|| रामेश्वर कुण्ड ||
रामेश्वर कुण्ड
एक समय श्री कृष्ण इसी कुण्ड के उत्तरी तट पर गोपियों के साथ वृक्षों की छाया में बैठकर श्रीराधिका के साथ हास्य–
परिहास कर रहे थे।उस समय इनकी रूप माधुरी से आकृष्ट होकर आस पास के सारे बंदर पेड़ों से नीचे उतरकर उनके चरणों में प्रणाम कर किलकारियाँ मार कर नाचने – कूदने लगे।
बहुत से बंदर कुण्ड के दक्षिण तट के वृक्षों से लम्बी छलांग मारकर उनके चरणों के समीप पहुँचे।
भगवान श्री कृष्ण उन बंदरों की वीरता की प्रशंसा करने लगे।
गोपियाँ भी इस आश्चर्यजनक लीला को देखकर मुग्ध हो गई।
वे भी भगवान श्री रामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं का वर्णन करते हुए कहने लगीं कि श्री रामचन्द्र जी ने भी बंदरों की सहायता ली थी।
उस समय ललिता जी ने कहा–
हमने सुना है कि महा पराक्रमी हनुमान जी ने त्रेता युग में एक छलांग में समुद्र को पार कर लिया था।
परन्तु आज तो हम साक्षात रूप में बंदरों को इस सरोवर को एक छलांग में पार करते हुए देख रही हैं।
ऐसा सुनकर कृष्ण ने गर्व करते हुए कहा–
जानती हो!
मैं ही त्रेता युग में श्री राम था मैंने ही राम रूप में सारी लीलाएँ की थी।
ललिता श्री रामचन्द्र की अद्भुत लीलाओं की प्रशंसा करती हुई बोलीं–
तुम झूठे हो।
तुम कदापि राम नहीं थे।
तुम्हारे लिए कदापि वैसी वीरता सम्भव नहीं।
श्री कृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा–
तुम्हें विश्वास नहीं हो रहा है, किन्तु मैंने ही राम रूप धारण कर जनकपुरी में शिव धनुष को तोड़कर सीता से विवाह किया था।
पिता के आदेश से धनुष बाण धारण कर सीता और लक्ष्मण के साथ चित्रकूट और दण्डकारण्य में भ्रमण किया तथा वहाँ अत्याचारी दैत्यों का विनाश किया।
फिर सीता के वियोग में वन – वन भटका।
पुन: बन्दरों की सहायता से रावण सहित लंकापुरी का ध्वंसकर अयोध्या में लौटा।
मैं इस समय गोपालन के द्वारा वंशी धारण कर गोचारण करते हुए वन – वन में भ्रमण करता हुआ प्रियतमा श्री राधिका के साथ तुम गोपियों से विनोद कर रहा हूँ।
पहले मेरे राम रूप में धनुष–
बाणों से त्रिलोकी काँप उठती थी।
किन्तु, अब मेरे मधुर वेणुनाद से स्थावर जग्ङम सभी प्राणी उन्मत्त हो रहे हैं।
ललिता जी ने भी मुस्कराते हुए कहा–
हम केवल कोरी बातों से ही विश्वास नहीं कर सकतीं,यदि श्री राम जैसा कुछ पराक्रम दिखा सको तो हम विश्वास कर सकती हैं।
श्री रामचन्द्र जी सौ योजन समुद्र को भालू – कपियों के द्वारा बंधवा कर सारी सेना के साथ उस पार गये थे।
आप इन बंदरों के द्वारा इस छोटे से सरोवर पर पुल बँधवा दें तो हम विश्वास कर सकती हैं।
ललिता की बात सुनकर श्री कृष्ण ने वेणू – ध्वनि के द्वारा क्षण-मात्र में सभी बंदरों को एकत्र कर लिया तथा उन्हें प्रस्तर शिलाओं के द्वारा उस सरोवर के ऊपर सेतु बाँधने के लिए आदेश दिया।
देखते ही देखते श्री कृष्ण के आदेश से हज़ारों बंदर बड़ी उत्सुकता के साथ दूर -दूर स्थानों से पत्थरों को लाकर सेतु निर्माण में लग गये।
श्री कृष्ण ने अपने हाथों से उन बंदरों के द्वारा लाये हुए उन पत्थरों के द्वारा सेतु का निर्माण किया।
सेतु के प्रारम्भ में सरोवर की उत्तर दिशा में श्री कृष्ण ने अपने रामेश्वर महादेव की स्थापना भी की।
|| श्री रामेश्वर धाम की जय हो ||
आज महाबलिदानी पन्नाधाय जी की शुभ जन्मदिवस है। 8 मार्च 1501ई. को चित्तोड़ के पास पाण्डोली गांव में हरचंद गुर्जर जी के यहाँ पन्ना का जन्म हुआ था।
मेवाड़ के इतिहास में जिस गौरव के साथ प्रात: स्मरणीय महाराणा प्रताप को याद किया जाता है, उसी गौरव के साथ पन्ना धाय का नाम भी लिया जाता है, जिसने स्वामीभक्ति को सर्वोपरि मानते हुए अपने पुत्र चन्दन का बलिदान दे दिया था। इतिहास में पन्ना धाय का नाम स्वामिभक्ति के लिये प्रसिद्ध है।
पन्ना धाय राणा सांगा के पुत्र राणा उदयसिंह की धाय माँ थीं।
पन्ना धाय किसी राजपरिवार की सदस्य नहीं थीं। वह हरचंद हाँकला की पुत्री थी।
अपना सर्वस्व स्वामी को अर्पण करने के लिये जानी वाली राणा साँगा के पुत्र उदयसिंह को माँ के स्थान पर दूध पिलाने के कारण पन्ना 'धाय माँ' कहलाई थी।
पन्ना का पुत्र चन्दन और राजकुमार उदयसिंह साथ-साथ बड़े हुए थे।
उदयसिंह को पन्ना ने अपने पुत्र के समान पाला था।
पन्नाधाय ने उदयसिंह की माँ रानी कर्णावती के सामूहिक आत्म बलिदान द्वारा स्वर्गारोहण पर बालक की परवरिश करने का दायित्व संभाला था।
पन्ना ने पूरी लगन से बालक की परवरिश और सुरक्षा की।
पन्ना चित्तौड़ के कुम्भा महल में रहती थी।
चित्तौड़ का शासक, दासी का पुत्र बनवीर बनना चाहता था।
उसने राणा के वंशजों को एक - एक कर मार डाला।
बनवीर एक रात महाराजा विक्रमादित्य की हत्या करके उदयसिंह को मारने के लिए उसके महल की ओर चल पड़ा।
एक विश्वस्त सेवक द्वारा पन्ना धाय को इसकी पूर्व सूचना मिल गई।
पन्ना राजवंश और अपने कर्तव्यों के प्रति सजग थी व उदयसिंह को बचाना चाहती थी।
उसने उदयसिंह को एक बांस की टोकरी में सुलाकर उसे झूठी पत्तलों से ढककर एक विश्वास पात्र सेवक के साथ महल से बाहर भेज दिया।
बनवीर को धोखा देने के उद्देश्य से अपने पुत्र को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया।
बनवीर रक्तरंजित तलवार लिए उदयसिंह के कक्ष में आया और उसके बारे में पूछा।
पन्ना ने उदयसिंह के पलंग की ओर संकेत किया जिस पर उसका पुत्र सोया था।
बनवीर ने पन्ना के पुत्र को उदयसिंह समझकर मार डाला।
पन्ना अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र के वध को अविचलित रूप से देखती रही।
बनवीर को पता न लगे इस लिए वह आंसू भी नहीं बहा पाई।
बनवीर के जाने के बाद अपने मृत पुत्र की लाश को चूमकर राजकुमार को सुरक्षित स्थान पर ले जाने के लिए निकल पड़ी।
उन्होने अपने कर्तव्य - पूर्ति में अपने पुत्र का बलिदान देकर मेवाड़ राजवंश को बचाया।
जय जय श्री राधे
ॐ हनुमते नमः
पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब संसार में अधर्म और अराजकता बढ़ने लगी, तब भगवान विष्णु ने इस समस्या को समाप्त करने के लिए भगवान शिव की तपस्या का संकल्प लिया।
उन्होंने कठोर तपस्या शुरू की, जिससे शिवजी प्रसन्न हुए।
भगवान विष्णु ने उनसे ऐसा दिव्य अस्त्र मांगा, जो अधर्म का नाश कर सके और धर्म की स्थापना कर सके।
शिवजी ने प्रसन्न होकर विष्णु को सुदर्शन चक्र प्रदान किया।
यह चक्र केवल एक शस्त्र नहीं था, बल्कि भगवान शिव का आशीर्वाद और शक्ति का प्रतीक था।
कहा जाता है कि शिवजी ने इसे देते समय कहा था, " यह चक्र अमोघ है, इसका प्रहार कभी व्यर्थ नहीं जाएगा। यह अधर्म और अन्याय का अंत करेगा। "
सुदर्शन चक्र की उत्पत्ति की कथा भी उतनी ही रोचक है।
एक मान्यता के अनुसार, विश्वकर्मा, जो देवताओं के महान शिल्पकार थे, ने इसे सूर्य के तेज से बनाया था।
कहते हैं कि सूर्यदेव के तेज का एक हिस्सा अत्यधिक प्रखर था, जिससे देवता असहज हो रहे थे।
तब विश्वकर्मा ने उस तेज को काटकर सुदर्शन चक्र का निर्माण किया और इसे भगवान शिव को भेंट किया।
शिवजी ने इसे विष्णु को प्रदान किया, जिससे यह चक्र भगवान विष्णु का प्रमुख अस्त्र बन गया।
भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र का उपयोग कई महत्वपूर्ण अवसरों पर किया।
इस चक्र ने न केवल दैत्यों का संहार किया, बल्कि देवताओं की रक्षा और धर्म की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
विष्णु ने इस चक्र की सहायता से मधु और कैटभ जैसे शक्तिशाली दैत्यों का वध किया।
इसी चक्र ने समुद्र मंथन के समय भी अमृत कलश की रक्षा की।
विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण ने भी सुदर्शन चक्र का उपयोग अनेक बार किया।
कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने सबसे पहले राजा श्रृगाल का वध इसी चक्र से किया था।
महाभारत में भी यह चक्र श्रीकृष्ण के साथ - साथ धर्म की स्थापना में सहायक बना।
विशेष रूप से, जब पांडवों और कौरवों के बीच धर्मयुद्ध चल रहा था, तब इस चक्र ने धर्म की जीत सुनिश्चित की।
एक रोचक प्रसंग यह है कि अश्वत्थामा, जो महाभारत युद्ध के बाद श्रीकृष्ण से सुदर्शन चक्र मांगने की इच्छा रखते थे, उन्होंने इसे पाने की कोशिश की।
लेकिन श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कर दिया कि यह चक्र केवल धर्म की रक्षा के लिए है और इसे किसी अन्य को देना उचित नहीं।
सुदर्शन चक्र का महत्व केवल एक अस्त्र तक सीमित नहीं है।
यह धर्म,सत्य,और न्याय का प्रतीक है।
इसे धारण करने वाले भगवान विष्णु और उनके अवतार श्रीकृष्ण ने इसे केवल अधर्म और अन्याय के विनाश के लिए उपयोग किया।
इसकी तेजस्विता और अमोघ शक्ति यह दर्शाती है कि सुदर्शन चक्र न केवल भौतिक शक्ति है,बल्कि आध्यात्मिक ऊर्जा का भी प्रतीक है।
यह चक्र हमें यह संदेश देता है कि शक्ति का उपयोग हमेशा धर्म और सत्य की रक्षा के लिए होना चाहिए।
भगवान विष्णु और श्रीकृष्ण ने इसे अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया,जो यह बताता है कि यह केवल एक अस्त्र नहीं, बल्कि एक दैवीय उत्तरदायित्व का प्रतीक है..!!
🙏🏾🙏🏿🙏🏻जय श्री कृष्ण🙏🏽🙏🏼🙏
हीरे, आपके कदमों में…
मध्य प्रदेश का एक जिला है—
पन्ना, जो अपने हीरे की खदानों के लिए प्रसिद्ध है।
वहीं के एक किसान ने एक जमीन का टुकड़ा खरीदा, यह सोचकर कि उसमें हीरे होंगे।
उसने पूरी मेहनत से खुदाई की, गहराई तक गया, लेकिन हीरे नहीं मिले।
थक-हारकर उसने वह जमीन सस्ते दामों में बेच दी और आंध्र प्रदेश व छत्तीसगढ़ चला गया, नई खदानों की तलाश में।
जिस व्यक्ति ने यह जमीन खरीदी, उसने वहीं से खुदाई शुरू की, जहाँ पहले किसान ने छोड़ दिया था।
कुछ ही दिनों बाद उसे चमकदार पत्थर दिखने लगे।
उसने उनकी जाँच करवाई, कटिंग और पॉलिशिंग करवाई—
और पाया कि वे बेहद कीमती हीरे थे।
सिर्फ़ 3 फीट और खोदने की ज़रूरत थी!
लेकिन पहले किसान का धैर्य जवाब दे गया और वह अपने हीरे के भंडार को छोड़कर चला गया।
सफलता उन्हीं को मिलती है, जो खोदना नहीं छोड़ते…!
यही जीवन की सच्चाई है—
सफल वो होते हैं, जो खुदाई जारी रखते हैं, धैर्य नहीं खोते, और एक दिन मंज़िल तक पहुँचते हैं।
जो असफल होते हैं, वे विश्वास खो देते हैं, बार - बार निर्णय बदलते हैं, और मंज़िल के करीब आकर भी पीछे हट जाते हैं।
हीरे आपके कदमों में बिखरे हैं…!
यह कहानी हमें सिखाती है कि—
" हीरे हमारी ज़मीन में ही छिपे होते हैं—
हमारे आँगन में, हमारे फूलों की क्यारी में। "
अगर हम अपने भीतर झांकें, खुद को गहराई से टटोलें, तो हम सभी को अपने भीतर छिपे हुए हीरे मिल सकते हैं।
किसी को यह जल्दी मिल जाता है...!
किसी को थोड़ा विलंब होता है...!
लेकिन हर किसी के पास वह अनमोल खज़ाना है।
आपमें भी असाधारण क्षमता है…
यह उन लोगों के लिए एक चेतावनी भी है, जो यह मान बैठे हैं कि—
अवसर सिर्फ़ दूसरों के लिए होते हैं।
हमारी किस्मत में कुछ बड़ा लिखकर नहीं आया।
हमारे भाग्य में सफलता नहीं है।
सच तो यह है कि यह सोच ही हमें पीछे रखती है।
" भगवान ने सभी को हीरे दिए हैं—
बस, खुदाई जारी रखनी होगी। "
तो क्या आप 3 फीट पहले हार मान लेंगे ?
या फिर अपने हीरे को खोजने के लिए खुदाई जारी रखेंगे ?
याद रखें—
हीरे आपके कदमों में हैं !
💗💗💐💐🙏🙏🙏
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
तमिल / द्रावीण ब्राह्मण ऑन लाइन / ऑफ लाइन ज्योतिषी
|| शत् शत् नमन और प्रणाम ||