादशी को चावल खाने से इस योनि से मुक्ति भी मिल जाती है। 

दरअसल, एक कथा के अनुसार माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया था। 

उनके अंश पृथ्वी में समा गए और बाद में उसी स्थान पर चावल और जौ के रूप में महर्षि मेधा उत्पन्न हुए। 
          
जिस दिन महर्षि मेधा का अंश पृथ्वी में समाया था, उस दिन एकादशी तिथि थी। 

इस लिए एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित माना गया। 

ऐसा माना जाता है कि एकादशी के दिन चावल खाना महर्षि मेधा के मांस और रक्त का सेवन करने के बराबर है। 

इस कारण चावल और जौ को जीव माना जाता है। 

इस लिए एकादशी को भोजन के रूप में चावल ग्रहण करने से परहेज किया गया है, ताकि सात्विक रूप से एकादशी का व्रत संपन्न हो सके।

  || विष्णु भगवान की जय हो ||
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण )

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