https://www.profitablecpmrate.com/gtfhp9z6u?key=af9a967ab51882fa8e8eec44994969ec 3. आध्यात्मिकता का नशा की संगत भाग 2

।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।

सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता,  किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश

।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।


‼️राम कृपा ही केवलम्‼️


वाल्मीकि रामायण अनुसार ऋषि विश्वामित्र द्वारा कही गई मा गंगा जन्म की कथा

ऋषि विश्वामित्र ने इस प्रकार कथा सुनाना आरम्भ किया, "पर्वतराज हिमालय की अत्यंत रूपवती, लावण्यमयी एवं सर्वगुण सम्पन्न दो कन्याएँ थीं। 

सुमेरु पर्वत की पुत्री मैना इन कन्याओं की माता थीं। 

हिमालय की बड़ी पुत्री का नाम गंगा तथा छोटी पुत्री का नाम उमा था। 

गंगा अत्यन्त प्रभावशाली और असाधारण दैवी गुणों से सम्पन्न थी। 

वह किसी बन्धन को स्वीकार न कर मनमाने मार्गों का अनुसरण करती थी। 

उसकी इस असाधारण प्रतिभा से प्रभावित होकर देवता लोग विश्व के क्याण की दृष्टि से उसे हिमालय से माँग कर ले गये। 

पर्वतराज की दूसरी कन्या उमा बड़ी तपस्विनी थी। 




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उसने कठोर एवं असाधारण तपस्या करके महादेव जी को वर के रूप में प्राप्त किया।"

विश्वामित्र के इतना कहने पर राम ने कहा, "गे भगवन्! जब गंगा को देवता लोग सुरलोक ले गये तो वह पृथ्वी पर कैसे अवतरित हुई और गंगा को त्रिपथगा क्यों कहते हैं?" 

इस पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, "महादेव जी का विवाह तो उमा के साथ हो गया था किन्तु सौ वर्ष तक भी उनके किसी सन्तान की उत्पत्ति नहीं हुई। 

एक बार महादेव जी के मन में सन्तान उत्पन्न करने का विचार आया। 

जब उनके इस विचार की सूचना ब्रह्मा जी सहित देवताओं को मिली तो वे विचार करने लगे कि शिव जी के सन्तान के तेज को कौन सम्भाल सकेगा? 

उन्होंने अपनी इस शंका को शिव जी के सम्मुख प्रस्तुत किया। 

उनके कहने पर अग्नि ने यह भार ग्रहण किया और परिणामस्वरूप अग्नि के समान महान तेजस्वी स्वामी कार्तिकेय का जन्म हुआ। 

देवताओं के इस षड़यंत्र से उमा के सन्तान होने में बाधा पड़ी तो उन्होंने क्रुद्ध होकर देवताओं को शाप दे दिया कि भविष्य में वे कभी पिता नहीं बन सकेंगे। 

इस बीच सुरलोक में विचरण करती हुई गंगा से उमा की भेंट हुई। 

गंगा ने उमा से कहा कि मुझे सुरलोक में विचरण करत हुये बहुत दिन हो गये हैं। 

मेरी इच्छा है कि मैं अपनी मातृभूमि पृथ्वी पर विचरण करूँ। 

उमा ने गंगा आश्वासन दिया कि वे इसके लिये कोई प्रबन्ध करने का प्रयत्न करेंगी। 

"वत्स राम! तुम्हारी ही अयोध्यापुरी में सगर नाम के एक राजा थे। 




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उनके कोई पुत्र नहीं था। 

सगर की पटरानी केशिनी विदर्भ प्रान्त के राजा की पुत्री थी। 

केशिनी सुन्दर, धर्मात्मा और सत्यपरायण थी। 

सगर की दूसरी रानी का नाम सुमति थी जो राजा अरिष्टनेमि की कन्या थी। 

दोनों रानियों को लेकर महाराज सगर हिमालय के भृगुप्रस्रवण नामक प्रान्त में जाकर पुत्र प्राप्ति के लिये तपस्या करने लगे। 

उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर महर्षि भृगु ने उन्हें वर दिया कि तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी। 

दोनों रानियों में से एक का केवल एक ही पुत्र होगा जो कि वंश को बढ़ायेगा और दूसरी के साठ हजार पुत्र होंगे। 

कौन सी रानी कितने पुत्र चाहती है इसका निर्णय वे स्वयं आपस में मिलकर कर लें। 

केशिनी ने वंश को बढ़ाने वाले एक पुत्र की कामना की और गरुड़ की बहन सुमति ने साठ हजार बलवान पुत्रों की।

उचित समय पर रानी केशिनी ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। 

रानी सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकल जिसे फोड़ने पर छोटे छोटे साठ हजार पुत्र निकले। 

उन सबका पालन पोषण घी के घड़ों में रखकर किया गया। 

कालचक्र बीतता गया और सभी राजकुमार युवा हो गये। 

सगर का ज्येष्ठ पुत्र असमंजस बड़ा दुराचारी था और उसे नगर के बालकों को सरयू नदी में फेंक कर उन्हें डूबते हुये देखने में बड़ा आनन्द आता था। 

इस दुराचारी पुत्र से दुःखी होकर सगर ने उसे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। 

असमंजस के अंशुमान नाम का एक पुत्र था। 

अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। 

एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। 

शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया।





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राम ने ऋषि विश्वामित्र से कहा, "गुरुदेव! मेरी रुचि अपने पूर्वज सगर की यज्ञ गाथा को विस्तारपूर्वक सुनने में है। 

अतः कृपा करके इस वृतान्त को पूरा पूरा सुनाइये।" 

राम के इस तरह कहने पर ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर कहने लगे, " राजा सगर ने हिमालय एवं विन्ध्याचल के बीच की हरी भरी भूमि पर एक विशाल यज्ञ मण्डप का निर्माण करवाया। 

फिर अश्वमेघ यज्ञ के लिये श्यामकर्ण घोड़ा छोड़कर उसकी रक्षा के लिये पराक्रमी अंशुमान को सेना के साथ उसके पीछे पीछे भेज दिया। 

यज्ञ की सम्भावित सफलता के परिणाम की आशंका से भयभीत होकर इन्द्र ने एक राक्षस का रूप धारण करके उस घोड़े को चुरा लिया। 

घोड़े की चोरी की सूचना पाकर सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आदेश दिया कि घोड़ा चुराने वाले को पकड़कर या मारकर घोड़ा वापस लाओ। 

पूरी पृथ्वी में खोजने पर भी जब घोड़ा नहीं मिला तो, इस आशंका से कि किसीने घोड़े को तहखाने में न छुपा रखा हो, सगर के पुत्रों ने सम्पूर्ण पृथ्वी को खोदना आरम्भ कर दिया। 

उनके इस कार्य से असंख्य भूमितल निवासी प्राणी मारे गये। 

खोदते खोदते वे पाताल तक जा पहुँचे। 

उनके इस नृशंस कृत्य की देवताओं ने ब्रह्मा जी से शिकायत की तो ब्रह्मा जी ने कहा कि ये राजकुमार क्रोध एवं मद में अन्धे होकर ऐसा कर रहे हैं। 

पृथ्वी की रक्षा कर दायित्व कपिल पर है इस लिये वे इस विषय में कुछ न कुछ अवश्य करेंगे। 

पूरी पृथ्वी को खोदने के बाद भी जब घोड़ा और उसको चुराने वाला चोर नहीं मिला तो निराश होकर राजकुमारों ने इसकी सूचना अपने पिता को दी। 

रुष्ट होकर सगर ने आदेश दिया कि घोड़े को पाताल में जाकर ढूंढो। 

पाताल में घोड़े को खोजते खोजते वे सनातन वसुदेव कपिल के आश्रम में पहुँच गये। 

उन्होंने देखा कपिलदेव आँखें बन्द किये बैठे हैं और उन्हीं के पास यज्ञ का वह घोड़ा बँधा हुआ है। 

उन्होंने कपिल मुनि को घोड़े का चोर समझकर उनके लिये अनेक दुर्वचन कहे और उन्हें मारने के लिये दौड़े। 

सगर के इन कुकृत्यों से कपिल मुनि की समाधि भंग हो गई। 

उन्होंने क्रुद्ध होकर सगर के उन सब पुत्रों को भस्म कर दिया। 





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"जब महाराज सगर को बहुत दिनों तक अपने पुत्रों की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने अपने तेजस्वी पौत्र अंशुमान को अपने पुत्रों तथा घोड़े का पता लगाने के लिये आदेश दिया। "

वीर अंशुमान शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उसी मार्ग से पाताल की ओर चल पड़ा जिसे उसके चाचाओं ने बनाया था।

मार्ग में जो भी पूजनीय ऋषि मुनि मिले उनका यथोचित सम्मान करके अपने लक्ष्य के विषय में पूछता हुआ उस स्थान तक पहुँच गया जहाँ पर उसके चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों की राख पड़ी थी और पास ही यज्ञ का घोड़ा चर रहा था। 

अपने चाचाओं के भस्मीभूत शरीरों को देखकर उसे बहुत दुःख हुआ। 

उसने उनका तर्पण करने के लिये जलाशय की खोज की किन्तु उसे कहीं जलाशय दिखाई नहीं पड़ा। 

तभी उसकी दृष्टि अपने चाचाओं के मामा गरुड़ पर पड़ी। 

उन्हें सादर प्रणाम करके अंशुमान ने पूछा कि बाबाजी! 

मैं इनका तर्पण करना चाहता हूँ। 

पास में यदि कोई सरोवर हो तो कृपा करके उसका पता बताइये। 

यदि आप इनकी मृत्यु के विषय में कुछ जानते हैं तो वह भी मुझे बताने की कृपा करें। 

गरुड़ जी ने बताया कि किस प्रकार उसके चाचाओं ने कपिल मुनि के साथ उद्दण्ड व्यवहार किया था जिसके कारण कपिल मुनि ने उन सबको भस्म कर दिया। 

इसके पश्चात् गरुड जी ने अंशुमान से कहा कि ये सब अलौकिक शक्ति वाले दिव्य पुरुष के द्वारा भस्म किये गये हैं अतः लौकिक जल से तर्पण करने से इनका उद्धार नहीं होगा, केवल हिमालय की ज्येष्ठ पुत्री गंगा के जल से ही तर्पण करने पर इनका उद्धार सम्भव है। 

अब तुम घोड़े को लेकर वापस चले जाओ जिससे कि तुम्हारे पितामह का यज्ञ पूर्ण हो सके। 

गरुड़ जी की आज्ञानुसार अंशुमान वापस अयोध्या पहुँचे और अपने पितामह को सारा वृतान्त सुनाया। 

महाराज सगर ने दुःखी मन से यज्ञ पूरा किया। 

वे अपने पुत्रों के उद्धार करने के लिये गंगा को पृथ्वी पर लाना चाहते थे पर ऐसा करने के लिये उन्हें कोई भी युक्ति न सूझी।" 

थोड़ा रुककर ऋषि विश्वामित्र कहा, "महाराज सगर के देहान्त के पश्चात् अंशुमान बड़ी न्यायप्रियता के साथ शासन करने लगे। 

अंशुमान के परम प्रतापी पुत्र दिलीप हुये। 

दिलीप के वयस्क हो जाने पर अंशुमान दिलीप को राज्य का भार सौंप कर हिमालय की कन्दराओं में जाकर गंगा को प्रसन्न करने के लिये तपस्या करने लगे किन्तु उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो पाई और उनका स्वर्गवास हो गया। 

इधर जब राजा दिलीप का धर्मनिष्ठ पुत्र भगीरथ बड़ा हुआ तो उसे राज्य का भार सौंपकर दिलीप भी गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिये तपस्या करने चले गये। 

पर उन्हें भी मनवांछित फल नहीं मिला। 

भगीरथ बड़े प्रजावत्सल नरेश थे किन्तु उनकी कोई सन्तान नहीं हुई। 

इस पर वे अपने राज्य का भार मन्त्रियों को सौंपकर स्वयं गंगावतरण के लिये गोकर्ण नामक तीर्थ पर जाकर कठोर तपस्या करने लगे। 

उनकी अभूतपूर्व तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें वर माँगने के लिये कहा। भगीरथ ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि सगर के पुत्रों को मेरे प्रयत्नों से गंगा का जल प्राप्त हो जिससे कि उनका उद्धार हो सके। 

इस के अतिरिक्त मुझे सन्तान प्राप्ति का भी वर दीजिये ताकि इक्ष्वाकु वंश नष्ट न हो। 

ब्रह्मा जी ने कहा कि सन्तान का तेरा मनोरथ शीघ्र ही पूर्ण होगा, किन्तु तुम्हारे माँगे गये प्रथम वरदान को देने में कठिनाई यह है कि जब गंगा जी वेग के साथ पृथ्वी पर अवतरित होंगीं तो उनके वेग को पृथ्वी संभाल नहीं सकेगी। 

गंगा जी के वेग को संभालने की क्षमता महादेव जी के अतिरिक्त किसी में भी नहीं है। 

इसके लिये तुम्हें महादेव जी को प्रसन्न करना होगा। इतना कह कर ब्रह्मा जी अपने लोक को चले गये।

"भगीरथ ने साहस नहीं छोड़ा। 

वे एक वर्ष तक पैर के अँगूठे के सहारे खड़े होकर महादेव जी की तपस्या करते रहे। 

केवल वायु के अतिरिक्त उन्होंने किसी अन्य वस्तु का भक्षण नहीं किया। 




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अन्त में इस महान भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने भगीरथ को दर्शन देकर कहा कि हे भक्तश्रेष्ठ! हम तेरी मनोकामना पूरी करने के लिये गंगा जी को अपने मस्तक पर धारण करेंगे। 

इस की सूचना पाकर विवश होकर गंगा जी को सुरलोक का परित्याग करना पड़ा। 

उस समय वे सुरलोक से कहीं जाना नहीं चाहती थीं, इस लिये वे यह विचार करके कि मैं अपने प्रचण्ड वेग से शिव जी को बहा कर पाताल लोक ले जाऊँगी वे भयानक वेग से शिव जी के सिर पर अवतरित हुईं। 

गंगा के इस वेगपूर्ण अवतरण से उनका अहंकार शिव जी से छुपा न रहा। 

महादेव जी ने गंगा की वेगवती धाराओं को अपने जटाजूट में उलझा लिया। 

गंगा जी अपने समस्त प्रयत्नों के बाद भी महादेव जी के जटाओं से बाहर न निकल सकीं। 

गंगा जी को इस प्रकार शिव जी की जटाओं में विलीन होते देख भगीरथ ने फिर शंकर जी की तपस्या की। 

भगीरथ के इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगा जी को हिमालय पर्वत पर स्थित बिन्दुसर में छोड़ा। 

छूटते ही गंगा जी सात धाराओं में बँट गईं। 

गंगा जी की तीन धाराएँ ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पूर्व की ओर प्रवाहित हुईं। 

सुचक्षु, सीता और सिन्धु नाम की तीन धाराएँ पश्चिम की ओर बहीं और सातवीं धारा महाराज भगीरथ के पीछे पीछे चली। 

जिधर जिधर भगीरथ जाते थे, उधर उधर ही गंगा जी जाती थीं। 

स्थान स्थान पर देव, यक्ष, किन्नर, ऋषि-मुनि आदि उनके स्वागत के लिये एकत्रित हो रहे थे। 

जो भी उस जल का स्पर्श करता था, भव-बाधाओं से मुक्त हो जाता था। 

चलते चलते गंगा जी उस स्थान पर पहुँचीं जहाँ ऋषि जह्नु यज्ञ कर रहे थे। 

गंगा जी अपने वेग से उनके यज्ञशाला को सम्पूर्ण सामग्री के साथ बहाकर ले जाने लगीं। 

इससे ऋषि को बहुत क्रोध आया और उन्होंने क्रुद्ध होकर गंगा का सारा जल पी लिया। 

यह देख कर समस्त ऋषि मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ और वे गंगा जी को मुक्त करने के लिये उनकी स्तुति करने लगे। 

उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर जह्नु ऋषि ने गंगा जी को अपने कानों से निकाल दिया और उन्हें अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार कर लिया। तब से गंगा जाह्नवी कहलाने लगीँ। 

इसके पश्चात् वे भगीरथ के पीछे चलते चलते समुद्र तक पहुँच गईं और वहाँ से सगर के पुत्रों का उद्धार करने के लिये रसातल में चली गईं। 

उनके जल के स्पर्श से भस्मीभूत हुये सगर के पुत्र निष्पाप होकर स्वर्ग गये। 

उस दिन से गंगा के तीन नाम हुये, त्रिपथगा, जाह्नवी और भागीरथी। 


‼️राम कृपा ही केवलम्‼️


*❗अनपायनी भक्ति❗*

   


प्रश्न उठता है भक्ति कैसी हो ?

        

तब इसके लिए हमें श्रीरामचरितमानस में स्वयं सर्व श्रीगोस्वामी तुलसीदास, सीता जी, हनुमान जी, भरत जी, लक्ष्मण जी, भगवान के सखा गुह, सनकादिक ऋषि-मुनि इत्यादि जैसी भक्ति का वरदान प्रभु से मांगते हैं उसे समझना होगा।

श्रीमद्भागवत में श्री हनुमान जी महाराज को 👉परम भागवत ( अर्थात सर्वश्रेष्ठ भक्त ) कहा गया है, श्री हनुमान जी महाराज स्वयं भगवान शिव के अवतार हैं, और शिव जी को भी परम-वैष्णव कहा गया है, अतः भक्ति में हनुमान जी महाराज और शिव जी दोनों हीं उच्चतम आदर्श हैं । 

श्री रामचरितमानस में श्रीहनुमान जी महाराज प्रभु से अनपायनी भक्ति का वर मांगते हैं।

यथा-

चौ॰-नाथ भगति अति सुखदायनी ।
  देहु कृपा करि अनपायनी ॥

सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी ।
  एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥

 ( श्रीरामचरितमानस 5.34.1 )

भावार्थ:-हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। 

श्री हनुमान्‌जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने एवमस्तु' ( ऐसा ही हो ) कहा॥

उससे पहले श्री हनुमान जी को सीता माँ की कृपा मिल चुकी थी ..उन्हें पहले सीता जी का अनुपम वरदान मिल चूका था।

अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
 करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
 ( श्री रामचरितमानस 5.17.2 )




भावार्थ:-हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने हो ओ। 

श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें, वो तुमसे बहुत छोह ( प्रेम ) करें।

अतः साधक सीता जी के कृपा की छाया में रहते हुए श्री हनुमान जी महाराज का अनुसरण कर प्रभु श्री राम की"अनपायनी भक्ति को प्राप्त कर सकता है।

भक्ति का भाव स्वरुप जैसा भी हो सब में सीता जी की कृपा जरुरी है, सभी भावों में प्रभु के प्रति सेवा का भाव अर्थात 👉 "दास्यभक्ति" का तत्व हमेशा मौजूद होता है, दास्य-भक्ति के परम-आदर्श श्री हनुमान जी महाराज हैं।

  *🌹🙏जय जय राम सीताराम राम राम राम 🙏🌹*

पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:- 
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science) 
" Opp. Shri Dhanlakshmi Strits , Marwar Strits, RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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भगवान सूर्य के वंश :

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