https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: गोवर्धन पर्वता महात्म https://sarswatijyotish.com
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गोवर्धन पर्वता महात्म

|| गोवर्द्धन लीला ||

       
गो का अर्थ है ज्ञान और भक्ति, ज्ञान और भक्ति को बृद्धिगत करने वाली लीला ही गोवर्धन लीला है । 




ज्ञान और भक्ति के बढ़ने से देहाध्यास नष्ट होता है जीव को रासलीला में प्रवेश मिलता है।

ज्ञान और भक्ति को बढ़ाने हेतु क्या जाय ?
       
घर छोड़ना पड़ेगा, गोप गोपियों ने घर छोड़कर गिरिराज पर वास किया था।

हमारा घर भोगभूमि होने के कारण राग - द्वेष , अहंभाव - तिरस्कार , वासना आदि हमें घेरे रहते हैं।

घर में विषमता होती है और पाप भी ,भोग भूमि में भक्ति कैसे बढ़ जायेगी, सात्विक भूमि में ही भक्ति बढ़ सकती है।

गृहस्थ का घर विविध वासनाओं के सूक्ष्म परमाणु से भरा हुआ होता है।

ऐसा वातावरण भक्ति में बाधक है ऐसे वातावरण में रहकर न तो भक्ति बढ़ाई जा सकती है और न ज्ञान, अतः एकाध मास किसी नीरव पवित्र स्थल पर जाकर , किसी पवित्र नदी के तट पर वास करके भक्ति और ज्ञान की आराधना श्रेयस्कर है।

प्रवृत्ति छोड़ना तो अशक्य है किन्तु उसे कम करके निवृत्ति बढ़ायी जा सकती है।

गो का अर्थ इन्द्रिय भी है, इन्द्रियों का संवर्धन त्याग से होता है,भोग से नहींं, भोग से इन्द्रियाँ क्षीण होती हैं।





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भोगमार्ग से हटाकर उन्हें भक्तिमार्ग में ले जाना चाहिए, किन्तु उस समय इन्द्रादि देव वासना की बरसात कर देते हैं।

मनुष्य की भक्ति उनसे देखी नहीं जाती, प्रवृत्तिमार्ग छोड़कर निवृत्ति की ओर बढ़ते समय विषय वासना की बरसात बाधा करने आ जाती है।

इन्द्रियों का देव इन्द्र प्रभु भजन करने जा रहे जीव को सताता है, वह सोचता है कि उसके सिर पर पाँव रख कर उसको कुचल कर जीव आगे बढ़ जायेगा।

अतः ध्यान , सत्कर्म , भक्ति आदि में जीव की अपेक्षा देव अधिक बाधक हैं।

जीव सतत् ध्यान करे तो स्वर्ग के देवों से भी श्रेष्ठ हो जाता है।

इस लिए जब भी इन्द्र भक्ति मार्ग में विघ्न डाले तब गोवर्धन नाथ का आश्रय लेना चाहिए।

गोवर्धन लीला में पूज्य और पूजक एक हो जाते हैं, जब तक पूज्य एवं पूजक एक न हों तब तक आनन्द नहीं आता, पूजा करने वाले श्रीकृष्ण ने गिरिराज पर आरोहण किया यह तो अद्वैत का प्रथम सोपान है।





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गोवर्धन लीला ज्ञान और भक्ति को बढ़ाती है। 

जब ईश्वर के व्यापक स्वरुप का अनुभव हो पाता है , तभी ज्ञान और भक्ति बढ़ती है, ईश्वर जगत में व्याप्त है और सारा जगत ईश्वर में समाहित है।

वासना वेग को हटाने के लिए श्रीकृष्ण का आश्रय लेना चाहिए।

भगवान ने हाथ की सबसे छोटी उँगली पर गोवर्धन पर्वत धारण किया था यह उँगली सत्वगुण का प्रतीक है।

इन्द्रियों की वासना वर्षा के समय सत्वगुण का आश्रय लेना चाहिए, दुःख में विपत्ति में मात्र प्रभू का आश्रय लेना चाहिए-

*भक्ताभिलाषी चरितानुसारी*
  *दुग्धादि चौर्येण यशोविसारी।*

*कुमारतानन्दित घोषनारी मम*
  *प्रभूः श्री गिरिराजधारी।।*

  || गोवर्धन धारी की जय हो ||

भक्त को औरों के धर्म का आदर करना चाहिए |
  

        

सारे अवतारों में महापुरुषों ने अलग - अलग तरीकों से एक ही बात बताई है कि मानव को भक्त होना चाहिए। 
भक्ति करना जीवन के प्रति एक आश्वासन होता है कि सारे काम हम कर रहे हैं।

लेकिन कराने वाली शक्ति कोई और है। 

एक भक्त की ये विशेषता होती है कि वह अपने धर्म के प्रति समर्पित रहता ही है। 

लेकिन दूसरे के धर्म का वह आदर करता है। 

श्रीराम ने भी एक बार कहा है कि-

 *भगति पच्छ हठ नहिं सठताई।*
       *दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई।*

अर्थात्, 

जो भक्त अपनी भक्ति के पक्ष में हठ करता है।

लेकिन दूसरे के मत का खंडन करने की मूर्खता नहीं करता है और जिसने दूसरे के धर्म के खंडन करने के कुतर्कों को बहा दिया है।

ऐसा भक्त मुझे प्रिय है।' 

अभी महाकुंभ चल रहा है। 

ये इसी का प्रमाण है। 

हमें अपने धर्म का मान करना चाहिए। 

दूसरे क्या कहते हैं, ये उन पर छोड़ दो। 

क्या जवाब देंगे लोगों का जब सवाल ही बेकार हो। 

जब आप एक धर्म के प्रति समर्पित हो रहे होते हैं तो दूसरे आपको अपने धर्म के प्रति बेहोश करने का प्रयास करेंगे। 

भक्ति होश का एक नाम है। 

इसलिए एक भक्त को कभी बेहोश नहीं होना चाहिए। 

जब आप होश में होते हैं तो वही करते हैं, जो चाहते हैं। 

लेकिन जब बेहोश हो जाते हैं, तो करते कुछ और हैं लेकिन होता कुछ और ही है।

    || जय श्री सीताराम जी ||

|| माघ मास की षटतिला एकादशी ||
         
इस एकादशी को माघ कृष्ण एकादशी, तिल्दा एकादशी या सत्तिला एकादशी भी कहा जाता है।



इस दिन भगवान विष्णु की विधिवत पूजा करने के साथ व्रत रखने का विधान है।

हिंदू धर्म में एकादशी तिथि का विशेष महत्व है। 

हर साल 24 एकादशी पड़ती हैं, जिसमें एक शुक्ल पक्ष तो वहीं दूसरी एकादशी कृष्ण पक्ष की होती है। ।

वहीं यहां हम बात करने जा रहे हैं षटतिला एकादशी के बारे में, जो इस बार 25 जनवरी को रखा जाएगा।

वैदिक पंचांग के मुताबिक 24 जनवरी 2025 को शाम 7 बजकर 25 पर होगी और इस तिथि का समापन 25 जनवरी को रात 8 बजकर 31 मिनट पर होगा। 

ऐसे में 25 जनवरी 2025 को षटतिला एकादशी का व्रत रखा जाएगा।

षठतिला एकादशी का पारण 26 जनवरी को सुबह 7 बजकर 12 मिनट से लेकर 9 बजकर 21 मिनट तक होगा।

बन रहा है ये शुभ संयोग षठतिला एकादशी पर चंद्रमा जल तत्व की राशि वृश्चिक में होगा, चंद्र और मंगल का संबंध भी बना रहेगा। 

इस दिन सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में होगा, जिससे स्नान - दान के लिए बेहद शुभ माना जाता है।

षटतिला एकादशी का महत्व-
      
*इस दिन भगवान विष्णु की आराधना करने से सुख - समृद्धि की प्राप्ति होती है। 

बता दें कि ‘षट’ शब्द का अर्थ है ‘छह’ यानी इस दिन तिल का इस्तेमाल छह तरीकों से करना शुभ माना जाता है। 

वहीं इस दिन तिल का दान करना काफी लाभप्रद माना जाता है। 

इस दिन व्रत रखने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। 

मान्यता है कि इस व्रत में जो व्यक्ति जितने रूपों में तिल का उपयोग तथा दान करता है उसे उतने हजार वर्ष तक स्वर्ग मिलता है। 

सके अलावा जल में तिल मिलाकर तर्पण करने से भी मृत पूर्वजों को शांति मिलती है।





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एकादशी पर क्यों नहीं खाते हैं चावल ? 

ज्योतिषीय व पौराणिक मान्यता

ज्योतिषीय मान्यता :

एकादशी के दिन चावल न खाने के पीछे ज्योतिष मान्यता भी है। 

इसके अनुसार चावल में जल तत्व की मात्रा काफी अधिक पाई जाती है। 

जल पर चंद्रमा का प्रभाव अधिक पड़ता है। 

चावल खाने से शरीर में जल की मात्रा बढ़ती है, इससे मन विचलित, चंचल और अस्थिर होता है। 

मन के चंचल होने से व्रत के नियमों का पालन करने में बाधा आती है। 

एकादशी व्रत में मन का पवित्र और सात्विक भाव का पालन अति आवश्यक होता है, इस लिए एकादशी के दिन चावल और इससे बनी चीजें खाना वर्जित माना गया है।

पौराणिक मान्यता -

धार्मिक कथाओं के अनुसार जो लोग एकादशी के दिन चावल ग्रहण करते हैं उन्हें अगले जन्म में रेंगने वाले जीव की योनि में जन्म मिलता है। 

हालांकि द्वादशी को चावल खाने से इस योनि से मुक्ति भी मिल जाती है। 

दरअसल, एक कथा के अनुसार माता शक्ति के क्रोध से बचने के लिए महर्षि मेधा ने शरीर का त्याग कर दिया था। 

उनके अंश पृथ्वी में समा गए और बाद में उसी स्थान पर चावल और जौ के रूप में महर्षि मेधा उत्पन्न हुए। 
          
जिस दिन महर्षि मेधा का अंश पृथ्वी में समाया था, उस दिन एकादशी तिथि थी। 

इस लिए एकादशी के दिन चावल खाना वर्जित माना गया। 

ऐसा माना जाता है कि एकादशी के दिन चावल खाना महर्षि मेधा के मांस और रक्त का सेवन करने के बराबर है। 

इस कारण चावल और जौ को जीव माना जाता है। 

इस लिए एकादशी को भोजन के रूप में चावल ग्रहण करने से परहेज किया गया है, ताकि सात्विक रूप से एकादशी का व्रत संपन्न हो सके।

  || विष्णु भगवान की जय हो ||
पंडारामा प्रभु राज्यगुरू 
( द्रविड़ ब्राह्मण )

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