सभी ज्योतिष मित्रों को मेरा निवेदन हे आप मेरा दिया हुवा लेखो की कोपी ना करे में किसी के लेखो की कोपी नहीं करता, किसी ने किसी का लेखो की कोपी किया हो तो वाही विद्या आगे बठाने की नही हे कोपी करने से आप को ज्ञ्नान नही मिल्त्ता भाई और आगे भी नही बढ़ता , आप आपके महेनत से तयार होने से बहुत आगे बठा जाता हे धन्यवाद ........
जय द्वारकाधीश
।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।
श्री रामचरित्रमानस प्रवचन
कागा हंस ना होय
पुराने जमाने में एक शहर में दो ब्राह्मण पुत्र रहते थे, एक गरीब था तो दूसरा अमीर.. दोनों पड़ोसी थे..,,!
गरीब ब्राम्हण की पत्नी ,उसे रोज़ ताने देती , झगड़ती ..।।
एक दिन ग्यारस के दिन गरीब ब्राह्मण पुत्र झगड़ों से तंग आ जंगल की ओर चल पड़ता है , ये सोच कर , कि जंगल में शेर या कोई मांसाहारी जीव उसे मार कर खा जायेगा , उस जीव का पेट भर जायेगा और मरने से वो रोज की झिक झिक से मुक्त हो जायेगा..।
जंगल में जाते उसे एक गुफ़ा नज़र आती है...वो गुफ़ा की तरफ़ जाता है...।
गुफ़ा में एक शेर सोया होता है और शेर की नींद में ख़लल न पड़े इसके लिये हंस का पहरा होता है..!
हंस ज़ब दूर से ब्राह्मण पुत्र को आता देखता है तो चिंता में पड़ सोचता है..!
ये ब्राह्मण आयेगा , शेर जगेगा और इसे मार कर खा जायेगा...!
ग्यारस के दिन मुझे पाप लगेगा...!
इसे बचायें कैसे???
उसे उपाय सुझता है और वो शेर के भाग्य की तारीफ़ करते कहता है..!
ओ जंगल के राजा...!
उठो, जागो..आज आपके भाग खुले हैं, ग्यारस के दिन खुद विप्रदेव आपके घर पधारे हैं, जल्दी उठें और इन्हे दक्षिणा दें रवाना करें...!
आपका मोक्ष हो जायेगा..!
ये दिन दुबारा आपकी जिंदगी में शायद ही आये, आपको पशु योनी से छुटकारा मिल जायेगा...।
शेर दहाड़ कर उठता है , हंस की बात उसे सही लगती है और पूर्व में शिकार मनुष्यों के गहने वो ब्राह्मण के पैरों में रख , शीश नवाता है, जीभ से उनके पैर चाटता है..।
हंस ब्राह्मण को इशारा करता है विप्रदेव ये सब गहने उठाओ और जितना जल्द हो सके वापस अपने घर जाओ...!
ये सिंह है..!
कब मन बदल जाय..!
ब्राह्मण बात समझता है घर लौट जाता है....!
पडौसी अमीर ब्राह्मण की पत्नी को जब सब पता चलता है तो वो भी अपने पति को जबरदस्ती अगली ग्यारस को जंगल में उसी शेर की गुफा की ओर भेजती है....!
अब शेर का पहेरादार बदल जाता है..!
नया पहरेदार होता है ""कौवा""
जैसे कौवे की प्रवृति होती है वो सोचता है ...!
बढीया है ..!
ब्राह्मण आया..!
शेर को जगाऊं ...!
शेर की नींद में ख़लल पड़ेगी, गुस्साएगा, ब्राह्मण को मारेगा, तो कुछ मेरे भी हाथ लगेगा, मेरा पेट भर जायेगा...!
ये सोच वो कांव.. कांव.. कांव...चिल्लाता है..शेर गुस्सा हो जगता है..!
दूसरे ब्राह्मण पर उसकी नज़र पड़ती है , उसे हंस की बात याद आ जाती है..!
वो समझ जाता है, कौवा क्यूं कांव..कांव कर रहा है..
वो अपने, पूर्व में हंस के कहने पर किये गये धर्म को खत्म नहीं करना चाहता..पर फिर भी नहीं शेर,शेर होता है जंगल का राजा...!
वो दहाड़ कर ब्राह्मण को कहता है..!
"हंस उड़ सरवर गये और अब काग भये प्रधान...!
थे तो विप्र थांरे घरे जाओ,,,,!
मैं किनाइनी जिजमान...,!"
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अर्थात हंस जो अच्छी सोच वाले अच्छी मनोवृत्ति वाले थे उड़ के सरोवर यानि तालाब को चले गये है और अब कौवा प्रधान पहरेदार है जो मुझे तुम्हें मारने के लिये उकसा रहा है..मेरी बुध्दी घूमें उससे पहले ही..हे ब्राह्मण, यहां से चले जाओ..शेर किसी का जजमान नहीं हुआ है..वो तो हंस था जिसने मुझ शेर से भी पुण्य करवा दिया...!
दूसरा ब्राह्मण सारी बात समझ जाता है और डर के मारे तुरंत प्राण बचाकर अपने घर की ओर भाग जाता है...!
कहने का मतलब है हंस और कौवा कोई और नहीं ,,,!
हमारे ही चरित्र है...!
कोई किसी का दु:ख देख दु:खी होता है और उसका भला सोचता है ,,,!
वो हंस है...!
और जो किसी को दु:खी देखना चाहता है ,,,!
किसी का सुख जिसे सहन नहीं होता ...!
वो कौवा है...!
जो आपस में मिलजुल, भाईचारे से रहना चाहते हैं , वे हंस प्रवृत्ति के हैं..!
जो झगड़े कर एक दूजे को मारने लूटने की प्रवृत्ति रखते हैं वे कौवे की प्रवृति के है...
स्कूल या आफिसों में जो किसी साथी कर्मी की गलती पर अफ़सर को बढ़ा चढ़ा के बताते हैं, उस पर कार्यवाही को उकसाते हैं...!
वे कौवे जैसे है..और जो किसी साथी कर्मी की गलती पर भी अफ़सर को बडा मन रख माफ करने को कहते हैं ,वे हंस प्रवृत्ति के है..।
अपने आस पास छुपे बैठे कौवौं को पहचानों, उनसे दूर रहो ...!
और जो हंस प्रवृत्ति के हैं , उनका साथ करो..!
इसी में सब का कल्याण छुपा है।
जय श्री राम राम राम सीताराम .......!
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श्री रामचरित्रमानस प्रवचन :
श्री लक्ष्मण ने भगवान् राम के सिर पर मोरपंख लगाने के लिए यही स्थान क्यों चुना ?
अयोध्या में तो कभी उन्होंने उनके मस्तक पर मोरपंख नहीं लगाया।
वास्तव में श्री लक्ष्मण इस श्रृंगार के द्वारा एक नयी भूमिका प्रस्तुत करते हैं।
उनका तात्पर्य यह है कि यदि कोई भगवान का मोर बनना चाहे तो उसे अयोध्या में नहीं, जनकपुरी में जन्म लेना चाहिए।
जो भक्ति का मोर होगा, वही राम का मोर होगा।
जो भक्ति का अपना नहीं होगा, वह भगवान का भी अपना नहीं होगा।
भगवान का मोर वही होगा, जो भक्ति की वाटिका में पालित है, जो भक्ति का पक्षधर है।
गोस्वामीजी के लिए पक्षी पक्षपात का प्रतीक है।
भक्ति का अर्थ ही है पक्षपात।
गोस्वामीजी उत्तरकाण्ड में संकेत देते हैं कि भक्ति के आचार्य काकभूसुण्डीजी पक्षी हैं।
पक्षी शब्द के दो अर्थ होते हैं --
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एक तो आकाश में उड़ने वाला पक्षी और दूसरा वह, जिसके हृदय में किसी के प्रति पक्षपात हो।
ज्ञानी निष्पक्षता का दावा करता है, पर भक्त ऐसा दावा नहीं करता।
भक्त तो कहता है कि हम पक्षपाती हैं, और जब भक्त पक्षपाती बनता है, तो भगवान पक्षधर बनते हैं।
न तो भक्त निष्पक्ष है और न भगवान् ही।
भगवान् श्रीमद्भागवत में कह देते हैं --
*"मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि"*
(९/४/६८) --
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'वे ( भक्त ) मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता।'
तो, पुष्पवाटिका में साक्षात पराभक्तिस्वरूप किशोरीजी के सन्मुख विरागी और निष्पक्ष ब्रह्म प्रकट होता है, तो वह अनुरागी और पक्षपात से युक्त हो जाता है और अपने माथे पर मोरपंख धारण कर लेता है।
यह मोरपंख ईश्वर के अनुराग को ही प्रकट करता है।
सीताजी का भगवान् राम के प्रति अनुराग तो प्रगट ही है।
जब वे श्रीराघवेंद्र के सौन्दर्य को देखती हैं, तो उनका प्रभु के प्रति अनुराग उनके हाव-भाव से प्रगट हो जाता है।
पर श्रीराम का उनके प्रति अनुराग है या नहीं ?
सखियाँ अपने वर्णन के माध्यम से सीताजी को श्री राम के अनुराग के प्रति आश्वस्त करती हैं।
वे सीताजी से कहती हैं --
जरा मोरपंख को देखिए !
उनका तात्पर्य यह था कि जब श्रीराघवेंद्र आपकी वाटिका के मोर के पंख को इतना सम्मान दे रहे हैं कि उसे सिर पर धारण कर लिया है, तब फिर वे आपको कहाँ पर धारण करेंगे इसकी कल्पना कर लीजिए।
जो व्यक्ति आपकी छोटी से छोटी वस्तु को इतना सम्मान करता है, वह फिर आपका कितना सम्मान न करेगा !
तो, पुष्पवाटिका का मोरपंख और पुष्प की कलियाँ यही संकेत करते हैं कि भगवान भक्तों के पक्षधर हैं।
और भगवान को इस प्रकार पक्षधर बनाने का कार्य श्री लक्ष्मण के द्वारा सम्पन्न होता है।
वे मौन और निःशब्द रहकर पुष्पवाटिका में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करते हैं।
-- श्री राम राम राम सीताराम 🌺🙏🏻
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नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏