https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: ફેબ્રુઆરી 2025

भगवान से प्रार्थना में क्या मांगूँ ? भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं ? रात्रि भोजन से नरक ? शरणागति के 4 प्रकार है ?

भगवान से प्रार्थना में क्या मांगूँ…? भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं? रात्रि भोजन से नरक ?शरणागति के 4 प्रकार है ? 


भगवान से प्रार्थना में क्या मांगूँ…??? 

प्रह्लाद ने भगवान से माँगा:- 

" हे प्रभु मैं यह माँगता हूँ कि मेरी माँगने की इच्छा ही ख़त्म हो जाए…! "

कुंती ने भगवान से माँगा : - 

" हे प्रभु मुझे बार बार विपत्ति दो ताकि आपका स्मरण होता रहे…!"



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महाराज पृथु ने भगवान से माँगा : - 

" हे प्रभु मुझे दस हज़ार कान दीजिये ताकि में आपकी पावन लीला गुणानुवाद का अधिक से अधिक रसास्वादन कर सकूँ…! "

और हनुमान जी तो बड़ा ही सुंदर कहते हैं : - 

" अब प्रभु कृपा करो एही भाँती।
सब तजि भजन करौं दिन राती॥ "

भगवान से माँगना दोष नहीं मगर क्या माँगना ये होश जरूर रहे…!

पुराने समय में भारत में एक आदर्श गुरुकुल हुआ करता था....! 

उसमें बहुत सारे छात्र शिक्षण कार्य किया करते थे....! 

उसी गुरुकुल में एक विशेष जगह हुआ करती थी जहाँ पर सभी शिष्य प्रार्थना किया करते थे...! 

वह जगह पूजनीय हुआ करती थी…!

एक दिन एक शिष्य के मन के जिज्ञासा उत्पन हुई तो उस शिष्य ने गुरु जी से पूछा - 

हम प्रार्थना करते हैं, तो होंठ हिलते हैं पर आपके होंठ कभी नहीं हिलते…!


आप पत्थर की मूर्ति की तरह खडे़ हो जाते हैं, आप कहते क्या हैं अन्दर से…!

क्योंकि अगर आप अन्दर से भी कुछ कहेंगे तो होठों  पर थोड़ा कंपन तो आ ही जाता है, चेहरे पर बोलने का भाव आ ही जाता है, लेकिन आपके कोई भाव ही नहीं आता…!
  
गुरु जी ने कहा -  

मैं एक बार राजधानी से गुजरा और राजमहल के सामने द्वार पर मैंने सम्राट और एक भिखारी को खडे़ देखा…!
 
वह भिखारी बस खड़ा था, फटे -- चीथडे़ थे उसके शरीर पर, जीर्ण - जर्जर देह थी जैसे बहुत दिनो से भोजन न मिला हो, शरीर सूख कर कांटा हो गया…!

बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थीं....!

बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो,वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था...!

लगता था अब गिरा - तब गिरा ! 

सम्राट उससे बोला - 

बोलो क्या चाहते हो…?
 
" उस भिखारी ने कहा - 

अगर आपके द्वार पर खडे़ होने से मेरी मांग का पता नहीं चलता,तो कहने की कोई जरूरत नहीं…!

क्या कहना है....! 

मै आपके द्वार पर खड़ा हूं,मुझे देख लो मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है…! "

गुरु जी ने कहा - 

उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी,मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं,वह देख लेगें…!

अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती,तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे…!

अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकते,तो मेरे शब्दों को क्या समझेंगे...?
 
अतः भाव व दृढ विश्वास ही सच्ची परमात्मा की याद के लक्षण हैं...!

यहाँ कुछ मांगना शेष नही रहता,आपका प्रार्थना में होना ही पर्याप्त है..!!

    🙏🏾🙏🏽🙏जय श्री कृष्ण🙏🏻🙏🏼🙏🏿


भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं?



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भारत को जम्बूद्वीप के नाम से भी जाना जाता हैं...! 

लेकिन कई लोगों को अब तक यह जानकारी नहीं हैं कि आखिर...! 

“ भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं ”। 

संस्कृत भाषा में जम्बूद्वीप का मतलब है जहां “ जंबू के पेड़ ” उगते हैं। 

प्राचीन समय में भारत में रहने वाले लोगों को जम्बूद्वीपवासी कहा जाता था। 

जम्बूद्वीप शब्द का प्रयोग चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी किया था...! 

जिसका प्रमाण इतिहास में मिलता हैं. यहाँ हम आपको बताने जा रहे हैं कि भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं।

जम्बूद्वीप का मतलब :

एक ऐसा द्वीप जो क्षेत्रफल में बहुत बड़ा होने के साथ - साथ, इस क्षेत्र में पाए जाने वाले जम्बू के वृक्ष और फलों की वजह से विश्वविख्यात था।

जम्बूद्वीप प्राचीन समय में वही स्थान था जहाँ पर अभी भारत हैं. अतः भारत को जम्बूद्वीप कहा जाता हैं. भारत वर्ष, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप। 
कुछ शोधों के अनुसार जम्बूद्वीप एक पौराणिक महाद्वीप है। 

इस महाद्वीप में अनेक देश हैं। 

भारतवर्ष इसी महाद्वीप का एक देश है।


जम्बूद्वीप हर तरह से सम्पन्नता का प्रतिक हैं। 

देवी - देवताओं से लेकर ऋषि मुनियों तक ने इस भूमि को चुना था क्योंकि यहाँ पर नदियाँ, पर्वत और जंगल हर तरह का वातावरण एक  ही देश में देखने को मिलता था‌।

हमारा देश एक कर्मप्रधान देश है और यहाँ जो जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है, सदियों से भारत के लोग इस व्यवस्था को मानते रहे हैं। 

जम्बूद्वीप एक ऐसा विस्तृत भूभाग हैं जिसमें आर्यावर्त, भारतवर्ष और भारतखंडे आदि शामिल हैं।

जम्बुद्वीप के सम्बन्ध में मुख्य बातें :

[1] जम्बूद्वीप को “सुदर्शन द्वीप” के रूप में भी जाना जाता है।

[2] प्राचीन समय में यहाँ पर जामुन के पेड़ बहुतायात में पाए जाते थे, इसलिए यह भूभाग जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाने लगा।

[3] विष्णुपुराण में लिखा हैं कि जम्बू के पेड़ पर लगने वाले फल हाथियों जितने बड़े होते थे ,जब भी वह पहाड़ों से गिरते तो उनके रस की नदी बहने लगती थी। 

इस नदी को जम्बू नदी  से भी जाना जाता था। इस नदी का पानी पिने वाले जम्बूद्वीपवासी थे।

[4] मार्कण्डेय पुराण के अनुसार जम्बूद्वीप उत्तर और दक्षिण में कम और मध्य भाग में ज्यादा था जिसे इलावर्त या मेरुवर्ष से जाना जाता था।

[5]  जम्बूद्वीप की तरफ से बहने वाली नदी को जम्बू नदी के नाम से जाना  जाता है।

[6] जब भी घर में पूजा-पाठ होता हैं तब मंत्र  के साथ  जम्बूद्वीपे, आर्याव्रते, भारतखंडे, देशांतर्गते, अमुकनगरे या अमुकस्थाने फिर उसके बाद नक्षत्र और गोत्र का नाम आता है।

[7] रामायण में भी जम्बूद्वीप का वर्णन मिलता हैं।

[8] जम्बू ( जामुन ) नामक वृक्ष की इस द्वीप पर अधिकता के कारण इस द्वीप का नाम जम्बू द्वीप रखा गया था।

[9] जम्बूद्वीप के नौ खंड थे जिनमें इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय आदि शामिल हैं।

[10] जम्बूद्वीप में 6 पर्वत थे जिनमें हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान आदि।


|| रात्रि भोजन से नरक ? ||


रात्रि भोजन से नरक ? :

महाभारत वैदिक ग्रन्थानुसार रात्रि भोजन हानिकारक,नरक जाने का रास्ता भी यही है!


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वर्तमान के आधुनिक डाॅक्टर , वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध किया है कि रात्रि में सूर्य किरणों के अभाव में किया हुआ भोजन ठीक से पच नहीं पाता है...! 

इस लिए अनेक रोग होते है, इस लिए रात्रि में शयन के 3 - 4घंटे पहले दिन में ही लघु आहार करना चाहिए , जिससे भोजन शयन के पहले ही पच जायेगा !

वैदिक ग्रन्थ महाभारत में भी लिखा है : -

महाभारत के ज्ञान पर्व अध्याय 
70 श्लोक 273 में कहा भी है कि-

उलूका काक मार्जार,गृद्ध शंबर शूकराः l    
आहिवृश्चिकगोधाश्च,जायन्ते रात्रिभोजनात् l l 

अर्थ : - 

रात्रि के समय,भोजन करने वाला मानव मरकर इस पाप के फल से उल्लू,कौआ , बिलाव, गीध, शंबर, सूअर, साॅंप, बिच्छू , गुहा आदि निकृष्ट तिर्यंच योनि के जीवों में जन्म लेता है...!

इस लिए रात्रि भोजन त्याग करना चाहिए।

वासरे च रजन्यां च,यः खादत्रेव तिष्ठति l
शृंगपुच्छ परिभ्रष्ट,य : स्पष्ट पशुरेव हि l l

अर्थ : -

रात में भोजन करने वाला बिना सिंग,पूॅंछ का पशु ही है, ऐसा समझे।

महाभारत के शांतिपर्व में यह भी कहा है कि-

ये रात्रौ सर्वदा आहारं, वर्जयंति सुमेधसः l
तेषां पक्षोपवासस्य,फलं मासस्य जायते l l

अर्थ : - 

जो श्रेष्ठ बुद्धि वालें विवेकी मानव रात्रि भोजन करने का सदैव त्याग के लिए तत्पर रहते है,उनको एक माह में 15 दिन के उपवास का फल मिलता है।

चत्वारि नरक द्वाराणि,प्रथमं रात्रि भोजनम् l
परस्त्री गमनं चैव,संधानानंत कायिकं l l

अर्थ : - 

नरक जाने के चार रास्ते है : -

1 रात्रि भोजन, 2 परस्त्रीगमन 3 आचार, मुरब्बा, 4 जमीकन्द ( आलू , प्याज , मूली , गाजर , सकरकंद , लहसुन ,अरबी , अदरक , ये आठ होने से , इन को अष्टकन्द भी कहते है ) सेवन करने से,नरक जाना पड़ता है !

मार्कण्डेय पुराण में,तो अध्याय
    33 श्लोक में कहा है, कि-

 अस्तंगते दिवानाथे,आपो रुधिरमुच्यते l
अन्नं मांसं समं प्रोक्तं, मार्कण्डेय महर्षिणा l l

अर्थात् : -

सूर्य अस्त होने के बाद ,जल को रुधिर मतलब खून और अन्न को मांस के समान माना गया है,अतः रात्रि भोजन का त्याग अवश्यमेव करना ही चाहिए !

नरक को जाने से बचने के लिए !

चार प्रकार का आहार भोजन होता है : - 

( 1 ) - खाद्य : - 

रोटी , भात , कचौडी , पूडी आदि !


( 2 ) - स्वाद्य : - 

चूर्ण , तांबूल , सुपाडी आदि !

( 3 ) - लेह्य : - 

रबडी़ , मलाई , चटनी आदि !

( 4 ) - पेय : - 

पानी , दूध , शरबत आदि !

जैन धर्म में रात्रि भोजन का बडा़ ही महत्त्व है ! 

चार प्रकार सूक्ष्मता से निर्दोष पालन की विधि भी बतायी गयी है, कि रात्रि : -

( अ ) - दिन का बना भी रात्रि में न खाएं !

( ब ) - रात्रि का बना तो रात में खाए ही नहीं !

( क ) - रात्रि का बना भी दिन में न खाए और

( ड ) - उजाले में दिन का बना दिन में ही, वह भी अंधेरे में नहीं उजाले में ही खाए ।

रात्रि में सूर्य प्रकाश के अभाव में ,अनेक सूक्ष्मजीव उत्पन्न होते है l 

भोजन के साथ , यदि जीव पेट में चले गये , तो रोग कारण बनते हैं।

यथा पेट में जाने पर,ये रोग , चींटा - चींटी, बुद्धिनाश जूं , जूए , जलोदर, मक्खी , पतंगा वमन , लिक लीख , कोड , बाल  स्वरभंग बिच्छू , छिपकली मरण , छत्र चामर वाजीभ , रथ पदाति संयुता: l

विराजनन्ते नरा यत्र l

ते रात्र्याहारवर्जिनः l l

अर्थ : - 

ग्रन्थकार कहते है कि छत्र , चंवर , घोडा , हाथी , रथ और पदातियों से युक्त , नर जहाॅं कहीं भी दिखाई देते है....! 

ऐसा समझना चाहिए कि उन्होंने पूर्व भव में रात्रि भोजन का त्याग किया था,उस त्याग से उपार्जित हुए,पुण्य को वे भोग रहे हैं।

एक सिक्ख ने कह दिया, कि पहले के जमाने में लाईट की रोशनी नहीं थी....!

इस लिए रात्रि भोजन नहीं करते थे,तो उससे पूछा कि पहले नाई नहीं होंगे , इस लिए हजामत नहीं करते होंगे....!

अब तो नांई बहुत है फिर भी बाल क्यों नहीं बनाते ; 

चुप होना पड़ा l 

चाहे कितनी भी लाईट की रोशनी हो,पर सूर्यास्त के बाद,जीवों की उत्पत्ति बढ़ती ही है और जठराग्नि भी शांत होती है....! 

इस लिए भोजन छोड़ना ही चाहिए l 

स्वस्थ,मस्त, व्यस्त भी रहना हो ,तो।

|| शरणागति के 4 प्रकार है ? ||


शरणागति के 4 प्रकार है ?

1 - जिह्वा से भगवान के नाम का जप- 

भगवान् के स्वरुप का चिंतन करते हुए उनके परम पावन नाम का नित्य निरंतर निष्काम भाव से परम श्रद्धापूर्वक जप करना तथा हर समय भगवान् की स्मृति रखना।

2 - भगवान् की आज्ञाओं का पालन करना-

श्रीमद्भगवद्गीता जैसे भगवान् के श्रीमुख के वचन, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के वचन तथा महापुरुषों के आचरण के अनुसार कार्य करना।

3 - सर्वस्व प्रभु के समर्पण कर देना-

वास्तव मे तो सब कुछ है ही भगवान् का,क्योंकि न तो हम जन्म के समय कुछ साथ लाये और न जाते समय कुछ ले ही जायेंगे।

भ्रम से जो अपनापन बना रखा है,उसे उठा देना है।

4 - भगवान् के प्रत्येक विधान मे परम प्रसन्न रहना- 

मनचाहा करते - करते तो बहुत - से जन्म व्यतीत कर दिए,अब तो ऐसा नही होना चाहिए।

अब तो वही हो जो भगवान् चाहते है।

भक्त भगवान् के विधानमात्र मे परम प्रसन्न रहता है फिर चाहे वह विधान मन, इंद्रिय और शरीर के प्रतिकूल हो या अनुकूल।

सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।। 

जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है...! 

अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! 

अतः  

ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त  दिव्यदृष्टि  या दूरदृष्टि का अधिकारी नहीं बन सकता एवं अनेको दिव्य सिद्धियों एवं निधियों को प्राप्त नहीं कर पाता या खो देता है !

शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! 

चाहो तो इससे विभूतिया (अच्छाइयां पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम  दुर्गति  ( बुराइया  /  पाप ) इत्यादि !

परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !

प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो ! 

करुणा को चुनो !

     || ॐ नमो नारायण ||
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 
तमिल / द्रावीण ब्राह्मण जय श्री कृष्ण

सेवक सेव्य भाव / नर्मदा जयन्ती

सेवक सेव्य भाव / नर्मदा जयन्ती 

 || सेवक सेव्य भाव ||

सेवा - पुरुषार्थ में भगवान की कृपा का दर्शन ही भक्ति का एक मात्र साधन है जो करना नहीं पड़ता है सहज ही हो जाता है। 

हे मेरे हनुमान जी हम भी उन बंदरों में एक हैं जो अभी शरीर और संसार भाव से ऊपर नहीं उठ सके हैं आप कृपा कीजिए। 



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मन बुद्धि और चित्त के सम्यक् योग के बिना सेवक का अपने सेव्य स्वामी के ह्रदय में प्रवेश संभव नहीं है। 

हनुमान जी के ह्रदय में श्रीराम हैं और श्रीराम के ह्रदय में हनुमान जी, यही है सेवक सेव्य भाव। 

हनुमान जी केवल वही नहीं करते हैं जो भगवान कहते हैं, हनुमान जी तो वह भी सब कर देते हैं जो उनके प्रभु चाहते हैं।



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अपने चाहने का अभाव और स्वामी की चाह में स्थिति यही सेवा है, ' सेवक सोई जो स्वामि हित करई ' , अपने हित अनहित की चिंता सेवक को कदापि नहीं होती है। 

हनुमान जी भगवान के वे अनन्य भक्त हैं, जिनके मन में भगवान का कोई विकल्प नहीं है....! 

बुद्धि केवल अपने प्रभु के कार्यों की सुसमीक्षा करती है, और चित्त में राम के अतिरिक्त किसी एक अणु की भी उपस्थिति नहीं है। 

सारी बानर सेना और सुग्रीवादि सबका हित हनुमान जी के कारण ही हुआ....! 

हनुमान जी के अभाव में रामायण की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

जीवन का उत्कर्ष केवल भौतिक उन्नति नहीं है....! 

अपितु ईश्वर की कृपा प्राप्त कर लेना जीव का परम पुरुषार्थ है....! 

जीव का स्वार्थ और परमार्थ सब राम विषयक होना चाहिए तब जीव और ब्रह्म की एकता सिद्ध होती है। 

' स्वारथ साँच जीव कहँ ऐहू - मन क्रम बचन राम पद नेहू ' तथा ' सखा परम परमारथ ऐहू - मन क्रम बचन राम पद नेहू ' हनुमान जी ने राम को ही स्वार्थ माना और राम को ही परमार्थ माना। 

जब - तक स्वार्थ और परमार्थ मिलकर राम को समर्पित नहीं होते तब - तक दोनों अपने स्वरूप को धन्य नहीं कर सकते हैं।




श्रीराम की सेना में विभीषण, सुग्रीव, बानर,भालू सबका स्वार्थ हनुमान जी ने पूर्ण करवाया यही उनका परमार्थ है। 

जब - तक दूसरे को स्वार्थी और अपने को परमार्थी बताने की वृत्ति बनी रहेगी तब - तक साधक अपने परम परमार्थ रूप ईश्वर से एकाकार नहीं हो सकेगा। 

हनुमान जी महाराज ही मात्र ऐसे हैं जो भगवान के आर्त, अर्थार्थी, ज्ञानी और जिज्ञासु भक्त हैं सबके अनुरूप उनकी सेवा करके भी उसको वे भगवान की ही सेवा मानते हैं।


            || जय श्री राम जय हनुमान ||


|| आज नर्मदा जयन्ती है - ||


   छठ और सप्तमी तिथि संयुक्त होने से

   


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नर्मदा जयंती क्यों मनाई जाती है ?

पौराणिक कथाओं के अनुसार, माघ माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को मां नर्मदा का प्राकट्य हुआ था। 

इसी कारण प्रतिवर्ष इस दिन नर्मदा जयंती मनाई जाती है और श्रद्धालु नर्मदा नदी में स्नान कर पुण्य लाभ अर्जित करते हैं। 

धार्मिक मान्यता है....! 

कि इस दिन नर्मदा नदी में स्नान करने से समस्त पापों से मुक्ति मिलती है और व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से भी निजात पाता है।

स्कंद पुराण के रेवाखंड में ऋषि मार्केडेयजी ने लिखा है कि नर्मदा के तट पर भगवान नारायण के सभी अवतारों ने आकरमां की स्तुति की। 

पुराणों में ऐसा वर्णित है कि संसार में एकमात्र मां नर्मदा नदी ही है जिसकी परिक्रमा सिद्ध, नाग, यक्ष, गंधर्व, किन्नर, मानव आदि करते हैं ।

आदिगुरु शंकराचार्यजी ने नर्मदाष्टक में माता को सर्वतीर्थ नायकम्‌ से संबोधित किया है। 

अर्थात :

माता को सभी तीर्थों का अग्रज कहा गया है। 

नर्मदा के तटों पर ही संसार में सनातन धर्म की ध्वज पताका लहराने वाले परमहंसी, योगियों ने तप कर संसार में अद्वितीय कार्य किए।अनेक चमत्कार भी परमहंसियों ने किए जिनमें दादा धूनीवाले, दादा ठनठनपालजी महाराज, रामकृष्ण परमहंसजी के गुरु तोतापुरीजी महाराज, गोविंदपादाचार्य के शिष्य आदिगुरु शंकराचार्यजी सहित अन्य विभूतियां शामिल हैं।


नर्मदा जिसे रेवा या मेकल कन्या के नाम से भी जाना जाता है। 

मध्य भारत कि सबसे बड़ी एवं भारतीय उप महाद्वीप कि पांचवी सबसे बड़ी नदी है।

यह पूर्णतः भारत में बहने वाली गंगा एवं गोदावरी के बाद तीसरी सबसे बड़ी नदी है।

यह उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के बीच पारम्परि विभाजन रेखा के रूप में पश्चिम दिशा कि और बहती है ।


ओंकारेश्वर में नर्मदा -


ओंकारेश्वर में भक्त एवं पुजारी नर्मदा जी कि आरती करते हैं एवं प्रतिदिन संध्याकाल में नदी में दीपक प्रवाहित करते हैं, इसे दीपदान कहते हैं।

नर्मदा जयंती एवं अन्य पर्वों पर यह कार्य वृहद स्तर पर किया जाता है।

यहाँ नर्मदा दो भागों में बंटकर एक द्वीप का निर्माण करती हैं जिसे पुराणों में वैदूर्यमणि पर्वत कहा जाता है, जहाँ पर ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। 

इस द्वीप के उत्तर में कावेरी नदी मानी जाती है।

जो कि चौड़ी एवं उथली है तथा उत्तर में नर्मदा है जो संकरी एवं गहरी है।


 माघ शुक्ल सप्तमी का दिन


अमरकंटक से लेकर खंभात की खाड़ी तक के रेवा - प्रवाह पथ में पड़ने वाले सभी ग्रामों व नगरों में उल्लास और उत्सव का दिन है। 

क्योंकि नर्मदा जयंती है। 

कहा गया है-


  गंगा कनखले पुण्या,कुरुक्षेत्रे सरस्वती,

      ग्रामे वा यदि वारण्ये,पुण्या सर्वत्र नर्मदा।


आशय यह कि गंगा कनखल में और सरस्वती कुरुक्षेत्र में पवित्र है किन्तु गांव हो या वन नर्मदा हर जगह पुण्य प्रदायिका महासरिता है।

अद्वितीया,पुण्यतोया, शिव की आनंद विधायिनी, सार्थक नाम्ना स्रोतस्विनी नर्मदा का उजला आंचल इन दिनों मैला हो गया है,जो कि चिंता का विषय है।

'नर्मदाय नमः प्रातः, नर्मदायनमो निशि, नमोस्तु नर्मदे ।


नर्मदा 


मैं नर्मदा हूं। 

जब गंगा नहीं थी , तब भी मैं थी। 

जब हिमालय नहीं था , तभी भी मै थी। 

मेरे किनारों पर नागर सभ्यता का विकास नहीं हुआ। 

मेरे दोनों किनारों पर तो दंडकारण्य के घने जंगलों की भरमार थी। 

इसी के कारण आर्य मुझ तक नहीं पहुंच सके। 

मैं अनेक वर्षों तक आर्यावर्त की सीमा रेखा बनी रही। 

उन दिनों मेरे तट पर उत्तरापथ समाप्त होता था और दक्षिणापथ शुरू होता था।

मेरे तट पर मोहनजोदड़ो जैसी नागर संस्कृति नहीं रही, लेकिन एक आरण्यक संस्कृति अवश्य रही। 

मेरे तटवर्ती वनों मे मार्कंडेय, कपिल, भृगु , जमदग्नि आदि अनेक ऋषियों के आश्रम रहे । 

यहाँ की यज्ञवेदियों का धुआँ आकाश में मंडराता था । 

ऋषियों का कहना था कि तपस्या तो बस नर्मदा तट पर ही करनी चाहिए।

इन्हीं ऋषियों में से एक ने मेरा नाम रखा, " रेवा "। 

रेव् यानी कूदना। 

उन्होंने मुझे चट्टानों में कूदते फांदते देखा तो मेरा नाम "रेवा" रखा।

एक अन्य ऋषि ने मेरा नाम " नर्मदा " रखा ।

" नर्म " यानी आनंद । 

आनंद देनेवाली नदी।

मैं भारत की सात प्रमुख नदियों में से हूं । 

गंगा के बाद मेरा ही महत्व है । 

पुराणों में जितना मुझ पर लिखा गया है उतना और किसी नदी पर नहीं । 

स्कंदपुराण का " रेवाखंड " तो पूरा का पूरा मुझको ही अर्पित है।

" पुराण कहते हैं कि जो पुण्य , गंगा में स्नान करने से मिलता है, वह मेरे दर्शन मात्र से मिल जाता है। "

मेरा जन्म अमरकंटक में हुआ । 

मैं पश्चिम की ओर बहती हूं। 

मेरा प्रवाह आधार चट्टानी भूमि है। 

मेरे तट पर आदिमजातियां निवास करती हैं । 

जीवन में मैंने सदा कड़ा संघर्ष किया।

मैं एक हूं ,पर मेरे रुप अनेक हैं । 

मूसलाधार वृष्टि पर उफन पड़ती हूं ,तो गर्मियों में बस मेरी सांस भर चलती रहती है।

मैं प्रपात बाहुल्या नदी हूं । 

कपिलधारा , दूधधारा , धावड़ीकुंड, सहस्त्रधारा मेरे मुख्य प्रपात हैं ।

ओंकारेश्वर मेरे तट का प्रमुख तीर्थ है। 

महेश्वर ही प्राचीन माहिष्मती है। 

वहाँ  के घाट देश के सर्वोत्तम घाटों में से है ।

मैं स्वयं को भरूच ( भृगुकच्छ ) में अरब सागर को समर्पित करती हूँ ‌।

मुझे याद आया।

अमरकंटक में मैंने कैसी मामूली सी शुरुआत की थी। 

वहां तो एक बच्चा भी मुझे लांघ जाया करता था पर यहां मेरा पाट 20 किलोमीटर चौड़ा है । 

यह तय करना कठिन है कि कहां मेरा अंत है और कहां समुद्र का आरंभ ? 

पर आज मेरा स्वरुप बदल रहा है। 

मेरे तटवर्ती प्रदेश बदल गए हैं मुझ पर कई बांध बांधे जा रहे हैं। 

मेरे लिए यह कष्टप्रद तो है पर जब अकालग्रस्त , भूखे - प्यासे लोगों को पानी, चारे के लिए तड़पते पशुओं को , बंजर पड़े खेतों को देखती हूं , तो मन रो पड़ता है। 

आखिर में माँ हूं।

मुझ पर बने बांध इनकी आवश्यकताओं को पूरा करेंगें। 

अब धरती की प्यास बुझेगी । 

मैं धरती को सुजला सुफला बनाऊंगी। 

यह कार्य मुझे एक आंतरिक संतोष देता है।

त्वदीय पाद पंकजम, नमामि देवी नर्मदे...

नर्मदे सर्वदे 

{अमृतस्य नर्मदा}

नर्मदा जयंती की आप सभी को असीम शुभकामनाएं।

      || नमामी देवी नर्मदे ||

!!!!! शुभमस्तु !!!

🙏हर हर महादेव हर...!!

जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-

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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....

जय द्वारकाधीश....

जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

माघ मास पूर्णिमा है / बसंत पंचमी या श्री पंचमी

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........

जय द्वारकाधीश


माघ मास पूर्णिमा है / बसंत पंचमी या श्री पंचमी


|| माघ मास पूर्णिमा है ||


हिंदू धर्म में पूर्णिमा को बहुत शुभ माना जाता है। पूर्णिमा तिथि हर महीने आती है, लेकिन माघ महीने की पूर्णिमा का खास महत्व होता है। 


इसे माघी पूर्णिमा भी कहते हैं। 


इस दिन गंगा स्नान, दान-पुण्य और भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी, चंद्रदेव की आराधना करने का विधान है। 





धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन पूजा - अर्चना और दान - पुण्य करने से जीवन में सुख - समृद्धि और खुशहाली आती है। 


वहीं, महाकुंभ के दौरान इस पूर्णिमा का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। 


माघ पूर्णिमा 2025 की तिथि, धार्मिक महत्व और स्नान - दान का शुभ मुहूर्त।


माघ पूर्णिमा 2025 स्नान - दान शुभ मुहूर्त पंचांग के अनुसार, माघ माह के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि 11 फरवरी 2025 को शाम 6 बजकर 55 मिनट से शुरू होगी और 12 फरवरी 2025 को शाम 7 बजकर 22 मिनट पर समाप्त होगी। 


ऐसे में इस साल माघ पूर्णिमा 12 फरवरी 2025 दिन बुधवार को मनाई जाएगी। 

माघ पूर्णिमा का महत्व -

      

ऐसा माना जाता है कि इस दिन गंगा स्नान करने और दान करने से व्यक्ति को जीवन के समस्त पापों से छुटकारा मिलता है। 


इस के साथ ही इस दिन हनुमान जी की पूजा करने से संकटों से मुक्ति मिलती है। 


मान्यता है कि इस दिन देवी - देवता भी गंगा में स्नान करने के लिए धरती पर आते हैं।


         || हर हर गंगे ||


बसंत पंचमी या श्री पंचमी


ॐ श्री सरस्वती शुक्लवर्णां सस्मितां सुमनोहराम्।

         कोटिचंद्रप्रभामुष्टपुष्टश्रीयुक्तविग्रहाम्।।

बसंत पंचमी या श्री पंचमी हिन्दू त्यौहार है। 

इस दिन विद्या की देवी सरस्वती, कामदेव और विष्णु की पूजा की जाती है। 

यह पूजा विशेष रूप से भारत, बांग्लादेश, नेपाल और कई राष्ट्रों में बड़े उल्लास से मनायी जाती है।

भारतीय गणना के अनुसार वर्ष भर में पड़ने वाली छः ऋतुओं (बसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर) में बसंत को ऋतुराज...!



 

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अर्थात : 

सभी ऋतुओं का राजा माना गया है और बसंत पंचमी के दिन को बसंत ऋतु का आगमन माना जाता है...! 

इस लिए बसंत पंचमी ऋतू परिवर्तन का दिन भी है...! 

जिस दिन से प्राकृतिक सौन्दर्य निखारना शुरू हो जाता है....! 

पेड़ों पर नयी पत्तिया कोपले और कालिया खिलना शुरू हो जाती हैं....! 

पूरी प्रकृति एक नवीन ऊर्जा से भर उठती है।


मां सरस्वती की पूजा -


बसंत पंचमी के दिन देवी सरस्वती की पूजा विधि खास होती है। 

पूजा में सफेद फूल, पीले वस्त्र, सफेद तिल और संगीत अर्पित किया जाता है। 

मां सरस्वती के चरणों में वीणा और पुस्तक रखना शुभ माना जाता है। 

इस दिन लोग मां से ज्ञान और विद्या की प्राप्ति के लिए आशीर्वाद लेते हैं।

बसंत पंचमी का सीधा संबंध माता सरस्वती से है।

पौराणिक कथा के अनुसार...! 

जब भगवान ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की....! 

तो सृष्टि में कोई जीवन था...! 

लेकिन वह जीवन शांत और बिना किसी आवाज के था। 

भगवान ब्रह्मा ने अपने कमंडल से जल छींटा, जिससे देवी सरस्वती प्रकट हुईं। 

देवी सरस्वती ने वीणा बजाकर पूरे संसार में मधुर आवाज फैलाई और सृष्टि में जीवन का संचार हुआ। 

तभी से देवी सरस्वती को ज्ञान, संगीत और कला की देवी माना जाता है, और इस तिथि पर बसंत पंचमी मनाए जाने लगी।

वसंत पंचमी और सरस्वती - लक्ष्मी पूजन दिवस है। 

तृतीय अमृत स्नान महाकुंभ महापर्व ( प्रयागराज )भी है। 

ज्ञान, स्वाध्याय, चिंतन, मौन के सागर में डुबकी लगाएं।

( १ ) लगता अहंकार है पर ये स्वाभिमान होता है, जब बात अपने अधिकार, चरित्र और सम्मान की होती है। 

( २ ) कुछ लोग भरोसे के लिए रोते हैं और कुछ लोग भरोसा करके रोते हैं। 

( ३ ) लोगों को आपकी बात का तब फ़र्क पड़ना शुरू होता है जब आपको किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। 

( ४ ) मैने ज़िंदगी की गाड़ी से वो साइड ग्लास ही हटा दिया जिसमें पीछे छूटे रास्ते और बुराई करते लोग नज़र आते हैं। 

( ५ ) अभाव का प्रभाव अक्सर जीवन का स्वभाव बदल देता है।

यथाशक्ति गरीबों में शिक्षण सामग्री वितरण करें, करवाएं।

 || बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं ||

🙏🙏जय श्री कृष्ण 🙏🙏

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-

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-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-

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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....

जय द्वारकाधीश....जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏

रामेश्वर कुण्ड

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