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हिंदुओ के चार धाम की रोचक जानकारी :

हिंदुओ के चार धाम की रोचक जानकारी :


हिंदुओ के चार धाम की रोचक जानकारी :


हिंदू मान्यता के अनुसार चार धाम की यात्रा का बहुत महत्व है। 

इन्हें तीर्थ भी कहा जाता है। 

ये चार धाम चार दिशाओं में स्थित है। 

उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण रामेश्वर, पूर्व में पुरी और पश्चिम में द्वारिका। 

प्राचीन समय से ही चारधाम तीर्थ के रूप मे मान्य थे, लेकिन इनकी महिमा का प्रचार आद्यशंकराचार्यजी ने किया था। 

माना जाता है, उन्होंने चार धाम व बारह ज्योर्तिलिंग को सुचीबद्ध किया था।




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क्यों बनाए गए चार धाम?


चारों धाम चार दिशा में स्थित करने के पीछे जो सांंस्कृतिक लक्ष्य था, वह यह कि इनके दर्शन के बहाने भारत के लोग कम से कम पूरे भारत का दर्शन कर सके। 

वे विविधता और अनेक रंगों से भरी भारतीय संस्कृति से परिचित हों। 

अपने देश की सभ्यता और परंपराओं को जानें। 

ध्यान रहे सदियों से लोग आस्था से भरकर इन धामों के दर्शन के लिए जाते रहे हैं। 

पिछले कुछ दशकों से आवागमन के साधनों और सुविधा में विकास ने चारधाम यात्रा को सुगम बना दिया है।


किस धाम की क्या विशेषता है?


बद्रीनाथ धाम-बद्रीनाथ उत्तर दिशा मेंओं का मुख्य यात्राधाम माना जाता है। 

मन्दिर में नर-नारायण की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। 

यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ-स्थल है। 

प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बद्रीनाथ का दर्शन एक बार अवश्य ही करे। 

यहां पर यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। 

यहां वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।


रामेश्वर धाम-रामेश्वर में भगवान शिव की पूजा लिंग रूप में की जाती है। 

यह शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। 

भारत के उत्तर मे काशी की जो मान्यता है, वही दक्षिण में रामेश्वरम् की है। 

रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। 

यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है।


पुरी धाम-पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है। 

यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। 

जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। 

इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। 

इस मंदिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। 

इस मंदिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। 

यहां मुख्य रूप से भात का प्रसाद चढ़ाया जाता है।


द्वारिका धाम-द्वारका भारत के पश्चिम में समुद्र के किनारे पर बसी है। 

आज से हजारों वर्ष पूर्व भगवान कृष्ण ने इसे बसाया था। 

कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होने द्वारका में ही किया। 

यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। 

पांडवों को सहारा दिया। 

कहते हैं असली द्वारका तो पानी में समा गई, लेकिन कृष्ण की इस भूमि को आज भी पूज्य माना जाता है। 

इस लिए द्वारका धाम में श्रीकृष्ण स्वरूप का पूजन किया जाता है।


चारधाम


चारधाम की स्थापना आद्य शंकराचार्य ने की। 

उद्देश्य था उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम चार दिशाओं में स्थित इन धामों की यात्रा कर मनुष्य भारत की सांस्कृतिक विरासत को जाने-समझें।


1 : बदरीनाथ धाम

कहां है : उत्तर दिशा में हिमालय पर अलकनंदा नदी के पास 


प्रतिमा : विष्णु की शालिग्राम शिला से बनी चतुर्भुज मूर्ति। इसके आसपास बाईं ओर उद्धवजी तथा दाईं ओर कुबेर की प्रतिमा।


पौराणिक कथाओं और यहाँ की लोक कथाओं के अनुसार यहाँ नीलकंठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतरण किया। 

यह स्थान पहले शिव भूमि ( केदार भूमि ) के रूप में व्यवस्थित था। 

भगवान विष्णुजी अपने ध्यानयोग हेतु स्थान खोज रहे थे और उन्हें अलकनंदा नदी के समीप यह स्थान बहुत भा गया। 

उन्होंने वर्तमान चरणपादुका स्थल पर ( नीलकंठ पर्वत के समीप ) ऋषि गंगा और अलकनंदा नदी के संगम के समीप बाल रूप में अवतरण किया और क्रंदन करने लगे। 

उनका रुदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा। 

फिर माता पार्वती और शिवजी स्वयं उस बालक के समीप उपस्थित हो गए। 

माता ने पूछा कि बालक तुम्हें क्या चहिये ? 

तो बालक ने ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। 

इस तरह से रूप बदल कर भगवान विष्णु ने शिव-पार्वती से यह स्थान अपने ध्यानयोग हेतु प्राप्त कर लिया। 

यही पवित्र स्थान आज बदरीविशाल के नाम से सर्वविदित है।


त्रेता युग :


नर तथा नारायण।

माना जाता है कि इन्होंने बद्रीनाथ मन्दिर में कई वर्षों तक तपस्या की थी।


नर और नारायण ने यहां कई वर्षों तक तपस्या की थी। 

यह भी माना जाता है कि उन्होंने अगले जन्म में क्रमशः अर्जुन तथा कृष्ण के रूप में जन्म लिया था।


पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह बारह धाराओं में बंट गई। 

इस स्थान पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से विख्यात हुई और यह स्थान बदरीनाथ, भगवान विष्णु का वास बना। 

भगवान विष्णु की प्रतिमा वाला वर्तमान मन्दिर ३,१३३ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और माना जाता है कि आदि शंकराचार्य, आठवीं शताब्दी के दार्शनिक संत ने इसका निर्माण कराया था। 

इसके पश्चिम में २७ किलोमीटर की दूरी पर स्थित बदरीनाथ शिखर कि ऊँचाई ७,१३८ मीटर है। 

बदरीनाथ में एक मन्दिर है, जिसमें बदरीनाथ या विष्णु की वेदी है। 

यह २,००० वर्ष से भी अधिक समय से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान रहा है।


द्वापर युग


मान्यता है कि इसी स्थान पर पाण्डवों ने अपने पितरों का पिंडदान किया था। 

बद्रीनाथ के ब्रम्हाकपाल क्षेत्र में आज भी तीर्थयात्री अपने पितरों का आत्मा का शांति के लिए पिंडदान करते हैं। 

यह भी माना जाता है कि व्यास जी ने महाभारत इसी जगह पर लिखी थी।


बदरीनाथ की मूर्ति शालग्रामशिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। 

कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुण्ड से निकालकर स्थापित की थी। 

सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके प्रधान अर्चक थे। 

जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की। 

शंकराचार्य की प्रचार-यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गए। 

शंकराचार्य ने अलकनन्दा से पुन: बाहर निकालकर उसकी स्थापना की। 

तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।


2 : द्वारका धाम

कहां है : पश्चिम दिशा में गुजरात के जामनगर के पास समुद्र तट पर।


प्रतिमा : भगवान श्रीकृष्ण।


द्वारका गुजरात के देवभूमि द्वारका जिले में स्थित एक नगर तथा हिन्दू तीर्थस्थल है। 

यह हिन्दुओं के साथ सर्वाधिक पवित्र तीर्थों में से एक तथा चार धामों में से एक है। 

यह सात पुरियों में एक पुरी है। 

जिले का नाम द्वारका पुरी से रखा गया है जीसकी रचना २०१३ में की गई थी। 

यह नगरी भारत के पश्चिम में समुन्द्र के किनारे पर बसी है। 

हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार, भगवान कॄष्ण ने इसे बसाया था। 

यह श्रीकृष्ण की कर्मभूमि है। द्वारका भारत के सात सबसे प्राचीन शहरों में से एक है।


काफी समय से जाने-माने शोधकर्ताओं ने पुराणों में वर्णित द्वारिका के रहस्य का पता लगाने का प्रयास किया, लेकिन वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित कोई भी अध्ययन कार्य अभी तक पूरा नहीं किया गया है। 

२००५ में द्वारिका के रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए अभियान शुरू किया गया था। 

इस अभियान में भारतीय नौसेना ने भी मदद की।

अभियान के दौरान समुद्र की गहराई में कटे-छटे पत्थर मिले और यहां से लगभग २०० अन्य नमूने भी एकत्र किए, लेकिन आज तक यह तय नहीं हो पाया कि यह वही नगरी है अथवा नहीं जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था। 

आज भी यहां वैज्ञानिक स्कूबा डायविंग के जरिए समंदर की गहराइयों में कैद इस रहस्य को सुलझाने में लगे हैं।


कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, पर राज उन्होने द्वारका में किया। 

यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। 

पांड़वों को सहारा दिया। 

धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। 

द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। 

बड़े - बड़े राजा यहां आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे। 

इस जगह का धार्मिक महत्व तो है ही, रहस्य भी कम नहीं है। 

कहा जाता है कि कृष्ण की मृत्यु के साथ उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई। 

आज भी यहां उस नगरी के अवशेष मौजूद हैं।


3 : रामेश्वरम

कहां है : दक्षिण दिशा में तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में समुद्र के बीच रामेश्वर द्वीप।


प्रतिमा : शिवलिंग


रामेश्वरम् के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारें में यह रोचक कहानी कही जाती है। 

सीताजी को छुड़ाने के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की थी। 

उन्होने लड़ाई के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया, पर जब राम सफलता न मिली तो विवश होकर उन्होने युद्ध किया। 

इस युद्ध में रावण और उसके सब साथी राक्षस मारे गये। 

रावण भी मारा गया; और अन्ततः सीताजी को मुक्त कराकर श्रीराम वापस लौटे। 

इस युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था। 


रावण भी साधारण राक्षस नहीं था। 

वह पुलस्त्य महर्षि का नाती था। 

चारों वेदों का जाननेवाला था और था शिवजी का बड़ा भक्त। 

इस कारण राम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ। 

ब्रह्मा-हत्या का पाप उन्हें लग गया। 

इस पाप को धोने के लिए उन्होने रामेश्वरम् में शिवलिंग की स्थापना करने का निश्चय किया। 

यह निश्चय करने के बाद श्रीराम ने हनुमान को आज्ञा दी कि काशी जाकर वहां से एक शिवलिंग ले आओ। 

हनुमान पवन-सुत थे। 

बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े। 

लेकिन शिवलिंग की स्थापना की नियत घड़ी पास आ गई। 

हनुमान का कहीं पता न था। 

जब सीताजी ने देखा कि हनुमान के लौटने मे देर हो रही है, तो उन्होने समुद्र के किनारे के रेत को मुट्ठी में बांधकर एक शिवलिंग बना दिया। 

यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और नियम समय पर इसी शिवलिंग की स्थापना कर दी। 

छोटे आकार का सही शिवलिंग रामनाथ कहलाता है।


सेतु का हवाई दृश्य, सामने की ओर श्रीलंकाको जाता है


बाद में हनुमान के आने पर पहले छोटे प्रतिष्ठित छोटे शिवलिंग के पास ही राम ने काले पत्थर के उस बड़े शिवलिंग को स्थापित कर दिया। ये दोनों शिवलिंग इस तीर्थ के मुख्य मंदिर में आज भी पूजित हैं। 

यही मुख्य शिवलिंग ज्योतिर्लिंगहै।


सेतु का पौराणिक संदर्भ


पूरे भारत, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के कई देशों में हर साल दशहरे पर और राम के जीवन पर आधारित सभी तरह के नृत्य-नाटकों में सेतु बंधन का वर्णान किया जाता है। 

राम के बनाए इस पुल का वर्णन रामायण में तो है ही, महाभारत में भी श्री राम के नल सेतु का जिक्र आया है। 

कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। 

अनेक पुराणों में भी श्रीरामसेतु का विवरण आता है। 

एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका में इसे एडम्स ब्रिज के साथ - साथ राम सेतु कहा गया है। 

नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु के नाम से जाना जाता है। 

इसी पुल को बाद में एडम्स ब्रिज का नाम मिला। 

यह सेतु तब पांच दिनों में ही बन गया था। 

इसकी लंबाई १०० योजन व चौड़ाई १० योजन थी। 

इसे बनाने में उच्च तकनीक का प्रयोग किया गया था।




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4 : जगन्नाथपुरी

कहां है - पूर्व दिशा में उड़ीसा राज्य के पुरी में।

प्रतिमा : विष्णु की नीलमाधव प्रतिमा जो जगन्नाथ कहलाती है। सुभद्रा और बलभद्र की प्रतिमाएं भी।


इस मंदिर के उद्गम से जुड़ी परंपरागत कथा के अनुसार, भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। 

यह इतनी चकाचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। 

मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूर्ति दिखाई दी थी। 

तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु ( लकड़ी ) का लठ्ठा मिलेगा। 

उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। 

राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया। 

उसके बाद राजा को विष्णु और विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर और मूर्तिकार के रूप में उसके सामने उपस्थित हुए। 

किंतु उन्होंने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अंदर नहीं आये। 

माह के अंतिम दिन जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आयी, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झांका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा, कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। 

राजा के अफसोस करने पर, मूर्तिकार ने बताया, कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। 

तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गयीं।

उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों में से एक गंगोत्री धाम की कथा


श्रद्धालु यहां गंगा स्नान करके मां के दर्शन और पव‌ित्र भाव से केदारनाथ को अर्प‌ित करने ल‌िए जल लेते हैं।  

गंगोत्री समुद्र तल से ९,९८० ( ३,१४० मी. ) फीट की ऊंचाई पर स्थित है। 

गंगोत् से ही भागीरथी नदी निकलती है। 

गंगोत्री भारत के पवित्र और आध्‍यात्मिक रूप से महत्‍वपूर्ण नदी गंगा का उद्गगम स्‍थल भी है। 


गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी रखा गया। 

कथाओं में यह भी कहा गया है कि राजा भागीरथ ने ही तपस्‍या करके गंगा को पृथ्‍वी पर लाए थे। 

गंगा नदी गोमुख से निकलती है।


पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि सूर्यवंशी राजा सागर ने अश्‍वमेध यज्ञ कराने का फैसला किया। 

इसमें इनका घोड़ा जहां-जहां गया उनके ६०,००० बेटों ने उन जगहों को अपने आधिपत्‍य में लेता गया। 

इससे देवताओं के राजा इंद्र चिंतित हो गए।


ऐसे में उन्‍होंने इस घोड़े को पकड़कर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। 

राजा सागर के बेटों ने मुनिवर का अनादर करते हुए घोड़े को छुड़ा ले गए। 

इससे कपिल मुनि को काफी दुख पहुंचा। उन्‍होंने राजा सागर के सभी बेटों को शाप दे दिया जिससे वे राख में तब्‍दील हो गए।


राजा सागर के क्षमा याचना करने पर कपिल मुनि द्रवित हो गए और उन्‍होंने राजा सागर को कहा कि अगर स्‍वर्ग में प्रवाहित होने वाली नदी पृथ्‍वी पर आ जाए और उसके पावन जल का स्‍पर्श इस राख से हो जाए तो उनका पुत्र जीवित हो जाएगा। 

लेकिन राजा सागर गंगा को जमीन पर लाने में असफल रहे। 

बाद में राजा सागर के पुत्र भागीरथ ने गंगा को स्‍वर्ग से पृथ्‍वी पर लाने में सफलता प्राप्‍त की। 


गंगा के तेज प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए भागीरथ ने भगवान शिव से निवेदन किया। 

फलत: भगवान शिव ने गंगा को अपने जटा में लेकर उसके प्रवाह को नियंत्रित किया। 

इसके उपरांत गंगा जल के स्‍पर्श से राजा सागर के पुत्र जीवित हुए।


ऐसा माना जाता है कि १८वीं शताबादि में गोरखा कैप्‍टन अमर सिंह थापा ने आदि शंकराचार्य के सम्‍मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। 

यह मंदिर भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर स्थित सफेद पत्‍थरों से निर्मित है। 

इसकी ऊंचाई लगभग २० फीट है। 

मंदिर बनने के बाद राजा माधोसिंह ने १९३५ में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया।


फलस्‍वरूप मंदिर की बनावट में राजस्‍थानी शैली की झलक मिल जाती है। 

मंदिर के समीप 'भागीरथ शिला' है जिसपर बैठकर उन्‍होंने गंगा को पृथ्‍वी पर लाने के लिए कठोर तपस्‍या की थी। 

इस मंदिर में देवी गंगा के अलावा यमुना, भगवान शिव, देवी सरस्‍वती, अन्‍नपुर्णा और महादुर्गा की भी पूजा की जाती है।


हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। 

यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्‍ड दान करते हैं। 

मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्‍नान आदि के लिए जाते हैं।


तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। 

इस जल को पवित्र माना जाता है तथा शुभ कार्यों में इसका प्रयोग किया जाता है। 

गंगोत्री से लिया गया गंगा जल केदारनाथ और रामेश्‍वरम के मंदिरों में भी अर्पित की जाती है।


मंदिर का समय: सुबह 6.15 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 9.30 तक ( गर्मियों में )। 

सुबह 6.45 से 2 बजे दोपहर तक और अपराह्न 3 से 7 बजे तक ( सर्दियों में )।


मंदिर अक्षय तृतीया ( मई ) को खुलती है और यामा द्वितीया को बंद होती है। 

मंदिर की गतिविधि तड़के चार बजे से शुरू हो जाती है। 

सबसे पहले 'उठन' ( जागना ) और 'श्रृंगार' की विधि होती है जो आम लोगों के लिए खुला नहीं होता है। 


सुबह 6 बजे की मंगल आरती भी बंद दरवाजे में की जाती है। 

9 बजे मंदिर के पट को 'राजभोग' के लिए 10 मिनट तक बंद रखा जाता है। 

सायं 6.30 बजे श्रृंगार हेतु पट को 10 मिनट के लिए एक बार फिर बंद कर दिया जाता है। 

इसके उपरांत शाम 8 बजे राजभोग के लिए मंदिर के द्वार को 5 मिनट तक बंद रखा जाता है।


ऐसे तो संध्‍या आरती शाम को 7.45 बजे होती है लेकिन सर्दियों में 7 बजे ही आरती करा दी जाती है। तीर्थयात्रियों के लिए राजभोग, जो मीठे चावल से बना होता है, उपलब्‍ध रहता है (उपयुक्‍त शुल्‍क अदा करने के बाद)।


तीर्थयात्री प्राय: गनगनानी के रास्‍ते गंगोत्री जाते हैं। 

यह वही मार्ग है जिसपर पराशर मुनि का आश्रम था जहां वे गर्म पानी के सोते में स्‍नान करते थे। 

गंगा के पृथ्‍वी आगमन पर ( गंगा सप्‍तमी ) वैसाख (अप्रैल ) में विशेष श्रृंगार का आयोजन किया जाता है। 


पौराणिक कथाओं के अनुसार जिस दिन भगवान शिव ने भागिरथी नदी को भागीरथ को प्र‍स्‍तुत किया था उस दिन को ( ज्‍येष्‍ठ, मई ) गंगा दशहरा पर्व के रूप में मनाया जाता है। 

इसके अलावा जन्‍माष्‍टमि, विजयादशमी और दिपावली को भी गंगोत्री में विशेष रूप से मनाया जाता है।

पंडारामा प्रभु राज्यगुरु

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