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श्रीमहाभारतम् , श्री लिंग महापुराण , श्रीस्कन्द महापुराण :

श्रीमहाभारतम्  , श्री लिंग महापुराण  , श्रीस्कन्द महापुराण :  

श्रीमहाभारतम् : 


।। श्रीहरिः ।।

* श्रीगणेशाय नमः *

।। श्रीवेदव्यासाय नमः ।।


( आस्तीकपर्व )


एकोनविंशोऽध्यायः


देवताओं का अमृतपान, देवासुर संग्राम तथा देवताओं की विजय...!


रुधिरेणानुलिप्ताङ्गा निहताश्च महासुराः ।

अद्रीणामिव कूटानि धातुरक्तानि शेरते ।। १५ ।।




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वहाँ खून से लथपथ अंगवाले मरे हुए महान् असुर, जो समरभूमि में सो रहे थे, गेरू आदि धातुओं से रँगे हुए पर्वत-शिखरों के समान जान पड़ते थे ।। १५ ।।


हाहाकारः समभवत् तत्र तत्र सहस्रशः ।

अन्योन्यं छिन्दतां शस्त्रैरादित्ये लोहितायति ।। १६ ।।


संध्याके समय जब सूर्यमण्डल लाल हो रहा था, एक - दूसरेके शस्त्रोंसे कटनेवाले सहस्रों योद्धाओंका हाहाकार इधर - उधर सब ओर गूंज उठा ।। १६ ।।




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परिघेरायसैस्तीक्ष्णैः संनिकर्षे च मुष्टिभिः।

निघ्नतां समरेऽन्योन्यं शब्दो दिवमिवास्पृशत् ।। १७ ।।


उस समरांगणमें दूरवर्ती देवता और दानव लोहेके तीखे परिघोंसे एक-दूसरेपर चोट करते थे और निकट आ जानेपर आपसमें मुक्का - मुक्की करने लगते थे। 

इस प्रकार उनके पारस्परिक आघात - प्रत्याघातका शब्द मानो सारे आकाशमें गूंज उठा ।। १७ ।।




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छिन्धि भिन्धि प्रधाव त्वं पातयाभिसरेति च ।

व्यश्रूयन्त महाघोराः शब्दास्तत्र समन्ततः ।। १८ ।।


उस रणभूमिमें चारों ओर ये ही अत्यन्त भयंकर शब्द सुनायी पड़ते थे कि 'टुकड़े-टुकड़े कर दो, चीर डालो, दौड़ो, गिरा दो और पीछा करो' ।। १८ ।।




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एवं सुतुमुले युद्धे वर्तमाने महाभये । 

नरनारायणौ देवौ समाजग्मतुराहवम् ।। १९ ।।


इस प्रकार अत्यन्त भयंकर तुमुल युद्ध हो ही रहा था कि भगवान् विष्णुके दो रूप नर और नारायणदेव भी युद्धभूमिमें आ गये ।। १९ ।।


तत्र दिव्यं धनुर्दृष्ट्वा नरस्य भगवानपि ।

चिन्तयामास तच्चक्रं विष्णुर्दानवसूदनम् ।। २० ।।


भगवान् नारायणने वहाँ नरके हाथमें दिव्य धनुष देखकर स्वयं भी दानवसंहारक दिव्य चक्रका चिन्तन किया ।। २० ।।


ततोऽम्बराच्चिन्तितमात्रमागतं

महाप्रभं चक्रममित्रतापनम् ।

विभावसोस्तुल्यमकुण्ठमण्डलं

सुदर्शनं संयति भीमदर्शनम् ।। २१ ।।


चिन्तन करते ही शत्रुओंको संताप देनेवाला अत्यन्त तेजस्वी चक्र आकाशमार्गसे उनके हाथमें आ गया। 

वह सूर्य एवं अग्निके समान जाज्वल्यमान हो रहा था। 

उस मण्डलाकार चक्रकी गति कहीं भी कुण्ठित नहीं होती थी। 

उसका नाम तो सुदर्शन था, किंतु वह युद्धमें शत्रुओंके लिये अत्यन्त भयंकर दिखायी देता था ।। २१ ।।


तदागतं ज्वलितहुताशनप्रभं भयंकरं करिकरबाहुरच्युतः । 

मुमोच वै प्रबलवदुग्रवेगवान् महाप्रभं परनगरावदारणम् ।। २२ ।।


वहाँ आया हुआ वह भयंकर चक्र प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहा था।


उसमें शत्रुओंके बड़े-बड़े नगरोंको विध्वंस कर डालनेकी शक्ति थी। हाथीकी सूँड़के समान विशाल भुजदण्डवाले उग्रवेगशाली भगवान् नारायणने उस महातेजस्वी एवं महाबलशाली चक्रको दानवोंके दलपर चलाया ।। २२ ।।


तदन्तकज्वलनसमानवर्चसं पुनः पुनर्व्यपतत वेगवत्तदा । 

विदारयद् दितिदनुजान् सहस्रशः करेरितं पुरुषवरेण संयुगे ।। २३ ।।


उस महासमरमें पुरुषोत्तम श्रीहरिके हाथोंसे संचालित हो वह चक्र प्रलयकालीन अग्निके समान जाज्वल्यमान हो उठा और सहस्रों दैत्यों तथा दानवोंको विदीर्ण करता हुआ बड़े वेगसे बारम्बार उनकी सेनापर पड़ने लगा ।। २३ ।।


दहत् क्वचिज्ज्वलन इवावलेलिहत् प्रसह्य तानसुरगणान् न्यकृन्तत । 

प्रवेरितं वियति मुहुः क्षितौ तथा पपौ रणे रुधिरमथो पिशाचवत् ।। २४ ।।


श्रीहरिके हाथोंसे चलाया हुआ सुदर्शन चक्र कभी प्रज्वलित अग्निकी भाँति अपनी लपलपाती लपटोंसे असुरोंको चाटता हुआ भस्म कर देता और कभी हठपूर्वक उनके टुकड़े टुकड़े कर डालता था। 

इस प्रकार रणभूमिके भीतर पृथ्वी और आकाशमें घूम-घूमकर वह पिशाचकी भाँति बार-बार रक्त पीने लगा ।। २४ ।।


तथासुरा गिरिभिरदीनचेतसो मुहुर्मुहुः सुरगणमार्दयंस्तदा । 

महाबला विगलितमेघवर्चसः सहस्रशो गगनमभिप्रपद्य ह ।। २५ ।।


इसी प्रकार उदार एवं उत्साहभरे हृदयवाले महाबली असुर भी, जो जलरहित बादलोंके समान श्वेत रंग के दिखायी देते थे, उस समय सहस्रों की संख्या में आकाश में उड़-उड़कर शिलाखण्डों की वर्षा से बार-बार देवताओं को पीड़ित करने लगे ।। २५ ।।


क्रमशः...




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श्री लिंग महापुराण 


विष्णु भगवान द्वारा शिवजी की सहस्त्र नामों से स्तुति करना....!


हे ऋषियो ! 

इस प्रकार हरि सहस्त्र नाम से स्तुति करते हुए प्रत्येक नाम पर कमल अर्पण करते रहे। 

शिव ने हरि की परीक्षार्थ हजार कमलों में से एक कमल छिपा दिया। 

हरि विचार करने लगे क्या किया जाय। 

एक कमल कम हो गया सो अपने नेत्र रूपी कमल को निकाल कर शिव को अर्पण कर दिया। 

इस भाव से प्रसन्न हुए शिवजी अग्नि मण्डल से प्रकट हुए। 

उस समय उनका हजारों सूर्य मण्डल के सदृश तेज था। 

वे जटा मुकुट से शोभित शूल, टंक, गदा, चक्र, पाश आदि धारण किए हुए थे। 

ऐसे उग्र रूप को देखकर हरि भगवान ने शम्भु को नमस्कार किया। 

देवता भय से भागने लगे। 


ब्रह्मलोक चलायमान हो गया। 

वसुन्धरा काँपने लगी। 

शिव का तेज सौ योजन तक जलाने लगा। 

ऊपर नीचे के सभी लोकों में हा-हाकार मच गया।


उस समय शंकर हँसते हुए विष्णु से बोले- 

हे जनार्दन ! 

मैंने तुम्हारे देव कार्य को जान लिया है। 

यह सुदर्शन चक्र तुम्हारे लिये देता हूँ। 

ऐसा कहकर हजारों सूर्य के समान तेज वाला चक्र और ब्रह्म पद्म के सदृश हरि को दे दिया और तब से हरि का नाम पद्माक्ष पड़ा। 

शिव ने कहा- 

हे पुरुषोत्तम ! 

मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। 

तुम वरदान माँगो। 

तब विष्णु बोले- 

हे देव ! 

आपकी भक्ति बनी रहे और आप प्रसन्न रहिये, यह वरदान माँगता हूँ और कुछ नहीं। 

यह सुनकर शिव बोले- 

तुम्हारी मेरे में भक्ति बनी रहेगी और तुम सब देवों के पूज्य और वन्दनीय बने रहोगे। 

जब दक्ष की पुत्री सती पिता के अपमान से भस्म होगी और फिर दिव्य रूप से हिमाचल की पुत्री उमा होगी, उस समय तुम ही अवतार लेकर ब्रह्मा की आज्ञा से उमा को मेरे लिए प्रदान करोगे। 

तब मेरे सम्बन्धी तुम लोकों में पूज्य होगे।


ऐसा कहकर नीललोहित भगवान अन्तर्ध्यान हो गये। 

जनार्दन भगवान ने सब युक्तियों से ब्रह्मा के समीप यह कि मेरे द्वारा पठित जो यह स्तोत्र है इसको जो पढ़े या सुने उसको प्रति नाम पर स्वर्ण दान का फल मिलेगा और हजार अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होगा। 

जो इस सहस्त्र नाम द्वारा घृत अथवा जल से शंकर भगवान को स्नान करायेगा उसे भी सहस्त्र यज्ञ का फल प्राप्त होगा और रुद्र का प्यारा होगा। 

तब ब्रह्माजी भी हरि भगवान से तथास्तु कह अपने लोक को चले गये।


सूतजी कहते हैं कि हे द्विजो ! 

जो इस सहस्त्र नाम से शिव की पूजा करेगा या इसका जप करेगा, वह परम गति को प्राप्त होगा।


क्रमशः शेष अगले अंक में...




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संक्षिप्त श्रीस्कन्द महापुराण :


ब्राह्मखण्ड ( सेतु - महात्म्य )


सेतु तीर्थ ( रामेश्वर - क्षेत्र ) की महिमा...!  

  

शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम्। 

प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥


'जिन्होंने श्वेत वस्त्र धारण कर रखा है, जिनका चन्द्रमाके समान गौर वर्ण है, चार भुजाएँ हैं और मुखपर प्रसन्नता छा रही है, ऐसे भगवान् विष्णुका सब विघ्नोंकी शान्तिके लिये ध्यान करना चाहिये।'




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नैमिषारण्य तीर्थमें शौनक आदि ऋषि अष्टांगयोगके साधनमें तत्पर हो एकमात्र ब्रह्मज्ञानके साधनमें संलग्न थे। 

वे सभी महात्मा संसार बन्धनसे मुक्ति चाहनेवाले थे। 

उनमें ममताका सर्वथा अभाव था। 

वे ब्रह्मवादी, धर्मज्ञ, किसीके दोष न देखनेवाले, सत्यव्रती, इन्द्रियसंयमी, क्रोधको जीतनेवाले तथा सब प्राणियोंके प्रति दया रखनेवाले थे। 

शौनक आदि महर्षि इस परम पवित्र मोक्षदायक नैमिषारण्यमें अतिशय भक्तिके साथ सनातनदेव भगवान् विष्णुकी पूजा करते हुए तपस्यामें लगे रहते थे। 

एक समय उन महात्माओंने उत्तम सत्संगका आयोजन किया। 

उसमें वे परम पुण्यमयी पापनाशक कथाएँ कहते और मुक्तिके उपायपर परस्पर प्रश्नोत्तर किया करते थे। 

उसी अवसरपर वहाँ व्यासजीके शिष्य महाविद्वान् पौराणिकों में श्रेष्ठ मुनिवर सूतजी आये। 

उन्हें देखकर शौनकादि महर्षियोंने अर्घ्य आदिके द्वारा उनका पूजन किया। 

जब वे सुखपूर्वक उत्तम आसनपर बैठे, तब महर्षियोंने उनसे पूछा 'सूतजी ! 

जीवोंकी संसारसागरसे किस प्रकार मुक्ति होती है? 

भगवान् शिव अथवा विष्णुमें मनुष्योंकी भक्ति कैसे होती है? 

ये तथा अन्य सब बातें भी आप कृपा करके हमें बताइये।'


तब सूतजीने पहले अपने गुरु श्रीव्यासदेवजीको प्रणाम करके इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया-

'ब्राह्मणो! 

श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा बँधाये हुए सेतुसे जो परम पवित्र हो गया है, वह रामेश्वर नामक क्षेत्र सब तीर्थोंमें उत्तम है। 

उसके दर्शनमात्रसे संसारसागरसे मुक्ति हो जाती है। 

भगवान् विष्णु और शिवमें भक्ति तथा पुण्यकी वृद्धि होती है। 

सेतु का दर्शन करनेपर मनुष्य सब यज्ञोंका कर्ता माना गया है। 

उस ने सब तीर्थों में स्नान और सब प्रकारकी तपस्याका अनुष्ठान कर लिया। 

सेतु में स्नान करनेवाला पुरुष विष्णुधाम में जाकर वहीं मुक्त हो जाता है। 

सेतु, रामेश्वर - लिंग और गन्धमादनपर्वतका चिन्तन करनेवाला मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। 

द्विजवरो! 

जो सेतु की बालुकाओंमें शयन करता है, उसकी धूलसे वेष्टित होता है, उसके शरीरमें बालूके जितने कण सटते हैं, उतनी ब्रह्म हत्याओंका नाश हो जाता है। 

सेतु के मध्यवर्ती प्रदेशकी वायु जिसके सम्पूर्ण शरीरका स्पर्श करती है, उसके दस हजार सुरापानका पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। 

पुत्र और पौत्रोंके द्वारा जिसकी हड्डी सेतु में डाली गयी है, उसका दस हजार बार की हुई सुवर्णकी चोरीका पाप उसी क्षण नष्ट हो जाता है। 

जिस मनुष्यका स्मरण करके सेतु तीर्थमें कोई स्नान करता है, उसका भी महापातकियोंके संसर्गसे प्राप्त हुआ दोष तत्क्षण नष्ट हो जाता है। 

मार्गको नष्ट करनेवाला, केवल अपने लिये भोजन बनानेवाला, संन्यासियों और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाला, चाण्डालका अन्न खानेवाला और वेद बेचनेवाला- ये पाँच ब्रह्महत्यारे कहे गये हैं। 

जो ब्राह्मणोंको बुलाकर यह आशा देता है कि 'तुम्हें धन आदि दूँगा' और फिर यह कह देता है कि 'मेरे पास नहीं है' वह भी ब्रह्महत्यारा कहा गया है। 

जो जिससे धर्मका उपदेश ग्रहण करता है, वह उसीसे द्वेष करे या उसकी अवहेलना करे तो वह भी ब्रह्महत्यारा कहा गया है। 

जो पानी पीनेके लिये जलाशयकी ओर जाती हुई गौओंके समूहको रोक देता है, उसको भी ब्रह्मघाती कहा गया है। 

सेतु तीर्थ में आकर वे सभी अपनी पापराशिसे मुक्त हो जाते हैं। 

ब्रह्महत्यारोंके समान जो दूसरे पापी हैं, वे भी सेतुतीर्थमें आकर अपने पापोंसे छुटकारा पा जाते हैं। 

जो उपासनाका परित्याग करता, देवताका अन्न खाता, शराब पीता, शराब पीनेवाली स्त्रीसे संसर्ग रखता, वेश्याका अन्न खाता और किसी समुदाय अथवा संस्थाका अन्न भोजन करता है तथा जो पतितका अन्न खानेमें तत्पर रहता है, ये सभी सुरापी ( शराब पीने वाले ) कहे गये हैं। 

ये सब कर्मों से बहिष्कृत हैं। 

ऐसे लोग भी सेतुतीर्थ में स्नान  करने से पापरहित हो मुक्त हो जाते हैं। 

( पंडारामा प्रभु राज्यगुरु )

क्रमशः...

शेष अगले अंक में जारी 


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