सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। जीवन में वाह से आह तक कर्म के किए हुवे पापो का फल सुंदर कहानी।।
हल खींचते समय यदि कोई बैल गोबर या मूत्र करने की स्थिति में होता था।
तो किसान कुछ देर के लिए हल चलाना बन्द करके बैल के मल - मूत्र त्यागने तक खड़ा रहता था।
ताकि बैल आराम से यह नित्यकर्म कर सके, यह आम चलन था!
हमने ( ईश्वर वैदिक ) यह सारी बातें बचपन में स्वयं अपनी आंखों से देख हुई हैं!
जीवों के प्रति यह गहरी संवेदना उन महान पुरखों में जन्मजात होती थी।
जिन्हें आजकल हम अशिक्षित कहते हैं!
यह सब अभी 25 - 30 वर्ष पूर्व तक होता रहा!
उस जमाने का देसीघी यदि आज कल के हिसाब से मूल्य लगाएं तो इतना शुद्ध होता था।
कि 2 हजार रुपये किलो तक बिक सकता है !
उस देसी घी को किसान विशेष कार्य के दिनों में हर दो दिन बाद आधा - आधा किलो घी अपने बैलों को पिलाता था!
टिटहरी नामक पक्षी अपने अंडे खुले खेत की मिट्टी पर देती है और उनको सेती है...!
हल चलाते समय यदि सामने कहीं कोई टिटहरी चिल्लाती मिलती थी।
तो किसान इशारा समझ जाता था और उस अंडे वाली जगह को बिना हल जोते खाली छोड़ देता था!
उस जमाने में आधुनिकशिक्षा नहीं थी!
सब आस्तिक थे!
दोपहर को किसान जब आराम करने का समय होता तो सबसे पहले बैलों को पानी पिलाकर चारा डालता और फिर खुद भोजन करता था...!
यह एक सामान्य नियम था !
बैल जब बूढ़ा हो जाता था तो उसे कसाइयों को बेचना शर्मनाक सामाजिक अपराध की श्रेणी में आता था।
बूढाबैल कई सालों तक खाली बैठा चारा खाता रहता था...!
मरने तक उसकी सेवा होती थी!
उस जमाने के तथाकथित अशिक्षित किसान का मानवीय तर्क था।
कि इतने सालों तक इसकी माँ का दूध पिया और इसकी कमाई खाई है...!
अब बुढापे में इसे कैसे छोड़ दें?
कैसे कसाइयों को दे दें काट खाने के लिए?
जब बैल मर जाता तो किसान फफक - फफक कर रोता था और उन भरी दुपहरियों को याद करता था।
जब उसका यह वफादार मित्र हर कष्ट में उसके साथ होता था!
माता - पिता को रोता देख किसान के बच्चे भी अपने बुड्ढे बैल की मौत पर रोने लगते थे!
पूरा जीवन काल तक बैल अपने स्वामी किसान की मूक भाषा को समझता था।
कि वह क्या कहना चाह रहा है?
वह पुराना भारत इतना शिक्षित और धनाढ्य था कि अपने जीवनव्यवहार में ही जीवनरस खोज लेता था ।
वह करोड़ों वर्ष पुरानी संस्कृति वाला वैभवशाली भारत था !
वह अतुल्य भारत था!
पिछले 30 - 40 वर्ष में लार्डमैकाले की शिक्षा उस गौरवशाली सुसम्पन्न भारत को निगल गई!
हाय रे लार्ड मैकाले !
तेरा सत्यानाश हो!
तेरी शिक्षा सबसे पहले किसी देश की संवेदनाओं को जहर का टीका लगाती है।
फिर शर्म - हया की जड़ों में तेजाब डालती है और फिर मानवता को पूरी तरह अपंग बनाकर उसे अपनी जरूरत की मशीन का रूप दे देती है!
पाप का फल भोगना ही पड़ता है।
मनुष्य को ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये।
कि मेरा पाप तो कम था पर दण्ड अधिक भोगना पडा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं पर दण्ड मुझे मिल गया!
कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, सर्वसमर्थ भगवान् का विधान है।
कि पाप से अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है।
वह किसी न किसी पाप का ही फल होता है।
किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे।
उनके घर के सामने एक सुनार का घर था।
सुनार के पास सोना आता रहता था और वह गढ़कर देता रहता था।
ऐसे वह पैसे कमाता था।
एक दिन उसके पास अधिक सोना जमा हो गया।
रात्रि में पहरा लगाने वाले सिपाही को इस बात का पता लग गया।
उस पहरेदार ने रात्रि में उस सुनार को मार दिया और जिस बक्से में सोना था।
उसे उठाकर चल दिया।
इसी बीच सामने रहने वाले सज्जन लघुशंका के लिये उठकर बाहर आये।
उन्होंने पहरेदार को पकड़ लिया कि तू इस बक्से को कैसे ले जा रहा है?
तो पहरेदारने कहा-
'तू चुप रह..!
हल्ला मत कर।
इसमें से कुछ तू ले ले और कुछ मैं ले लूँ।'
सज्जन बोले-
'मैं कैसे ले लँ?
मैं चोर थोड़े ही हूँ!'
पहरेदार ने कहा -
'देख, तू समझ जा, मेरी बात मान ले।
नहीं तो दुःख पायेगा।'
पर वे सज्जन माने नहीं।
तब पहरेदार ने बक्सा नीचे रख दिया और उस सज्जन को पकड़कर जोर से सीटी बजा दी।
सीटी सुनते ही और जगह पहरा लगाने वाले सिपाही दौड़कर वहाँ आ गये।
उसने सबसे कहा कि 'यह इस घर से बक्सा लेकर आया है और मैंने इसको पकड़ लिया है।'
तब सिपाहियों ने घर में घुसकर देखा कि सुनार मरा पड़ा है।
उन्होंने उस सज्जन को पकड़ लिया और राजकीय सिपाहियों के हवाले कर दिया।
जज के सामने बहस हुई तो उस सज्जन ने कहा कि 'मैंने नहीं मारा है।
उस पहरेदार सिपाही ने मारा है।'
सब सिपाही आपस में मिले हुए थे।
उन्होंने कहा की 'नहीं इसी ने मारा है।
हमने खुद रात्रि में इसे पकड़ा है'।
इत्यादि।
मुकदमा चला।
चलते - चलते अन्त में उस सज्जन के लिये फाँसी का हुक्म हुआ।
फाँसी का हुक्म होते ही उस सज्जन के मुख से निकला-
'देखो, सरासर अन्याय हो रहा है !
भगवान् के दरबार में कोई न्याय नहीं!
मैंने मारा नहीं।
मुझे दण्ड हो और जिसने मारा है।
वह बेदाग छूट गया।
जुर्माना भी नहीं;
यह अन्याय है!
जज पर उसके वचनों का असर पड़ा कि वास्तव में यह सच बोल रहा है।
इसकी किसी तरह से जाँच होनी चाहिये ।
ऐसा विचार करके उस जज ने एक योजना बनाई।
सुबह होते ही एक व्यक्ति रोता - चिल्लाता हुआ आया और बोला-
'हमारे भाई की हत्या हो गयी...!
सरकार !
इसकी जाँच होनी चाहिये।'
तब जज ने उसी सिपाही को और कैदी सज्जन को मरे व्यक्ति की लाश उठाकर लाने के लिये भेजा।
दोनों उस व्यक्ति के साथ वहाँ गये..!
जहाँ लाश पड़ी थी।
खाट पर लाश के ऊपर कपड़ा बिछा था।
खून बिखरा पड़ा था।
दोनों ने उस खाट को उठाया और उठाकर ले चले।
साथ का दूसरा व्यक्ति...!
सूचना देने के बहाने दौड़कर आगे चला गया।
तब चलते - चलते सिपाही ने कैदी से कहा-
'देख, उस दिन तू मेरी बात मान लेता...!
तो सोना मिल जाता और फाँसी भी नहीं होती।
अब देख लिया सच्चाई का फल ?'
कैदी ने कहा-
'मैंने तो अपना काम सच्चाई का ही किया था।
फाँसी हो गयी तो हो गयी!
हत्या की तूने और दण्ड भोगना पड़ा मेरे को!
भगवान् के यहाँ न्याय नहीं!'
खाट पर झूठमूठ मरे हुए के समान पड़ा हुआ व्यक्ति उन दोनों की बातें सुन रहा था।
जब जज के सामने खाट रखी गयी तो खूनभरे कपड़े को हटाकर वह उठ खड़ा हुआ और उसने सारी बात जज को बता दी।
कि रास्ते में सिपाही यह बोला और कैदी यह बोला।
यह सुनकर जज को बड़ा आश्चर्य हुआ।
सिपाही भी हक्का - बक्का रह गया।
उस सिपाही को पकड़कर कैद कर लिया गया।
परन्तु जज के मन में सन्तोष नहीं हुआ।
उसने कैदी को एकान्त में बुलाकर कहा कि।
'इस मामले में तो मैं तुम्हें निर्दोष मानता हूँ।
पर सच - सच बताओ कि इस जन्म में तुमने कोई हत्या की है क्या?'
वह बोला - बहुत पहले की घटना है।
किसी बात पर क्रोध में मैंने तलवार से एक व्यक्ति का गला काट दिया और घर के पीछे जो नदी है, उसमें फेंक दिया।
इस घटना का किसी को पता नहीं लगा।
यह सुनकर जज बोला -
तुम्हारे को इस समय फाँसी होगी ही।
मैंने भी सोचा कि मैंने तो कभी किसी से भी घूस ( रिश्वत ) नहीं खायी।
कभी बेईमानी नहीं की।
फिर मेरे हाथ से इसके लिये फाँसी का हुक्म लिखा कैसे गया ?
अब सन्तोष हुआ।
उसी पाप का फल तुम्हें यह भोगना पड़ेगा।
सिपाही को अलग फाँसी होगी।'
उस सज्जन ने चोर सिपाही को पकड़कर अपने कर्तव्य का पालन किया था।
फिर उसको जो दण्ड मिला है।
वह उसके कर्तव्य-पालन का फल नहीं है।
प्रत्युत उसने बहुत पहले जो हत्या की थी।
उस हत्या का फल है।
कारण कि मनुष्य को अपनी रक्षा करने का अधिकार है।
मारने का अधिकार नहीं।
मारने का अधिकार रक्षक क्षत्रिय का...!
राजा का है।
अत:...!
कर्तव्य का पालन करने के कारण ही उनको उस पाप ( हत्या ) का फल उसको यहीं मिल गया और परलोक के भयंकर दण्ड से उसका छुटकारा हो गया।
कारण कि इस लोक में जो दण्ड भोग लिया जाता है।
उसका थोड़े में ही छुटकारा हो जाता है।
थोड़े में ही शुद्धि हो जाती है।
नहीं तो परलोक में बड़ा भयंकर ( ब्याजसहित ) दण्ड भोगना पड़ता है।]
इस कहानी से यह पता लगता है।
कि मनुष्य के कब किये हुए पाप का फल कब मिलेगा इसका कुछ पता नहीं।
भगवान् का विधान तो विचित्र ही होता है।
जब तक पुराने पुण्य प्रबल रहते है तब तक उग्र पाप का फल भी तत्काल नहीं मिलता।
जब पुराने पुण्य खत्म होते हैं ।
तब उस पाप की बारी आती है।
पाप का फल ( दण्ड ) तो भोगना ही पड़ता है, चाहे इस जन्म में भोगना पड़े या जन्मान्तर में।
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!!!!! शुभमस्तु !!!
🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी..!🙏🙏🙏
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