।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।
|| पावन चरित्र •• श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ||
*_भाग •••••••• [ 183 ]_*
_🌱 *रघुनाथदास जी को प्रभु के दर्शन* 🌱_
*______【 02 】_______*
पिता ने जब देखा कि पुत्र का चित्त संसारी कामों में नहीं लगता तब उन्होंने एक बहुत ही सुन्दरी कन्या से इन का विवाह कर दिया।
गोवर्धनदास धनी थे, राजा और प्रजा दोनों के प्रीति-भाजन थे, सभी लोग उन्हें प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखते थे।
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राजाओं के समान उनका वैभव था।
इस लिये उन्हें अपने पुत्र के लिये सुन्दर- से - सुन्दर पत्नी खोजने में कठिनता नहीं हुई।
उकना ख्याल था कि रघुनाथ की युवा अवस्था है, वह परम सुन्दरी पत्नी पाकर अपनी सारी उदासीनता को भूल जायगा और उस के प्रेमपाश में बँधकर संसारी हो जायगा, किन्तु विषय - भोगों को ही सर्वस्व समझने वाले पिता को क्या पता था कि इस की शादी तो किसी दूसरे के साथ पहले ही हो चुकी है, उसके सौन्दर्य के सामने इन संसारी सुन्दरियों को सौन्दर्य तुच्छातितुच्छ है।
पिता का यह भी प्रयत्न विफल ही हुआ।
परम सुन्दरी पत्नी रघुनाथदास को अपने प्रेमपाश में नहीं फंसा सकी।
रघुनाथदास उसी प्रकार संसार से उदासीन ही बने रहे।
अब जब रघुनाथदास जी ने सुना कि प्रभु वृन्दावन नहीं जा सके हैं, वे राम केलि से लौटकर अद्वैताचार्य के घर ठहरे हुए हैं; तब तो इन्होंने बड़ी ही नम्रता के साथ अपने पूज्य पिता के चरणों में प्रार्थना की कि मुझे महाप्रभु के दर्शनों की आज्ञा मिलनी चाहिये।
महाप्रभु के दर्शन कर के मैं शीघ्र ही लौट आऊंगा।
इस बात को सुनते ही गोवर्धनदास किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये, किन्तु वे अपने बराबर के युवक पुत्र को जबरदस्ती रोकना भी नहीं चाहते थे, इस लिये आँखों में आंसू भरकर उन्होंने कहा- 'बेटा!
हमारे कुल का तू ही एकमात्र दीपक है।
हम सभी लोगों को एकमात्र तेरा ही सहारा है।
तू ही हमारे जीवन का आधार है।
तुझे देखे बिना हम जीवित नहीं रह सकते।
मैं महाप्रभु के दर्शनों से तुझे रोकना नहीं चाहता, किन्तु इस बूढ़े की यही प्रार्थना है कि तू मेरे इन सफेद बालों की ओर देखकर जल्दी से लौट आना, कहीं घर छोड़कर बाहर जाने का निश्चय मत करना।
पिता के मोह में पगे हुए इन वचनों को सुनकर आँखों में आंसू भरे हुए रघुनाथदास जी ने कहा- 'पिता जी! '
मैं क्या करूँ, न जा ने क्यों मेरा संसारी कामों में एकदम चित्त ही नहीं लगता।
मैं बहुत चाहते हूँ कि मेरे कारण आप को किसी प्रकार का कष्ट न हो, किन्तु मैं अपने वश में नहीं हूँ।
कोई बलात मेरे मन को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है।
आप की आज्ञा शिरोधर्य करता हूँ, मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा।'
पुत्र के ऐसे आश्वासन देने पर गोवर्धनदास ने अपने पुत्र के लिये एक सुन्दर-सी पाल की मंगायी।
दस - बीस विश्वासी नौकर उन के साथ दिये और बड़े ही ठाट-बाट के साथ राजकुमार की भाँति बहुत-सी भेंट की सामग्री के साथ उन्हें प्रभु के दर्शनों के लिये भेजा।
जहाँ से शान्तिपुर दीख ने लगा, वहीं से ये पालकी पर से उतर गये और नंगे पावों ही धूप में चलकर प्रभु के समीप पहुँचे।
दूर से ही भूमि पर लोटकर इन्होंने प्रभु के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया।
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*प्रभु ने जल्दी से उठकर इन्हें छाती से चिपटा लिया और धीरे-धीरे इनके काले घुंघराले बालों को अपनी उँगलियों से सुलझाने लगे।*
*प्रभु ने इनका माथा सूंघा और अपनी गोदी में बिठाकर बालकों की भाँति पूछने लगे- 'तुम इतनी धूप में अकेले कैसे आये, क्या पैदल आये हो?'*
*रघुनाथदास जी ने इन प्रश्नों में से किसी का भी कुछ उत्तर नहीं दिया, वे अपने अश्रुजल से प्रभु के काषाय-वस्त्रों को भिगो रहे थे।*
*इतने में ही रघुनाथदास जी के साथी सेवकों ने प्रभु के चरणों में आकर साष्टांग प्रणाम किया और भेंट की सभी सामग्री प्रभु के सम्मुख रख दी।*
महाप्रभु धीरे - धीरे रघुनाथदास जी के स्वर्ण के समान कान्तियुक्त शरीर पर अपना प्रेममय, सुखमय और ममत्वमय कोमल कर फिरा रहे थे।
प्रभु की ऐसी असीम कृपा पाकर रोते-रोते रघुनाथ जी कहने लगे- 'प्रभो!
पितृ-गृह मेरे लिये सचमुच कारावास बना हुआ है।
मेरे ऊपर सदा पहरा रहता है, बिना पूछे मैं कहीं आ-जा नहीं सकता, स्वतन्त्रता से घूम-फिर नहीं सकता।
हे जग के त्राता!
मेरे इस गृहबन्धन को छिन्न-भिन्न कर दीजिये।
मुझे यातना से छुड़ाकर अपने चरणों की शरण प्रदान कीजिये।
आप के चरणों का चिन्तन करता हुआ ही अपने जीवन को व्यतीत करूं, ऐसा आशीर्वाद दीजिये।'
प्रभु ने प्रेम पूर्वक कहा- 'रघुनाथ!
तुम पागल तो नहीं हो गये हो, अरे! घर भी कहीं बन्धन हो सकता है?
उसमें से अपनापन निकाल दो, बस, फिर रह ही क्या जाता है।
जब तक ममत्व है, तभी तक दुःख है।
जहाँ ममत्व दूर हुआ कि सब अपना-ही-अपना है।
आसक्ति छोड़कर व्यवहार करो।
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धन, स्त्री तथा कुटुम्बियों में अपनेपन के भाव को भुलाकर व्यवहार करो।'
रघुनाथदास जी ने रोते-रोते कहा- 'प्रभो! मुझे बच्चों की भाँति बहकाइये नहीं।
यह मैं खूब जानता हूँ कि आप सब के मन के भावों को समझकर उसे जैसे अधिकारी समझते हैं, वैसा ही उपदेश करते हैं।
बाल-बच्चों में अनासक्त रहकर और उन्हीं के साथ रहते हुए भजन करना उसी प्रकार है जिस प्रकार नदी में घुसने पर भी शरीर न भीगे। प्रभो!
ऐसा व्यवहार तो ईश्वर के सिवा साधारण मनुष्य कभी नहीं कर सकता।
आप जो उपदेश कर रहे हैं, वह उन लोगों के लिये हैं, जिनकी संसारी विषयों में थोड़ी-बहुत वासना बनी हुई है।
मैं आप के चरणों को स्पर्श करके कहता हूँ, कि मेरी संसारी विषयों में बिलकुल ही आसक्ति नहीं।
मुझे घर कर अपार वैभव काटने के लिये दौड़ता है, अब मैं अधिक काल घर के बन्धन में नहीं रह सकता।
प्रभु ने कहा- 'तुमने जो कुछ कहा है, वह सब ठीक है, किंतु यह मर्कट-वैराग्य ठीक नहीं।
कभी-कभी मनुष्यों को क्षणिक वैराग्य होता है, जो विपत्ति पड़ने पर एकदम नष्ट हो जाता है, इसी लिये कुछ दिन घर में और रहो, तब देखा जायगा।'
अत्यन्त ही करूण-स्वर में रघुनाथदास जी ने कहा- 'प्रभो!
आपके चरणों की श्रण में आने पर फिर वैराग्य नष्ट ही कैसे हो सकता है ?
क्या अमृत का पान करने पर भी पुरुष को जरा-मृत्यु का भय हो सकता है?
आप अपने चरणों में मुझे स्थान दीजिये।'
प्रभु ने धीरे से प्रेम के स्वर में कहा-
'अच्छी बात है देखा जायगा, अब तो तुम घर जाओ, मेरा अभी वृन्दावन जानेका विचार है।
यहाँ से लौटकर पुरी जाऊँगा और वहाँ से बहुत ही शीघ्र वृन्दावन जाना चाहता हूँ।
वृन्दावन से जब लौट आऊँ, तब तुम आकर मुझे पुरी में मिलना।
प्रभु के ऐसे आश्वासन से रघुनाथदास जी को कुछ सन्तोष हुआ।
वे सात दिनों तक शान्तिपुर में ही प्रभु के चरणों में रहे।
वे इन दिनों पलभर के लिये भी प्रभु से पृथक नहीं होते थे।
प्रभु के भिक्षा कर लेने पर उनका उच्छिष्ट प्रसाद पाते और प्रभु के चरणों के नीचे ही शयन करते।
इस प्रकार सात दिनों तक रहकर प्रभु की आज्ञा लेकर वे फिर सप्तग्राम के लिये लौट गये।
श्री मन्माधवेन्द्रपुरी की पुण्य - तिथि समीप ही थी, इस लिये अद्वैताचार्य के प्रार्थना करने पर प्रभु दस दिनों तक शान्तिपुर में ठहरे रहे।
नवद्वीप आदि स्थानों से बहुत- से भक्त प्रभु के दर्शनों के लिये आया करते थे।
शचीमाता भी अपने पुत्र को फिर से देखने के लिये आ गयीं और सात दिनों तक अपने हाथों से प्रभु को भिक्षा कराती रहीं।
इसी बीच एक दिन महाप्रभु गंगा पार करके पण्डित गौरीदास जी से मिलने गये।
वे गौरांग के चरणों में बड़ी श्रद्धा रखते थे।
उन्होंने प्रभु से वरदान मांगा कि आप निताई और निमाई दोनों भाई मेरे ही यहाँ रहें।
तब प्रभु ने उन के यहाँ प्रतिमा में रहना स्वीकार किया।
उन्होंने निमाई और निताई की प्रतिमा स्थापित की, जिन में उन के विश्वास के अनुसार अब भी दोनों भाई विराजमान हैं।
ये ही महाप्रभु गौरांगदेव और नित्यानन्द जी की आदिमूर्ति बतायी जाती है।
ये दोनों मूर्ति बड़ी ही दिव्य हैं।
कालना से लौटकर प्रभु फिर शान्तिुपर में आ गये, वहाँ से आपने सभी भक्तों को विदा कर दिया और आप अपने अन्तरंग दो-चार भक्तों को साथ लेकर श्रीजगन्नाथपुरी के लिये चल पड़े।
शेष कथा अगले भाग में..
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*_[ ‼️ ग्रंन्थ •••• श्रीचैतन्य- चरितावली ‼️]_*
।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।
युग तुलसी श्रीराम किंकर उवाच.......
अहंकार के खंडित होने के बाद यह जो धनुष का खींचना है उसके सांकेतिक अर्थ पर विचार कीजिए।
मन, बुद्धि और अहंकार को स्पष्ट रूप से समझने के लिए लंका का दृष्टांत लीजिए।
लंका-युद्ध के प्रसंग में आपको ध्यान होगा, रावण के लिए गोस्वामीजी कहते हैं कि वह मूर्तिमान मोह और कुंभकर्ण मूर्तिमान अहंकार का प्रतीक है।
इस प्रकार कुंभकर्ण की मृत्यु बहुत बड़ा और कठिन कार्य था।
जिस कुंभकर्ण ने प्रत्येक बंदर को परास्त कर दिया था उसे मारना अद्भुत कार्य था, लेकिन कुंभकर्ण की मृत्यु से युद्ध समाप्त नहीं हुआ।
लंका के युद्ध का तात्पर्य है कि यद्यपि अहंकार की मृत्यु बड़ी कठिन है, उस पर विजय प्राप्त करना कठिन है, परंतु अहंकार पर विजय के पश्चात भी जब तक रावण पर विजय प्राप्त नहीं हो जाती तब तक वस्तुतः युद्ध समाप्त नहीं होता।
इसका अभिप्राय है कि अहंकार पर विजय के बाद भी कुछ शेष रह जाता है और जो शेष रह जाता है उसका संकेत रावण के प्रसंग में किया गया है।
।। श्री रामचरित्रमानस प्रवचन ।।
अवश्य पढ़ें एक उपदेशात्मक प्रस्तुति !
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू।
मन क्रम बचन राम पद नेहू॥
भावार्थ:-विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर ) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ ( पुरुषार्थ ) है॥
मित्रों, वयक्ति के बिगड़ने के चार साधन होते है, रूप, यौवन, सम्पत्ति और बड़ा पद मिल जाना, सुन्दर रूप का होना, युवावस्था का होना, ज्यादा सम्पत्ति का होना, ऊँचा पद मिल जाना, इन चारों चीजों के साथ में यदि विवेक नहीं है, तो निश्चित रूप से वो व्यक्ति अनर्थ किये बिना नहीं रह सकता, यदि विवेक है, तो ये चारों चीजें ही व्यक्ति का कुछ नहीं बिगाड़ सकती और विवेक जो है वो सत्संग से प्राप्त होता है।
यदा देवेषु वेदेषु गोषु विप्रेषु साधुषु।
धर्मे मयि च विद्वेष: स वा आशु विनश्यति।।
देवताओं के प्रति, वेदों के प्रति, गऊ-ब्राह्मणों के प्रति जिसके मन में विद्वेष उत्पन्न हो जाता है, वह व्यक्ति शीघ्र नष्ट हो जाता है, उस व्यक्ति को नष्ट होने से कोई रोक नहीं सकता, इसलिये आप सभी से आग्रह है कि देवताओं, वेदों ब्राह्मणों और गौ माता का हमेशा सम्मान करें।
अहं सर्वेषु भुतेषु भूतात्मावस्थित: सदा।
तमवज्ञाय मां मत्य: कुरूतेऽर्चाविडम्बनम्।।
भागवत के एक प्रसंग में भगवान् कपिलजी माँ देवहूति को उपदेश देते हुए कहते हैं, कण-कण में रहने वाले मुझ परमात्मा को जिसने सबमें नहीं देखा, उस व्यक्ति की मूर्ति पूजा में भी मैं उसे मिलने वाला नहीं, उसकी मूर्ति पूजा भी तो ऐसे ही है जैसे राख में किया गया हवन्।
माता देवहूति ने पूछा- मातृगर्भ में तो जीव को बड़ा सुख मिलता होगा, न सर्दी है, न गर्मी है, न शोक है, न मोह है, कपिलजी बोले-
यह मत पूछो माता, माँ के गर्भ में जीव को जितनी तकलीफ होती है, उतनी न पहले कभी होती है और न कभी बाद में होती है, "गर्भवास समं दु:खं न भूतो न भविष्यति" इतना कष्ट होता है कि हजारों छोटे-छोटे कीटाणु जो मातृगर्भ में पलते है, वे जीव के कोमल शरीर को काटते है, जीव तड़पता है, चिल्लाता है, सुने कौन?
कभी माँ चटपटी वस्तु का सेवन कर ले, तो इसको कष्ट होता है, माँ कभी गर्म वस्तु का सेवन कर ले तो इसको कष्ट होता है, सातवां महीना आते ही जन्म जन्मांतर के कर्म इसको याद आते है और भगवान् की स्तुति करता है, "तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्तनानातनोर्भुवि चलच्चरणारविन्दम्" परमात्मा से कहता है-
हे भगवन् एक बार मुझे गर्भ से निकालो, गर्भ से बाहर करो, प्रभु!
ऐसा भजन करूँगा कि फिर कभी गर्भ में नहीं आना पड़े।
भगवान् कहते हैं- तुम गर्भ में ही स्तुति करते हो, बाहर आते ही सब भूल जाओगे, जीव कहता है-
सत्य कहता हूँ, एक बार गर्भ से बाहर निकालकर देखो-
मैं तुम्हें नहीं भूलूंगा, बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञा करता है, नौवां महिना पूर्ण हुआ, दसवां मास आरम्भ हुआ और जैसे ही प्रसव की वायु का वेग आया, जीव मातृगर्भ से तुरंत संसार में आ जाता है।
माता देवहूति ने कहा-
गर्भ में बड़ी तकलीफ थी, बाहर आ गया तो अब सुख मिलेगा, कपिलजी ने कहा-
माता सत्य कहता हूँ, बाहर भी सुख नहीं है, बताओ दोस्तों! मैं आपसे पुँछता हूँ कि सुख मिला किसी को?
आप बिल्कुल सत्य समझना, मैंने कई - कई विद्वानों, बलवानों, धनवानों को नजदीक से देखा है, वो एक दूसरे को सुखी बताते है, स्वयं कोई भी सुखी नहीं है।
दीन कहे धनवान सुखी,धनवान कहे सुख राजा को भारी।
राजा कहे महाराज सुखी,महाराज कहे सुख इन्द्र को भारी।
इन्द्र कहे ब्रह्मा को सुख, ब्रह्मा कहे सुख विष्णु को भारी।
तुलसीदास विचार करे, हरि भजन बिना सब जीव दुखारी।
सज्जनों, बाहर भी सुख नहीं, काहे का सुख?
बालक जन्म लेता है, पलने में सो रहा है, उसे मच्छर काट रहे है, लेकिन बता नहीं सकता कि मुझे क्या तकलीफ है?
थोड़ा और बड़ा हुआ, बच्चे ने अपने मन को तीन जगह में बांट दिया, माँ, पिताजी और भाई में, और बड़ा हुआ तो मन मित्रों में बंट गया, अब पढ़ने जा रहे हैं साहब, "मात-पिता बालकन बुलावें, उदर भरे सो ही धर्म सिखावें" पेट भरने की विधा सीखने जा रहे है।
पढ़-लिखकर डिग्रीयां लेकर आये, माता-पिता ने शादी कर दी, अब तक माता में ममता थी, पिताजी में अनुराग था, सारी ममता और अनुराग की डोरी को श्रीमतीजी के पल्लू से बांध दी, जब तक शादी नहीं हुई बेटा तब तक माता-पिता का था, बेटे की शादी होते ही बेटा पराया हो गया, फिर माता-पिता का कहना नहीं करेगा, श्रीमती का कहना करेगा।
युवावस्था ऐसे बीत गयी, बुढ़ापा आया तो रोगों ने ग्रस लिया और जैसे जीव आया था वैसे ही चला गया " पुनरपि जन्मं पुनरपि मरणं ••• बार-बार जन्म लेता है, बार-बार मर जाता है, बार-बार माता के गर्भ में आता है, " इस आवागमन से छुटकारा मिल नहीं पाता, संसार की इन विषम परिस्थितियों से हमें यही शिक्षा लेनी चाहिये, माना कि कर्म सभी संसार के करें, परन्तु परमात्मा से प्रीति-भक्ति नहीं तोड़े।
तस्मान्न कार्य: सन्त्रासो न कार्पण्यं न सम्भ्रम:।
बद्ध्वा जीवगतिं धीरो: मुक्तसंगश्चरेदिह।।
परमात्मा के प्रति प्रीति-भक्ति के तीन साधन हैं, तीन धारायें हैं-
विश्वास, सम्बन्ध और समर्पण, भक्ति आरम्भ होती है विश्वास से, परमात्मा के प्रति विश्वास करो, बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती, यदि विश्वास नहीं है तो पूजा और भक्ति का फल नहीं मिलेगा, चाहे कितनी भी पूजा करिये, चाहे कितनी भी भक्ति करिये, पूजा का मतलब है मन में विश्वास हो "विश्वासो फल दायक:"
भक्ति की तीसरी धारा है-
समर्पण!
प्रभु के प्रति समर्पित हो जाओ, ये तो बिल्कुल सत्य है, लेकिन परमात्मा के प्रति विश्वास, संबंध और समर्पण ये तीनों ही बातें आयेंगी कैसे?
श्रीमद्भागवत कथा, श्रीमद्भगवद्गीता, रामचरित मानसजी का श्रवण करों, कीर्तन से परमात्मा के नाम का गान करो।
जब प्रभु के नाम को गायेंगे तो नाम को गाते-गाते मन पवित्र होगा, फिर मन में चिन्तन की भावना बढ़ेगी, चिन्तन से फिर परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी, सज्जनों कल फिर अध्यात्म के किसी प्रसंग के साथ आप श्री के सम्मुख उपस्थित रहने की कोशिश करूँगा, आज की शुभ मध्यांह आप सभी को मंगलमय् हो।
जय श्रीकॄष्ण!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय्
पंडारामा प्रभु राज्यगुरु
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