https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2: गुरु का महत्त्व : https://sarswatijyotish.com
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गुरु का महत्त्व :

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

गुरु का महत्त्व :


एक राजा था,उसे पढने लिखने का बहुत शौक था। 

एक बार उसने मंत्री-परिषद् के माध्यम से अपने लिए एक शिक्षक की व्यवस्था की शिक्षक राजा को पढ़ाने के लिए आने लगा। 





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राजा को शिक्षा ग्रहण करते हुए कई महीने बीत गए, मगर राजा को कोई लाभ नहीं हुआ।

गुरु तो रोज खूब मेहनत करता थे परन्तु राजा को उस शिक्षा का कोई फ़ायदा नहीं हो रहा था।

राजा बड़ा परेशान, गुरु की प्रतिभा और योग्यता पर सवाल उठाना भी गलत था क्योंकि वो एक बहुत ही प्रसिद्द और योग्य गुरु थे....! 

आखिर में एक दिन रानी ने राजा को सलाह दी कि राजन आप इस सवाल का जवाब गुरु जी से ही पूछ कर देखिये....!

राजा ने एक दिन हिम्मत करके गुरूजी के सामने अपनी जिज्ञासा रखी, ” हे गुरुवर , क्षमा कीजियेगा , मैं कई महीनो से आपसे शिक्षा ग्रहण कर रहा हूँ पर मुझे इसका कोई लाभ नहीं हो रहा है. ऐसा क्यों है ?”

 गुरु जी ने बड़े ही शांत स्वर में जवाब दिया, ” राजन इसका कारण बहुत ही सीधा सा है…”
” गुरुवर कृपा कर के आप शीघ्र इस प्रश्न का उत्तर दीजिये “, राजा ने विनती की.

गुरूजी ने कहा, “राजन बात बहुत छोटी है परन्तु आप अपने ‘बड़े’ होने के अहंकार के कारण इसे समझ नहीं पा रहे हैं और परेशान और दुखी हैं. माना कि आप एक बहुत बड़े राजा हैं. आप हर दृष्टि से मुझ से पद और प्रतिष्ठा में बड़े हैं परन्तु यहाँ पर आप का और मेरा रिश्ता एक गुरु और शिष्य का है.

गुरु होने के नाते मेरा स्थान आपसे उच्च होना चाहिए, परन्तु आप स्वंय ऊँचे सिंहासन पर बैठते हैं और मुझे अपने से नीचे के आसन पर बैठाते हैं. बस यही एक कारण है जिससे आपको न तो कोई शिक्षा प्राप्त हो रही है और न ही कोई ज्ञान मिल रहा है. आपके राजा होने के कारण मैं आप से यह बात नहीं कह पा रहा था.




कल से अगर आप मुझे ऊँचे आसन पर बैठाएं और स्वंय नीचे बैठें तो कोई कारण नहीं कि आप शिक्षा प्राप्त न कर पायें.”

राजा की समझ में सारी बात आ गई और उसने तुरंत अपनी गलती को स्वीकारा और गुरुवर से उच्च शिक्षा प्राप्त की...!

मित्रों, इस छोटी सी कहानी का सार यह है कि हम रिश्ते-नाते, पद या धन वैभव किसी में भी कितने ही बड़े क्यों न हों हम अगर अपने गुरु को उसका उचित स्थान नहीं देते तो हमारा भला होना मुश्किल है....! 

और यहाँ स्थान का अर्थ सिर्फ ऊँचा या नीचे बैठने से नहीं है , इसका सही अर्थ है कि हम अपने मन में गुरु को क्या स्थान दे रहे हैं।

क्या हम सही मायने में उनको सम्मान दे रहे हैं या स्वयं के ही श्रेस्ठ होने का घमंड कर रहे हैं ? 

अगर हम अपने गुरु या शिक्षक के प्रति हेय भावना रखेंगे तो हमें उनकी योग्यताओं एवं अच्छाइयों का कोई लाभ नहीं मिलने वाला और अगर हम उनका आदर करेंगे, उन्हें महत्व देंगे तो उनका आशीर्वाद हमें सहज ही प्राप्त होगा.

🚩🚩जय श्री राम🚩🚩





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प्रतिदिन कहानियों के माध्यम से आपको प्रेरित करते रहेंगे!!

|| तुलसीदल का महात्म्य ||

पद्मपुराण में भगवान शिव द्वारा
  तुलसीदल की महिमा का वर्णन:-

भगवान शिव ने स्वयं कहा है:- सब प्रकार के पत्तों और पुष्पों की अपेक्षा तुलसी ही श्रेष्ठ मानी गई है।

तुलसी परम मंगलमयी,समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली,शुद्ध, श्रीविष्णु को अत्यंत प्रिय तथा ‘वैष्णवी’ नाम धारण करने वाली है। 

तुलसी संपूर्ण लोक में श्रेष्ठ, शुभ तथा भोग और मोक्ष प्रदान करने वाली है।

भगवान श्रीविष्णु ने पूर्वकाल में संपूर्ण लोकों का हित करने के लिए तुलसी का वृक्ष रोपा था।

तुलसी के पत्ते और पुष्प सब धर्मों में प्रतिष्ठित हैं, जैसे भगवान श्रीविष्णु को लक्ष्मी और मैं ( शिव ) दोनों प्रिय हैं, उसी प्रकार यह तुलसीदेवी भी परम प्रिय है।

हम तीनों के सिवा कोई चौथा ऐसा नहीं जान पड़ता, जो भगवान को इतना प्रिय हो।

तुलसीदल के बिना दूसरे-दूसरे फूलों, पत्तों तथा चंदन आदि के लेपों से भगवान श्रीविष्णु को उतना संतोष नहीं होता। 

जिसने तुलसीदल के द्वारा पूर्ण श्रद्धा के साथ प्रतिदिन भगवान श्रीविष्णु का पूजन किया है, उसने दान, होम, यज्ञ और व्रत आदि सब पूर्ण कर लिए।

तुलसीदल से भगवान की पूजा कर लेने पर कांति, सुख, भोग सामग्री, यश, लक्ष्मी, श्रेष्ठ कुल, शील, पत्नी, पुत्र, कन्या, धन, राज्य, आरोग्य, ज्ञान, विज्ञान, वेद, वेदंग, शास्त्र, पुराण, तंत्र और संहिता सबकुछ मैं ( शिव ) करतलगत समझता हूं।

जैसे पुण्यसलिला गंगामुक्ति प्रदान करने वाली हैं, उसी प्रकार यह तुलसी भी कल्याण करने वाली है।

यदि मंजरी युक्त तुलसी पत्रों के द्वारा भगवान श्रीविष्णु की पूजा की जाय तो उसके पुण्यफल का वर्णन करना असंभव है।

जहां तुलसी का वन है, वहीं भगवान कृष्ण की समीपता है तथा वहीं ब्रह्मा और लक्ष्मी जी भी संपूर्ण देवताओं के साथ विराजमान हैं।

इसलिए अपने निकटवर्ती स्थान में तुलसीदेवी को रोपकर उनकी पूजा करनी चाहिए।

तुलसी के निकट जो स्तोत्र-मंत्र आदि का जप किया जाता है, वह सब अनंतगुना फल देनेवाला होता है।

प्रेत, पिशाच, कूष्मांड,ब्रह्म राक्षस, भूत और दैत्य आदि सब तुलसी के वृक्ष से दूर भागते हैं।

ब्रह्महत्या आदि पाप तथा खोटे विचार से उत्पन्न होने वाले रोग ये सब तुलसीवृक्ष के समीप नष्ट हो जाते हैं।

जिसने श्रीभगवान की पूजा के लिए पृथ्वी पर तुलसी का बगीचा लगा रखा है, उसने उत्तम दक्षिणाओं से युक्त सौ यज्ञों का विधिवत अनुष्ठान पूर्ण कर लिया है।

जो श्रीभगवान की प्रतिमाओं तथा शालग्राम- शिलाओं पर चढ़े हुए तुलसीदल को प्रसाद के रूप में ग्रहण करता है, वह श्रीविष्णु के सायुज्य को प्राप्त होता है।

जो श्रीहरि की पूजा करके उन्हें निवेदन किए हुए तुलसीदल को अपने मस्तक पर धारण करता है, वह पाप से शुद्ध होकर स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।

कलियुग में तुलसी का पूजन,कीर्तन, ध्यान, रोपण और धारण करने से वह पाप को जलाती और स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करती है।

जो तुलसी के पूजन आदि का दूसरों को उपदेश देता और स्वयं भी आचरण करता है, वह भगवान श्री लक्ष्मी पति के परमधाम को प्राप्त होता है।

जो वस्तु भगवान श्रीविष्णु को प्रिय जा पड़ती है, वह मुझे भी अत्यंत प्रिय है।

श्राद्ध और यज्ञ आदि कार्यों में तुलसी का एक पत्ता भी महान पुण्य प्रदान करने वाला है।

जिसने तुलसी की सेवा की है, उसने गुरु, ब्राह्मण, देवता और तीर्थ सबका भली भांति सेवन कर लिया।

जो शिखा में तुलसी स्थापित करके प्राणों का परित्याग करता है, वह पापराशि से मुक्त हो जाता है।

राजसूय आदि यज्ञ, भांति-भांति के व्रत तथा संयम के द्वारा धीर पुरुष जिस गति को प्राप्त करता है, वही उसे तुलसी की सेवा मिल जाती है।

तुलसी के एक पत्र से श्रीहरि की पूजा करके मनुष्य वैष्णवत्व को प्राप्त होता है, उसके लिए अन्यान्य शास्त्रों के विस्तार की क्या आवश्यकता है।

जिसने तुलसी की शाखा तथा कोमल पत्तियों से भगवान श्रीविष्णु की पूजा की है, वह कभी माता का दूध नहीं पीता अर्थात् उसका पुनर्जन्म नहीं होता।

कोमल तुलसीदलों के द्वारा प्रतिदिन श्रीहरि की पूजा करके मनुष्य अपनी सैकड़ों और हजारों पीढ़ियों को पवित्र कर सकता है।

ये तुलसी के प्रधान- प्रधान गुण हैं, तुलसी के संपूर्ण गुणों का वर्णन तो बहुत अधिक समय लगाने पर भी नहीं हो सकता।

            || तुलसी महारानी की जय हो ||

*जय श्री कृष्ण जो प्राप्त है-पर्याप्त है!*





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पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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जय द्वारकाधीश....
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श्रावण मास विवाह :

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