https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: 2025

रामेश्वर कुण्ड

 || रामेश्वर कुण्ड ||

रामेश्वर कुण्ड


एक समय श्री कृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर श्रीराधिका के साथ हास्य– 

परिहास कर रहे थे।उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आस पास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणाम कर किलकारियाँ मार कर नाचने – कूदने लगे। 

बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे। 

भगवान श्री कृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे। 

गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गई। 

वे भी भगवान श्री रामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं कि श्री रामचन्द्र जी ने भी बंदरों की सहायता ली थी।



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उस समय ललिता जी ने कहा– 

हमने सुना है कि महा पराक्रमी हनुमान जी ने त्रेता युग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था। 

परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं। 

ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा– 

जानती हो! 

मैं ही त्रेता युग में श्री राम था मैंने ही राम रूप में सारी लीलाएँ की थी। 

ललिता श्री रामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं– 

तुम झूठे हो।

तुम कदापि राम नहीं थे।

तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं। 

श्री कृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा– 

तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही राम रूप धारण कर जनकपुरी में शिव धनुष को तोड़कर सीता से विवाह किया था।




पिता के आदेश से धनुष बाण धारण कर सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट और दण्डकारण्य में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया।

फिर सीता के वियोग में वन – वन भटका।

पुन: बन्दरों की सहायता से रावण सहित लंकापुरी का ध्वंसकर अयोध्या में लौटा। 

मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारण कर गोचारण करते हुए वन – वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्री राधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ।



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पहले मेरे राम रूप में धनुष– 

बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी। 

किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं। 

ललिता जी ने भी मुस्कराते हुए कहा–

हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं,यदि श्री राम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं। 

श्री रामचन्द्र जी सौ योजन समुद्र को भालू – कपियों के द्वारा बंधवा कर सारी सेना के साथ उस पार गये थे।

आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं।

ललिता की बात सुनकर श्री कृष्ण ने वेणू – ध्वनि के द्वारा क्षण-मात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया। 

देखते ही देखते श्री कृष्ण के आदेश से हज़ारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण में लग गये। 



श्री कृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया। 

सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्री कृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की।

|| श्री रामेश्वर धाम की जय हो ||

आज महाबलिदानी पन्नाधाय जी की शुभ जन्मदिवस है। 8 मार्च 1501ई. को चित्तोड़ के पास पाण्डोली गांव में हरचंद गुर्जर जी के यहाँ पन्ना का जन्म हुआ था।

मेवाड़ के इतिहास में जिस गौरव के साथ प्रात: स्मरणीय महाराणा प्रताप को याद किया जाता है, उसी गौरव के साथ पन्ना धाय का नाम भी लिया जाता है, जिसने स्वामीभक्ति को सर्वोपरि मानते हुए अपने पुत्र चन्दन का बलिदान दे दिया था। इतिहास में पन्ना धाय का नाम स्वामिभक्ति के लिये प्रसिद्ध है।

पन्ना धाय राणा सांगा के पुत्र राणा उदयसिंह की धाय माँ थीं। 

पन्ना धाय किसी राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। वह हरचंद हाँकला की पुत्री थी। 

अपना सर्वस्व स्वामी को अर्पण करने के लिये जानी वाली राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह को माँ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना 'धाय माँ' कहलाई थी। 

पन्ना का पुत्र चन्दन और राजकुमार उदयसिंह साथ-साथ बड़े हुए थे। 

उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला था। 

पन्नाधाय ने उदयसिंह की माँ रानी कर्णावती के सामूहिक आत्म बलिदान द्वारा स्वर्गारोहण पर बालक की परवरिश करने का दायित्व संभाला था। 

पन्ना ने पूरी लगन से बालक की परवरिश और सुरक्षा की। 

पन्ना चित्तौड़ के कुम्भा महल में रहती थी।

चित्तौड़ का शासक, दासी का पुत्र बनवीर बनना चाहता था। 

उसने राणा के वंशजों को एक - एक कर मार डाला। 

बनवीर एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा। 

एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई। 

पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी। 

उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया। 

बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया।

बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा। 

पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था। 

बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला। 

पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही। 

बनवीर को पता न लगे इस लिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई। 

बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी। 

उन्होने अपने कर्तव्य - पूर्ति में अपने पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।

जय जय श्री राधे

ॐ हनुमते नमः

पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब संसार में अधर्म और अराजकता बढ़ने लगी, तब भगवान विष्णु ने इस समस्या को समाप्त करने के लिए भगवान शिव की तपस्या का संकल्प लिया। 

उन्होंने कठोर तपस्या शुरू की, जिससे शिवजी प्रसन्न हुए। 

भगवान विष्णु ने उनसे ऐसा दिव्य अस्त्र मांगा, जो अधर्म का नाश कर सके और धर्म की स्थापना कर सके।

शिवजी ने प्रसन्न होकर विष्णु को सुदर्शन चक्र प्रदान किया। 

यह चक्र केवल एक शस्त्र नहीं था, बल्कि भगवान शिव का आशीर्वाद और शक्ति का प्रतीक था। 

कहा जाता है कि शिवजी ने इसे देते समय कहा था, " यह चक्र अमोघ है, इसका प्रहार कभी व्यर्थ नहीं जाएगा। यह अधर्म और अन्याय का अंत करेगा। "

सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति की कथा भी उतनी ही रोचक है। 

एक मान्यता के अनुसार, विश्वकर्मा, जो देवताओं के महान शिल्पकार थे, ने इसे सूर्य के तेज से बनाया था। 

कहते हैं कि सूर्यदेव के तेज का एक हिस्सा अत्यधिक प्रखर था, जिससे देवता असहज हो रहे थे। 

तब विश्वकर्मा ने उस तेज को काटकर सुदर्शन चक्र का निर्माण किया और इसे भगवान शिव को भेंट किया। 

शिवजी ने इसे विष्णु को प्रदान किया, जिससे यह चक्र भगवान विष्णु का प्रमुख अस्त्र बन गया।

भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र का उपयोग कई महत्वपूर्ण अवसरों पर किया। 

इस चक्र ने न केवल दैत्यों का संहार किया, बल्कि देवताओं की रक्षा और धर्म की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

विष्णु ने इस चक्र की सहायता से मधु और कैटभ जैसे शक्तिशाली दैत्यों का वध किया। 

इसी चक्र ने समुद्र मंथन के समय भी अमृत कलश की रक्षा की।

विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ने भी सुदर्शन चक्र का उपयोग अनेक बार किया। 

कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने सबसे पहले राजा श्रृगाल का वध इसी चक्र से किया था। 

महाभारत में भी यह चक्र श्रीकृष्ण के साथ - साथ धर्म की स्थापना में सहायक बना। 

विशेष रूप से, जब पांडवों और कौरवों के बीच धर्मयुद्ध चल रहा था, तब इस चक्र ने धर्म की जीत सुनिश्चित की।

एक रोचक प्रसंग यह है कि अश्वत्थामा, जो महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण से सुदर्शन चक्र मांगने की इच्छा रखते थे, उन्होंने इसे पाने की कोशिश की। 

लेकिन श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कर दिया कि यह चक्र केवल धर्म की रक्षा के लिए है और इसे किसी अन्य को देना उचित नहीं।

सुदर्शन चक्र का महत्व केवल एक अस्त्र तक सीमित नहीं है। 

यह धर्म,सत्य,और न्याय का प्रतीक है। 

इसे धारण करने वाले भगवान विष्णु और उनके अवतार श्रीकृष्ण ने इसे केवल अधर्म और अन्याय के विनाश के लिए उपयोग किया।

इसकी तेजस्विता और अमोघ शक्ति यह दर्शाती है कि सुदर्शन चक्र न केवल भौतिक शक्ति है,बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा का भी प्रतीक है।

यह चक्र हमें यह संदेश देता है कि शक्ति का उपयोग हमेशा धर्म और सत्य की रक्षा के लिए होना चाहिए।

भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण ने इसे अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया,जो यह बताता है कि यह केवल एक अस्त्र नहीं, बल्कि एक दैवीय उत्तरदायित्व का प्रतीक है..!!

   🙏🏾🙏🏿🙏🏻जय श्री कृष्ण🙏🏽🙏🏼🙏

हीरे, आपके कदमों में…

मध्य प्रदेश का एक जिला है— 

पन्ना, जो अपने हीरे की खदानों के लिए प्रसिद्ध है।

वहीं के एक किसान ने एक जमीन का टुकड़ा खरीदा, यह सोचकर कि उसमें हीरे होंगे। 

उसने पूरी मेहनत से खुदाई की, गहराई तक गया, लेकिन हीरे नहीं मिले।

थक-हारकर उसने वह जमीन सस्ते दामों में बेच दी और आंध्र प्रदेश व छत्तीसगढ़ चला गया, नई खदानों की तलाश में।

जिस व्यक्ति ने यह जमीन खरीदी, उसने वहीं से खुदाई शुरू की, जहाँ पहले किसान ने छोड़ दिया था। 

कुछ ही दिनों बाद उसे चमकदार पत्थर दिखने लगे।

उसने उनकी जाँच करवाई, कटिंग और पॉलिशिंग करवाई— 

और पाया कि वे बेहद कीमती हीरे थे।

सिर्फ़ 3 फीट और खोदने की ज़रूरत थी!

लेकिन पहले किसान का धैर्य जवाब दे गया और वह अपने हीरे के भंडार को छोड़कर चला गया।

सफलता उन्हीं को मिलती है, जो खोदना नहीं छोड़ते…!

यही जीवन की सच्चाई है—

सफल वो होते हैं, जो खुदाई जारी रखते हैं, धैर्य नहीं खोते, और एक दिन मंज़िल तक पहुँचते हैं।

जो असफल होते हैं, वे विश्वास खो देते हैं, बार - बार निर्णय बदलते हैं, और मंज़िल के करीब आकर भी पीछे हट जाते हैं।

हीरे आपके कदमों में बिखरे हैं…!

यह कहानी हमें सिखाती है कि—

" हीरे हमारी ज़मीन में ही छिपे होते हैं— 

हमारे आँगन में, हमारे फूलों की क्यारी में। "

अगर हम अपने भीतर झांकें, खुद को गहराई से टटोलें, तो हम सभी को अपने भीतर छिपे हुए हीरे मिल सकते हैं।

किसी को यह जल्दी मिल जाता है...!

किसी को थोड़ा विलंब होता है...!

लेकिन हर किसी के पास वह अनमोल खज़ाना है।

आपमें भी असाधारण क्षमता है…

यह उन लोगों के लिए एक चेतावनी भी है, जो यह मान बैठे हैं कि—

अवसर सिर्फ़ दूसरों के लिए होते हैं।

हमारी किस्मत में कुछ बड़ा लिखकर नहीं आया।

हमारे भाग्य में सफलता नहीं है।

सच तो यह है कि यह सोच ही हमें पीछे रखती है।

" भगवान ने सभी को हीरे दिए हैं— 

बस, खुदाई जारी रखनी होगी। "

तो क्या आप 3 फीट पहले हार मान लेंगे ?

या फिर अपने हीरे को खोजने के लिए खुदाई जारी रखेंगे ?

याद रखें— 

हीरे आपके कदमों में हैं !

💗💗💐💐🙏🙏🙏

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 

तमिल / द्रावीण ब्राह्मण ऑन लाइन / ऑफ लाइन ज्योतिषी

    || शत् शत् नमन और प्रणाम ||

51 शक्तिपीठ जो माँ सती के शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों के हैं

 🙏🌹 जय श्री कृष्ण🌹🙏

51 शक्तिपीठ जो माँ सती के शरीर के भिन्न - भिन्न अंगों के हैं...!

51 शक्तिपीठ जो माँ सती के शरीर के भिन्न - भिन्न अंगों के हैं...! 

संसारकटुवृक्षस्य   द्वे  फले अमृतोपमे।

सुभाषितरसास्वादः सङ्गतिः सुजने जने ॥

 भावार्थ---

 संसार रूपी कड़ुवे पेड़ से अमृत तुल्य दो ही फल उपलब्ध हो सकते हैं ।

 एक है मीठे वचनों का रसास्वादन और दूसरा है सज्जनों की संगति ।

प्रातर्नमामि तरणिं तनुवाङ्मनोभि-

   र्ब्रह्मेन्द्रपूर्वकसुरैर्नतमर्चितं  च ।

वृष्टिप्रमोचनविनिग्रहहेतुभूतं

 त्रैलोक्यपालनपरं त्रिगुणात्मकं च।।

मैं प्रातः काल शरीर,वाणी और मन के द्वारा ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं से स्तुत और पूजित, वृष्टि के कारण एवं विनिग्रह के हेतु ।

तीनों लोकों के पालन में तत्पर और सत्त्व आदि त्रिगुणरूप धारण करने वाले तरणि ( सूर्य भगवान् ) को नमस्कार करता हूं।'


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भारतीय उप महाद्वीप में माँ सती के 51 शक्तिपीठ हैं। 

ये शक्तिपीठ माँ के भिन्न-भिन्न अंगों और उनके आभूषणों आदि को दर्शाते हैं। 

इस लिए हिन्दू धर्म के अनुयायियों के लिए माता रानी से जुड़े हुए ये स्थान अति पवित्र हैं। 

इन शक्तिपीठों में लाखों की संख्या में माता के भक्त उनके दर्शन करने के लिए जाते हैं। 

ऐसा कहा जाता है कि इन तीर्थ स्थलों पर जाने और माता के दर्शन करने से भक्तों को माँ सती का आशीर्वाद प्राप्त होता है और उनके समस्त प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं। 

पौराणिक कथा के अनुसार, माँ सती के शरीर के भिन्न-भिन्न अंग और उनके आभूषण इन स्थानों पर गिरे थे। 

कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माँ के शव को कई हिस्सों में विभाजित कर दिया था । 

उनके अंग पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में गिर गए जो शक्तिपीठ कहलाये। 

यहाँ शक्ति का अर्थ माँ दुर्गा से है  क्योंकि माता सती दुर्गा जी का ही एक रूप हैं।

देवी सती की पौराणिक कथा...!  

पौराणिक कथा के अनुसार, माँ सती के पिता राजा दक्ष प्रजापति ने कनखल ( हरिद्वार ) में बृहस्पति सर्व नामक यज्ञ का आयोजन किया था। 

इस अवसर पर उन्होंने सभी देवी/देवताओं को निमंत्रण भेजा था। 

लेकिन उन्होंने अपनी पुत्री सती और अपने दामाद शंकर जी को नहीं बुलाया था। 

लेकिन माँ सती शिव जी के लाख मना करने बाद बिन बुलाये अपने पिता के घर इस आयोजन के निमित्त आ गईं। 

जब माँ सती ने अपने पति दक्ष से यह पूछा कि आपने सभी को इस यज्ञ के लिए न्यौता भेजा ।  

लेकिन अपने दामाद को आपने न्यौता नहीं दिया। 

इसका कारण क्या है ? 

यह सुनकर राजा दक्ष भगवान भोलेनाथ को बुरा भला कहने लगे। 

वे माँ सती के समक्ष उनके पति की निंदा करने लगे। 

यह सुन कर माँ सती को बहुत दुख हुआ। 

इस दुख में उन्होंने यज्ञ के लिए बनाए गए अग्नि कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी।

जब इस बात का पता भगवान शिव को हुआ तो, क्रोध के कारण उन्होने वीरभद्र को भेजा जिसने उस यज्ञ को तहस-नहस कर दिया। 

वहाँ उपस्थित सारे ऋषि और देव गण उनके प्रकोप से बचने के लिए वहाँ से भाग गए। 

भगवान शिव ने उस अग्निकुंड से माँ सती के शव को निकाल कर गोद में उठा लिया और इधर-उधर भटकने लगे। 

ठीक उसी समय भगवान विष्णु जी यह जानते थे कि शिव के क्रोध से सारी सृष्टि नष्ट हो सकती है। 

इस लिए उन्होंने शिव के क्रोध को शांत करने के लिए माँ सती के शव को अपने सुदर्शन चक्र से हिस्सों में विभाजित कर दिया। 

माँ के शव के ये हिस्से पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों में जा गिरे और बाद में यही हिस्से 51 शक्तिपीठ कहलाये।



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51 शक्तिपीठ - जो पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में हैं व्याप्त...!

क्र. सं. शक्ति पीठ का नाम स्थान

1 हिंगलाज शक्तिपीठ कराची, पाकिस्तान

2 शर्कररे कराची, पाकिस्तान

3 सु्गंधा-सुनंदा शिकारपुर, बांग्लादेश

4 कश्‍मीर-महामाया पहलगाँव, कश्मीर

5 ज्‍वालामुखी-सिद्धिदा कांगड़ा, हिमाचल

6 जालंधर-त्रिपुरमालिनी जालंधर, पंजाब

7 वैद्यनाथ- जयदुर्गा वैद्यनाथ धाम, देवघर, झारखंड

8 नेपाल- महामाया गुजरेश्वरी मंदिर, नेपाल

9 मानस- दाक्षायणी कैलाश मानसरोवर, तिब्बत

10 विरजा- विरजाक्षेतर विराज, उड़ीसा

11 गंडकी- गंडकी पोखरा, नेपाल

12 बहुला-बहुला (चंडिका) वर्धमान, पश्चिम बंगाल

13 उज्जयिनी- मांगल्य चंडिका उज्जयिनी, पश्चिम बंगाल

14 त्रिपुरा-त्रिपुर सुंदरी उदयपुर, त्रिपुरा

15 चट्टल - भवानी चटगाँव, बांग्लादेश

16 त्रिस्रोता - भ्रामरी जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल

17 कामगिरि - कामाख्‍या गुवाहाटी, पश्चिम बंगाल

18 प्रयाग - ललिता प्रयागराज, उत्तर प्रदेश

19 युगाद्या- भूतधात्री वर्धमान, पश्चिम बंगाल

20 जयंती- जयंती सिल्हैट, बांग्लादेश

21 कालीपीठ - कालिका कालीघाट, पश्चिम बंगाल

22 किरीट - विमला (भुवनेशी) मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल

23 वाराणसी - विशालाक्षी काशी, उत्तर प्रदेश

24 कन्याश्रम - सर्वाणी कन्याकुमार, तमिलनाडु

25 कुरुक्षेत्र - सावित्री कुरुक्षेत्र, हरियाणा

26 मणिदेविक - गायत्री पुष्कर, राजस्थान

27 श्रीशैल - महालक्ष्मी सिल्हैट, बांग्लादेश

28 कांची- देवगर्भा बीरभूम, पश्चिम बंगाल

29 कालमाधव - देवी काली अमरकंटक, मध्य प्रदेश

30 शोणदेश - नर्मदा (शोणाक्षी) अमरकंटक, मध्य प्रदेश

31 रामगिरि - शिवानी झांसी, उत्तर प्रदेश

32 वृंदावन - उमा मथुरा, उत्तर प्रदेश

33 शुचि- नारायणी कन्याकुमारी, तमिलनाडु

34 पंचसागर - वाराही वाराणसी, उत्तर प्रदेश

35 करतोयातट - अपर्णा शेरपुर बागुरा, बांग्लादेश

36 श्रीपर्वत - श्रीसुंदरी लद्दाख, जम्मू और कश्मीर

37 विभाष - कपालिनी पूर्वी मेदिनीपुर, पश्चिम बंगाल

38 प्रभास - चंद्रभागा जूनागढ़, गुजरात

39 भैरवपर्वत - अवंती उज्जैन, मध्य प्रदेश

40 जनस्थान - भ्रामरी नासिक महाराष्ट्र

41 सर्वशैल स्थान राजामुंद्री, आंध्र प्रदेश

42 गोदावरीतीर राजामुंद्री, आंध्र प्रदेश

43 रत्नावली - कुमारी हुगली, पश्चिम बंगाल

44 मिथिला- उमा (महादेवी) जनकपुर, भारत-नेपाल सीमा

45 नलहाटी - कालिका तारापीठ वीरभूम, पश्चिम बंगाल

46 कर्णाट- जयदुर्गा कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश

47 वक्रेश्वर - महिषमर्दिनी वीरभूम, पश्चिम बंगाल

48 यशोर- यशोरेश्वरी खुलना, बांग्लादेश

49 अट्टाहास - फुल्लरा लाभपुर, पश्चिम बंगाल

50 नंदीपूर - नंदिनी वीरभूमि, पश्चिम बंगाल

51 लंका - इंद्राक्षी त्रिंकोमाली, श्रीलंका



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1. हिंगलाज शक्‍तिपीठ

यह शक्तिपीठ पाकिस्तान के कराची से 125 किमी उत्‍तर-पूर्व में स्‍थित है। 

पुराणों की मानें तो यहां माता का शीश गिरा था। 

इस की शक्‍ति - कोटरी ( भैरवी कोट्टवीशा ) हैं। 

कराची से वार्षिक तीर्थ यात्रा अप्रैल के महीने में शुरू होती है।


2. शर्कररे

माँ सती का यह शक्तिपीठ पाकिस्तान के कराची शहर में स्थित सुक्कर स्टेशन के निकट मौजूद है। 

हालाँकि कुछ लोग इसे नैना देवी मंदिर, बिलासपुर में भी बताते हैं। 

यहां देवी की आँख गिरी थी और वे महिष मर्दिनी कहलाती हैं।


3. सु्गंधा - सुनंदा

यह शक्तिपीठ बांग्‍लादेश के शिकारपुर में बरिसल से करीब 20 किमी दूर सोंध नदी के पास स्‍थित है। 

ऐसा कहा जाता है कि जब विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर को विभिन्न हिस्सों में विभक्त किया था तो यहाँ उनकी नाक आकर गिरी थी।


4. कश्‍मीर - महामाया

महामाया शक्तिपीठ जम्मू - कश्‍मीर के पहलगाँव में है। 

मान्यता है कि यहाँ माँ का कंठ गिरा था और बाद में यहीं माहामाया शक्‍तिपीठ बना।


5. ज्‍वालामुखी - सिद्धिदा

भारत में हिमांचल प्रदेश के कांगड़ा में माता की जीभ गिरी थी। 

इसे ज्‍वालाजी स्‍थान कहते हैं। 

हजारों श्रद्धालु इस शक्तिपीठ में माँ के दर्शन के लिए आते हैं।


6. जालंधर - त्रिपुरमालिनी

पंजाब के जालंधर में माता त्रिपुरमालिनी को समर्पित देवी तालाब मन्दिर है। 

धार्मिक मान्यता के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि यहां माता का बायाँ वक्ष गिरा था।


7. वैद्यनाथ - जयदुर्गा

झारखंड में स्थित वैद्यनाथ धाम पर माता का हृदय गिरा था। 

यहाँ माता के रूप को जयमाता और भैरव को वैद्यनाथ के रूप से जाना जाता है।


8. नेपाल - महामाया

गुजयेश्वरी मंदिर, नेपाल में पशुपतिनाथ मंदिर के साथ ही स्थित है ।  

जहां देवी के दोनों घुटने गिरे बताये जाते हैं। 

यहां देवी का नाम महाशिरा है।


9. मानस - दाक्षायणी

यह शक्तिपीठ तिब्बत में कैलाश मानसरोवर के मानसा के पास स्थित है। 

ऐसा कहा जाता यहाँ पर शिला पर माता का दायां हाथ गिरा था।


10. विरजा - विरजाक्षेतर

यह शक्ति पीठ उड़ीसा के उत्कल में स्थित है। 

यहाँ पर माता सती की नाभि गिरी थी। 

कटक, भुवनेश्वर, कोलकाता और ओडिशा के अन्य छोटे शहरों से बस का लाभ लेने से पर्यटक स्थल पर पहुंच सकते हैं।


11. गंडकी - गंडकी

नेपाल में गंडकी नदी के तट पर पोखरा नामक स्थान पर स्थित मुक्तिनाथ मंदिर है। 

ऐसा कहते हैं कि यहाँ माता का मस्तक या गंडस्थल यानी कनपटी गिरी थी।


12. बहुला - बहुला ( चंडिका )

भारत के पश्चिम बंगाल में वर्धमान जिले से 8 किमी दूर कटुआ केतुग्राम के पास अजेय नदी तट पर स्थित बाहुल स्थान पर माता का बायां हाथ गिरा था।


13. उज्जयिनी - मांगल्य चंडिका

भारत में पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले से 16 किमी दूर गुस्कुर स्टेशन से उज्जय‍िनी नामक स्थान पर माता की दाईं कलाई गिरी थी।


14. त्रिपुरा - त्रिपुर सुंदरी

भारतीय राज्य त्रिपुरा के उदरपुर के पास राधाकिशोरपुर गांव के माताबाढ़ी पर्वत शिखर पर माता का दायां पैर गिरा था।


15. चट्टल - भवानी

बांग्लादेश में चटगाँव जिले के सीताकुंड स्टेशन के पास ‍चंद्रनाथ पर्वत शिखर पर छत्राल ( चट्टल या चहल ) में माता की दायीं भुजा गिरी थी।


16. त्रिस्रोता - भ्रामरी

भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के बोडा मंडल के सालबाढ़ी ग्राम स्‍थित त्रिस्रोत स्थान पर माता का बायां पैर गिरा था।


17. कामगिरि - कामाख्‍या

भारतीय राज्य असम के गुवाहाटी जिले के कामगिरि क्षेत्र में स्‍थित नीलांचल पर्वत के कामाख्या स्थान पर माता की योनि गिरी थी।


18. प्रयाग - ललिता

भारतीय राज्य उत्तर प्रदेश के प्रयागराज के संगम तट पर माता की हाथ की अंगुली गिरी थी।


19. युगाद्या - भूतधात्री

पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले के खीरग्राम स्थित जुगाड्‍या ( युगाद्या ) स्थान पर माता के दाएं पैर का अंगूठा गिरा था।


20. जयंती - जयंती

बांग्लादेश के सिल्हैट जिले के जयंतीया परगना के भोरभोग गांव कालाजोर के खासी पर्वत पर जयंती मंदिर है। 

यहां माता की बायीं जंघा गिरी थी।


21. कालीपीठ - कालिका

पश्चिम बंगाल के कोलकाता स्थित कालीघाट में माता के बाएं पैर का अंगूठा गिरा था।


22. किरीट - विमला ( भुवनेशी )

पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले के लालबाग कोर्ट रोड स्टेशन के किरीटकोण ग्राम के पास माता का मुकुट गिरा था।


23. वाराणसी - विशालाक्षी

उत्तर प्रदेश के काशी में मणि‍कर्णिका घाट पर माता के कान के मणि जड़ित कुंडल गिरे थे।


24. कन्याश्रम - सर्वाणी

कन्याश्रम में माता का पृष्ठ भाग गिरा था।


25. कुरुक्षेत्र - सावित्री

हरियाणा के कुरुक्षेत्र में माता की एड़ी गिरी थी।


26. मणिदेविक - गायत्री

अजमेर के पास पुष्कर के मणिबन्ध स्थान के गायत्री पर्वत पर दो मणि - बंध गिरे थे।


27. श्रीशैल - महालक्ष्मी

बांग्लादेश के सिल्हैट जिले के उत्तर-पूर्व में जैनपुर गांव के पास शैल नामक स्थान पर माता का गला ( ग्रीवा ) गिरा था।


28. कांची - देवगर्भा

पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले के बोलारपुर स्टेशन के उत्तर पूर्व स्थित कोपई नदी तट पर कांची नामक स्थान पर माता की अस्थि गिरी थी।


29. कालमाधव - देवी काली

मध्य प्रदेश के अमरकंटक के कालमाधव स्थित शोन नदी तट के पास माता का बायाँ नितंब गिरा था, जहां एक गुफा है।


30. शोणदेश - नर्मदा ( शोणाक्षी )

मध्य प्रदेश के अमरकंटक में नर्मदा के उद्गम पर शोणदेश स्थान पर माता का दायां नितंब गिरा था।


31. रामगिरि - शिवानी

उत्तर प्रदेश के झांसी - मणिकपुर रेलवे स्टेशन चित्रकूट के पास रामगिरि स्थान पर माता का दायां वक्ष गिरा था।


32. वृंदावन - उमा

उत्तर प्रदेश में मथुरा के पास वृंदावन के भूतेश्वर स्थान पर माता के गुच्छ और चूड़ामणि गिरे थे।


33. शुचि - नारायणी

तमिलनाडु के कन्याकुमारी-तिरुवनंतपुरम मार्ग पर शुचितीर्थम शिव मंदिर है। 

यहां पर माता के ऊपरी दंत ( ऊर्ध्वदंत ) गिरे थे।


34. पंचसागर - वाराही

पंचसागर ( एक अज्ञात स्थान ) में माता की निचले दंत गिरे थे।


35. करतोयातट - अपर्णा

बांग्लादेश के शेरपुर बागुरा स्टेशन से 28 किमी दूर भवानीपुर गांव के पार करतोया तट स्थान पर माता की पायल ( तल्प ) गिरी थी।


36. श्रीपर्वत - श्रीसुंदरी

कश्मीर के लद्दाख क्षेत्र के पर्वत पर माता के दाएं पैर की पायल गिरी थी। 

दूसरी मान्यता अनुसार आंध्रप्रदेश के कुर्नूल जिले के श्रीशैलम स्थान पर दक्षिण गुल्फ अर्थात दाएं पैर की एड़ी गिरी थी।


37. विभाष - कपालिनी

पश्चिम बंगाल के जिले पूर्वी मेदिनीपुर के पास तामलुक स्थित विभाष स्थान पर माता की बायीं एड़ी गिरी थी।


38. प्रभास - चंद्रभागा

गुजरात के जूनागढ़ जिले में स्थित सोमनाथ मंदिर के पास वेरावल स्टेशन से 4 किमी दूर प्रभास क्षेत्र में माता का उदर ( पेट ) गिरा था।


39. भैरवपर्वत - अवंती

मध्य प्रदेश के ‍उज्जैन नगर में शिप्रा नदी के तट के पास भैरव पर्वत पर माता के होंठ गिरे थे।


40. जनस्थान - भ्रामरी

महाराष्ट्र के नासिक नगर स्थित गोदावरी नदी घाटी स्थित जनस्थान पर माता की ठोड़ी गिरी थी।


41. सर्वशैल स्थान

आंध्र प्रदेश के राजामुंदरी क्षेत्र स्थित गोदावरी नदी के तट पर कोटिलिंगेश्वर मंदिर के पास सर्वशैल स्थान पर माता के वाम गंड ( गाल ) गिरे थे।


42. गोदावरीतीर

गोदावरी तीर शक्ति पीठ या सर्वशैल प्रसिद्ध शक्ति पीठ है, यह हिन्दुओं के लिए प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। 

यह मंदिर भारत के आंध्र प्रदेश राज्य में राजमुंदरी के पास गोदावरी नदी के किनारे कोटिलेश्वर मंदिर में स्थित है। 

इस जगह पर माता के दक्षिण गंड गिरे थे।


43. रत्नावली - कुमारी

बंगाल के हुगली जिले के खानाकुल - कृष्णानगर मार्ग पर रत्नावली स्थित रत्नाकर नदी के तट पर माता का दायां स्कंध गिरा था।


44. मिथिला - उमा ( महादेवी )

भारत - नेपाल सीमा पर जनकपुर रेलवे स्टेशन के पास मिथिला में माता का बायां स्कंध गिरा था।


45. नलहाटी - कालिका तारापीठ

पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के नलहाटि स्टेशन के निकट नलहाटी में माता के पैर की हड्डी गिरी थी।


46. कर्णाट - जयदुर्गा

माँ सती के कुछ शक्तिपीठों के बारे में अभी भी रहस्य बना हुआ है और उन्हीं रहस्यमयी शक्तिपीठों में कर्णाट ( अज्ञात स्थान ) शक्तिपीठ एक है। 

कहते हैं कि यहाँ पर माता के दोनों कान गिरे थे।


47. वक्रेश्वर - महिषमर्दिनी

पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के दुबराजपुर स्टेशन से सात किमी दूर वक्रेश्वर में पापहर नदी के तट पर माता का भ्रूमध्य गिरा था।


48. यशोर - यशोरेश्वरी

यशोरेश्वरी शक्तिपीठ बांग्लादेश के खुलना जिले के ईश्वरीपुर के यशोर स्थान पर है। 

धार्मिक आस्था के अनुसार, कहते हैं कि इसी स्थान पर माँ सती के हाथ और पैर गिरे थे।


49. अट्टाहास - फुल्लरा

पश्चिम बंगाल के लाभपुर स्टेशन से दो किमी दूर अट्टहास स्थान पर माता के होंठ गिरे थे। 

नवदुर्गा के समय माँ के भक्तों का यहाँ जमावड़ा लगा रहता है।


50. नंदीपूर - नंदिनी

पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के सैंथिया रेलवे स्टेशन नंदीपुर स्थित चारदीवारी में बरगद के वृक्ष के पास माता का गले का हार गिरा था।


51. लंका - इंद्राक्षी

इंद्राक्षी शक्तिपीठ भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका के त्रिंकोमाली में स्थित है। 

धार्मिक मान्यता के अनुसार, ऐसा माना गया है कि संभवत: श्रीलंका के त्रिंकोमाली में माता की पायल गिरी थी।



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जो लोग योगसाधना नही कर पाते,उन्हें गृहस्थाश्रम योग का फल देता है ।  

गृहस्थाश्रम में धर्म मुख्य है जबकि काम गौण, गृहस्थाश्रम ग्यारह इन्द्रियों पर विजय पाने के लिए है। 

विवाह विलास के लिए नही बल्कि काम विनाश के लिए है । 

जो आनन्द योगी को समाधि में मिलता है वही आनन्द गृहस्थ घर में प्राप्त कर सकता है । 

किन्तु इसके लिए पति पत्नी को एकान्त में कृष्ण कीर्तन करना चाहिए।

गृहस्थाश्रम बिगड़ता है कुसंग से अतः गृहस्थाश्रम को सुधारने के लिए सत्संग करना चाहिए।

कश्यप की दो पत्नियाँ थी अदिति और दिति, उनका गृहस्थाश्रम श्रेष्ठ एवं दिव्य था । 

वे पवित्रतापूर्वक जीते हुए तपश्चर्या करते थे ।  

अतः प्रभु उनके घर पुत्र बनकर आए।आज भी यदि कोई नारी अदिति की भाँति पयोव्रत करे और उसका पति कश्यप सा बने,तो भगवान उसके घर जन्म लेने को तैयार हैं।

अदिति का अर्थ है अभेदबुद्धि , ब्रह्माकार बुद्धि, सी वृत्ति में से ही ब्रह्मा का प्रकटीकरण होता है।

कश्यप का अर्थ है मन, जिसकी मनोवृत्ति ब्रह्माकार हो गयी होती है  वही कश्यप है। 

यदि पत्नी अदिति और पति कश्यप बने तो परमात्मा उनके घर अवतार लेते हैं । 

प्रकट होते हैं, योगी ब्रह्मचिंतन द्वारा प्रभुमय हो सकता है । 

तो पवित्र गृहस्थ प्रभु को पुत्र रुप में प्राप्त कर सकता है । 

पवित्र गृहस्थाश्रमी युगल भगवान को पुत्र के रुप में पा सकते हैं ।   

किन्तु पहले उन्हें कश्यप और अदिति बनना होगा, जब तक देहदृष्टि होगी । 

तब तक काम पीछे पीछे आएगा, काम का नाश करने के लिए देहदृष्टि की अपेक्षा देवदृष्टि रखना होगा ।

लोग कहते हैं कि जगत् बिगड़ गया है । 

जगत नहीं बल्कि मनुष्य की दृष्टि बुद्धि मन बिगड़ गये हैं ।

किसी को भी भोग दृष्टि नहीं बल्कि भगवत दृष्टि से देखना चाहिए, दृष्टि सुधरेगी तो ।  

तो सृष्टि भी सुधर जायेगी।

दिति ही भेदबुद्धि है और अदिति अभेदबुद्धि , ब्रह्माकार वृत्ति है।

दिति - भेद बुद्धि राक्षसों को जन्म देती है जैसे कि " हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप। " 

अदिति अभेदबुद्धि भगवान वामन को जन्म देती है। 

जगत को भेदभाव से नहीं, अभेदभाव से देखना चाहिए। 

जिसकी बुद्धि में भेद है,उसके मन में भी भेद है।  

भेद विकार वासना को जन्म देता है। 

ज्ञानी सभी को अभेदभाव से देखते हैं,अनेक में एक का अनुभव करना ही तो ज्ञान है। 

दृष्टि भगवन्मय होगी तो हर कहीं भगवान दिखायी देंगे।

गोपियों की दृष्टि परमात्मा में थी सो मथुरा में रहने पर भी श्रीकृष्ण उन्हें गोकुल मे ही दिखाई देते थे वे उद्धव जी से कहती हैं-

" जित देखौं तित श्याममयी है, "

श्याम कुंज वन जमुना श्यामा।

श्यामा गगन घन घटा छयी है। 

सब रंगन में श्याम भरयो है । 

लोग कहत यह बात नयी है।

नीलकंठ को कंठ श्याम है । 

मनो श्यामता फैल गयी है ।।

ब्रह्माकार वृत्ति अदिति का सम्बन्ध कश्यप के साथ हुआ ।  

कश्यप शब्द को यदि उलट दिया जाय तो होगा " पश्यक " उपनिषद के अनुसार " क " का अर्थ है ।  

ईश्वर, " पश्य " का अर्थ है देखना,अर्थात् सभी में एक ईश्वर को देखने वाला ही कश्यप है । 

जब कश्यप की वृत्ति ब्रह्माकार ब्रह्ममयी हुई तो परमात्मा को प्रकट होना पड़ा।

  || सबसे बड़ा आश्रम गृहस्थाश्रम ||

ज्योतिषी पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

      || ॐ आदित्याय नमः ||

भगवान से प्रार्थना में क्या मांगूँ ? भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं ? रात्रि भोजन से नरक ? शरणागति के 4 प्रकार है ?

भगवान से प्रार्थना में क्या मांगूँ…? भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं? रात्रि भोजन से नरक ?शरणागति के 4 प्रकार है ? 


भगवान से प्रार्थना में क्या मांगूँ…??? 

प्रह्लाद ने भगवान से माँगा:- 

" हे प्रभु मैं यह माँगता हूँ कि मेरी माँगने की इच्छा ही ख़त्म हो जाए…! "

कुंती ने भगवान से माँगा : - 

" हे प्रभु मुझे बार बार विपत्ति दो ताकि आपका स्मरण होता रहे…!"



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महाराज पृथु ने भगवान से माँगा : - 

" हे प्रभु मुझे दस हज़ार कान दीजिये ताकि में आपकी पावन लीला गुणानुवाद का अधिक से अधिक रसास्वादन कर सकूँ…! "

और हनुमान जी तो बड़ा ही सुंदर कहते हैं : - 

" अब प्रभु कृपा करो एही भाँती।
सब तजि भजन करौं दिन राती॥ "

भगवान से माँगना दोष नहीं मगर क्या माँगना ये होश जरूर रहे…!

पुराने समय में भारत में एक आदर्श गुरुकुल हुआ करता था....! 

उसमें बहुत सारे छात्र शिक्षण कार्य किया करते थे....! 

उसी गुरुकुल में एक विशेष जगह हुआ करती थी जहाँ पर सभी शिष्य प्रार्थना किया करते थे...! 

वह जगह पूजनीय हुआ करती थी…!

एक दिन एक शिष्य के मन के जिज्ञासा उत्पन हुई तो उस शिष्य ने गुरु जी से पूछा - 

हम प्रार्थना करते हैं, तो होंठ हिलते हैं पर आपके होंठ कभी नहीं हिलते…!


आप पत्थर की मूर्ति की तरह खडे़ हो जाते हैं, आप कहते क्या हैं अन्दर से…!

क्योंकि अगर आप अन्दर से भी कुछ कहेंगे तो होठों  पर थोड़ा कंपन तो आ ही जाता है, चेहरे पर बोलने का भाव आ ही जाता है, लेकिन आपके कोई भाव ही नहीं आता…!
  
गुरु जी ने कहा -  

मैं एक बार राजधानी से गुजरा और राजमहल के सामने द्वार पर मैंने सम्राट और एक भिखारी को खडे़ देखा…!
 
वह भिखारी बस खड़ा था, फटे -- चीथडे़ थे उसके शरीर पर, जीर्ण - जर्जर देह थी जैसे बहुत दिनो से भोजन न मिला हो, शरीर सूख कर कांटा हो गया…!

बस आंखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थीं....!

बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो,वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था...!

लगता था अब गिरा - तब गिरा ! 

सम्राट उससे बोला - 

बोलो क्या चाहते हो…?
 
" उस भिखारी ने कहा - 

अगर आपके द्वार पर खडे़ होने से मेरी मांग का पता नहीं चलता,तो कहने की कोई जरूरत नहीं…!

क्या कहना है....! 

मै आपके द्वार पर खड़ा हूं,मुझे देख लो मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है…! "

गुरु जी ने कहा - 

उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी,मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूं,वह देख लेगें…!

अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती,तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे…!

अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकते,तो मेरे शब्दों को क्या समझेंगे...?
 
अतः भाव व दृढ विश्वास ही सच्ची परमात्मा की याद के लक्षण हैं...!

यहाँ कुछ मांगना शेष नही रहता,आपका प्रार्थना में होना ही पर्याप्त है..!!

    🙏🏾🙏🏽🙏जय श्री कृष्ण🙏🏻🙏🏼🙏🏿


भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं?



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भारत को जम्बूद्वीप के नाम से भी जाना जाता हैं...! 

लेकिन कई लोगों को अब तक यह जानकारी नहीं हैं कि आखिर...! 

“ भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं ”। 

संस्कृत भाषा में जम्बूद्वीप का मतलब है जहां “ जंबू के पेड़ ” उगते हैं। 

प्राचीन समय में भारत में रहने वाले लोगों को जम्बूद्वीपवासी कहा जाता था। 

जम्बूद्वीप शब्द का प्रयोग चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने के लिए भी किया था...! 

जिसका प्रमाण इतिहास में मिलता हैं. यहाँ हम आपको बताने जा रहे हैं कि भारत को जम्बूद्वीप क्यों कहा जाता हैं।

जम्बूद्वीप का मतलब :

एक ऐसा द्वीप जो क्षेत्रफल में बहुत बड़ा होने के साथ - साथ, इस क्षेत्र में पाए जाने वाले जम्बू के वृक्ष और फलों की वजह से विश्वविख्यात था।

जम्बूद्वीप प्राचीन समय में वही स्थान था जहाँ पर अभी भारत हैं. अतः भारत को जम्बूद्वीप कहा जाता हैं. भारत वर्ष, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल, तिब्बत, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालद्वीप। 
कुछ शोधों के अनुसार जम्बूद्वीप एक पौराणिक महाद्वीप है। 

इस महाद्वीप में अनेक देश हैं। 

भारतवर्ष इसी महाद्वीप का एक देश है।


जम्बूद्वीप हर तरह से सम्पन्नता का प्रतिक हैं। 

देवी - देवताओं से लेकर ऋषि मुनियों तक ने इस भूमि को चुना था क्योंकि यहाँ पर नदियाँ, पर्वत और जंगल हर तरह का वातावरण एक  ही देश में देखने को मिलता था‌।

हमारा देश एक कर्मप्रधान देश है और यहाँ जो जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है, सदियों से भारत के लोग इस व्यवस्था को मानते रहे हैं। 

जम्बूद्वीप एक ऐसा विस्तृत भूभाग हैं जिसमें आर्यावर्त, भारतवर्ष और भारतखंडे आदि शामिल हैं।

जम्बुद्वीप के सम्बन्ध में मुख्य बातें :

[1] जम्बूद्वीप को “सुदर्शन द्वीप” के रूप में भी जाना जाता है।

[2] प्राचीन समय में यहाँ पर जामुन के पेड़ बहुतायात में पाए जाते थे, इसलिए यह भूभाग जम्बूद्वीप के नाम से जाना जाने लगा।

[3] विष्णुपुराण में लिखा हैं कि जम्बू के पेड़ पर लगने वाले फल हाथियों जितने बड़े होते थे ,जब भी वह पहाड़ों से गिरते तो उनके रस की नदी बहने लगती थी। 

इस नदी को जम्बू नदी  से भी जाना जाता था। इस नदी का पानी पिने वाले जम्बूद्वीपवासी थे।

[4] मार्कण्डेय पुराण के अनुसार जम्बूद्वीप उत्तर और दक्षिण में कम और मध्य भाग में ज्यादा था जिसे इलावर्त या मेरुवर्ष से जाना जाता था।

[5]  जम्बूद्वीप की तरफ से बहने वाली नदी को जम्बू नदी के नाम से जाना  जाता है।

[6] जब भी घर में पूजा-पाठ होता हैं तब मंत्र  के साथ  जम्बूद्वीपे, आर्याव्रते, भारतखंडे, देशांतर्गते, अमुकनगरे या अमुकस्थाने फिर उसके बाद नक्षत्र और गोत्र का नाम आता है।

[7] रामायण में भी जम्बूद्वीप का वर्णन मिलता हैं।

[8] जम्बू ( जामुन ) नामक वृक्ष की इस द्वीप पर अधिकता के कारण इस द्वीप का नाम जम्बू द्वीप रखा गया था।

[9] जम्बूद्वीप के नौ खंड थे जिनमें इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरि, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय आदि शामिल हैं।

[10] जम्बूद्वीप में 6 पर्वत थे जिनमें हिमवान, हेमकूट, निषध, नील, श्वेत और श्रृंगवान आदि।


|| रात्रि भोजन से नरक ? ||


रात्रि भोजन से नरक ? :

महाभारत वैदिक ग्रन्थानुसार रात्रि भोजन हानिकारक,नरक जाने का रास्ता भी यही है!


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वर्तमान के आधुनिक डाॅक्टर , वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध किया है कि रात्रि में सूर्य किरणों के अभाव में किया हुआ भोजन ठीक से पच नहीं पाता है...! 

इस लिए अनेक रोग होते है, इस लिए रात्रि में शयन के 3 - 4घंटे पहले दिन में ही लघु आहार करना चाहिए , जिससे भोजन शयन के पहले ही पच जायेगा !

वैदिक ग्रन्थ महाभारत में भी लिखा है : -

महाभारत के ज्ञान पर्व अध्याय 
70 श्लोक 273 में कहा भी है कि-

उलूका काक मार्जार,गृद्ध शंबर शूकराः l    
आहिवृश्चिकगोधाश्च,जायन्ते रात्रिभोजनात् l l 

अर्थ : - 

रात्रि के समय,भोजन करने वाला मानव मरकर इस पाप के फल से उल्लू,कौआ , बिलाव, गीध, शंबर, सूअर, साॅंप, बिच्छू , गुहा आदि निकृष्ट तिर्यंच योनि के जीवों में जन्म लेता है...!

इस लिए रात्रि भोजन त्याग करना चाहिए।

वासरे च रजन्यां च,यः खादत्रेव तिष्ठति l
शृंगपुच्छ परिभ्रष्ट,य : स्पष्ट पशुरेव हि l l

अर्थ : -

रात में भोजन करने वाला बिना सिंग,पूॅंछ का पशु ही है, ऐसा समझे।

महाभारत के शांतिपर्व में यह भी कहा है कि-

ये रात्रौ सर्वदा आहारं, वर्जयंति सुमेधसः l
तेषां पक्षोपवासस्य,फलं मासस्य जायते l l

अर्थ : - 

जो श्रेष्ठ बुद्धि वालें विवेकी मानव रात्रि भोजन करने का सदैव त्याग के लिए तत्पर रहते है,उनको एक माह में 15 दिन के उपवास का फल मिलता है।

चत्वारि नरक द्वाराणि,प्रथमं रात्रि भोजनम् l
परस्त्री गमनं चैव,संधानानंत कायिकं l l

अर्थ : - 

नरक जाने के चार रास्ते है : -

1 रात्रि भोजन, 2 परस्त्रीगमन 3 आचार, मुरब्बा, 4 जमीकन्द ( आलू , प्याज , मूली , गाजर , सकरकंद , लहसुन ,अरबी , अदरक , ये आठ होने से , इन को अष्टकन्द भी कहते है ) सेवन करने से,नरक जाना पड़ता है !

मार्कण्डेय पुराण में,तो अध्याय
    33 श्लोक में कहा है, कि-

 अस्तंगते दिवानाथे,आपो रुधिरमुच्यते l
अन्नं मांसं समं प्रोक्तं, मार्कण्डेय महर्षिणा l l

अर्थात् : -

सूर्य अस्त होने के बाद ,जल को रुधिर मतलब खून और अन्न को मांस के समान माना गया है,अतः रात्रि भोजन का त्याग अवश्यमेव करना ही चाहिए !

नरक को जाने से बचने के लिए !

चार प्रकार का आहार भोजन होता है : - 

( 1 ) - खाद्य : - 

रोटी , भात , कचौडी , पूडी आदि !


( 2 ) - स्वाद्य : - 

चूर्ण , तांबूल , सुपाडी आदि !

( 3 ) - लेह्य : - 

रबडी़ , मलाई , चटनी आदि !

( 4 ) - पेय : - 

पानी , दूध , शरबत आदि !

जैन धर्म में रात्रि भोजन का बडा़ ही महत्त्व है ! 

चार प्रकार सूक्ष्मता से निर्दोष पालन की विधि भी बतायी गयी है, कि रात्रि : -

( अ ) - दिन का बना भी रात्रि में न खाएं !

( ब ) - रात्रि का बना तो रात में खाए ही नहीं !

( क ) - रात्रि का बना भी दिन में न खाए और

( ड ) - उजाले में दिन का बना दिन में ही, वह भी अंधेरे में नहीं उजाले में ही खाए ।

रात्रि में सूर्य प्रकाश के अभाव में ,अनेक सूक्ष्मजीव उत्पन्न होते है l 

भोजन के साथ , यदि जीव पेट में चले गये , तो रोग कारण बनते हैं।

यथा पेट में जाने पर,ये रोग , चींटा - चींटी, बुद्धिनाश जूं , जूए , जलोदर, मक्खी , पतंगा वमन , लिक लीख , कोड , बाल  स्वरभंग बिच्छू , छिपकली मरण , छत्र चामर वाजीभ , रथ पदाति संयुता: l

विराजनन्ते नरा यत्र l

ते रात्र्याहारवर्जिनः l l

अर्थ : - 

ग्रन्थकार कहते है कि छत्र , चंवर , घोडा , हाथी , रथ और पदातियों से युक्त , नर जहाॅं कहीं भी दिखाई देते है....! 

ऐसा समझना चाहिए कि उन्होंने पूर्व भव में रात्रि भोजन का त्याग किया था,उस त्याग से उपार्जित हुए,पुण्य को वे भोग रहे हैं।

एक सिक्ख ने कह दिया, कि पहले के जमाने में लाईट की रोशनी नहीं थी....!

इस लिए रात्रि भोजन नहीं करते थे,तो उससे पूछा कि पहले नाई नहीं होंगे , इस लिए हजामत नहीं करते होंगे....!

अब तो नांई बहुत है फिर भी बाल क्यों नहीं बनाते ; 

चुप होना पड़ा l 

चाहे कितनी भी लाईट की रोशनी हो,पर सूर्यास्त के बाद,जीवों की उत्पत्ति बढ़ती ही है और जठराग्नि भी शांत होती है....! 

इस लिए भोजन छोड़ना ही चाहिए l 

स्वस्थ,मस्त, व्यस्त भी रहना हो ,तो।

|| शरणागति के 4 प्रकार है ? ||


शरणागति के 4 प्रकार है ?

1 - जिह्वा से भगवान के नाम का जप- 

भगवान् के स्वरुप का चिंतन करते हुए उनके परम पावन नाम का नित्य निरंतर निष्काम भाव से परम श्रद्धापूर्वक जप करना तथा हर समय भगवान् की स्मृति रखना।

2 - भगवान् की आज्ञाओं का पालन करना-

श्रीमद्भगवद्गीता जैसे भगवान् के श्रीमुख के वचन, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के वचन तथा महापुरुषों के आचरण के अनुसार कार्य करना।

3 - सर्वस्व प्रभु के समर्पण कर देना-

वास्तव मे तो सब कुछ है ही भगवान् का,क्योंकि न तो हम जन्म के समय कुछ साथ लाये और न जाते समय कुछ ले ही जायेंगे।

भ्रम से जो अपनापन बना रखा है,उसे उठा देना है।

4 - भगवान् के प्रत्येक विधान मे परम प्रसन्न रहना- 

मनचाहा करते - करते तो बहुत - से जन्म व्यतीत कर दिए,अब तो ऐसा नही होना चाहिए।

अब तो वही हो जो भगवान् चाहते है।

भक्त भगवान् के विधानमात्र मे परम प्रसन्न रहता है फिर चाहे वह विधान मन, इंद्रिय और शरीर के प्रतिकूल हो या अनुकूल।

सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।। 

जिस प्रकार मैले दर्पण में सूर्य देव का प्रकाश नहीं पड़ता है उसी प्रकार मलिन अंतःकरण में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता है...! 

अर्थात मलिन अंतःकरण में शैतान अथवा असुरों का राज होता है ! 

अतः  

ऐसा मनुष्य ईश्वर द्वारा प्रदत्त  दिव्यदृष्टि  या दूरदृष्टि का अधिकारी नहीं बन सकता एवं अनेको दिव्य सिद्धियों एवं निधियों को प्राप्त नहीं कर पाता या खो देता है !

शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! 

चाहो तो इससे विभूतिया (अच्छाइयां पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम  दुर्गति  ( बुराइया  /  पाप ) इत्यादि !

परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो !

प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो ! 

करुणा को चुनो !

     || ॐ नमो नारायण ||
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु 
तमिल / द्रावीण ब्राह्मण जय श्री कृष्ण

रामेश्वर कुण्ड

 || रामेश्वर कुण्ड || रामेश्वर कुण्ड एक समय श्री कृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर श्रीराधिका के साथ ...