संस्कृति और प्राकृतिक विचार वाणी के चार पाप ,
।। संस्कृति और प्रवृत्ति विचार ।।
हनुमानजी विगत कुछ दिनों से भगवान् राम के आस पास व्यग्र भाव से विचरण कर रहे थे लेकिन कुछ पूछने की उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी।
एक दिन भगवान् श्रीराम एक शिलाखंड पर बैठे हुए थे और हनुमानजी उनकी चरण सेवा कर रहे थे।
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भगवान् भक्तों का कष्ट बहुत दिन न देख पाने के स्वभाव के कारण स्वयं पहल करते हुए बोले कि- हनुमान !
इधर आप बहुत व्यग्र दिखाई दे रहे है, जो कुछ भी पूछना है निःसंकोच पूछो।
हनुमानजी बड़े विनम्रभाव से बोले की प्रभु आपने तो हमें माँ सीता का पता लगाने के लिए भेजा था, लेकिन समर्थ होते हुए भी आपने अंगद को संधि प्रस्ताव लेकर क्यों भेजा ?
यदि रावण आपका संधि प्रस्ताव मान लेता तो उसने जो सीता माँ का अपमान किया था उसका दंड आप कैसे देते ?
भगवान् श्रीराम मुस्कुराए और बोले कि-
दुनिया, समाज और संस्कृति सब तर्क के आधार पर नहीं चलता...!
सब के अपने अपने गुण धर्म और सबकी अपनी अपनी प्रवृत्ति होती है और सब उसी के अनुसार चलते है।
रावण राक्षस है और हम आर्य, हमारी उसकी प्रवृत्ति भिन्न है, पर स्त्री गमन, दुराचार, किसी की स्त्री हरण कर लेना, उपद्रव करके संसार के सारे सुख वैभव का उपभोग करना उसकी स्वाभाविक संस्कृति है।
हम आर्य है, हम जो अपने पराक्रम और परिश्रम से प्राप्त करना चाहते है वही वह आतंक फैलाकर पाना चाहता है।
तुम जिसे अपराध मान रहे हो वैसा कर्म तो वह देव, गंधर्व, किन्नरों के साथ कई बार कर चुका है जिसका कोई कभी प्रतिकार नहीं किया।
हम जो सीताजी को वापस मांग रहे हैं, उसे यह मेरा अपराध लग रहा है क्योंकि आज तक किसी ने ऐसी हिम्मत नहीं की।
अब इसे विधि का विधान कहें या प्राणियों का तुच्छ अहंकार कि जिस कृत्य से उसे थोड़ा बहुत भौतिक सुख मिल जाता है वह उसी को अपना संस्कृति बना लेता है।
तुच्छ बुद्धि वाले ऐसा कृत्य अनादी काल तक करते रहेंगे।
तुम निश्चिन्त रहो हनुमान रावण पुत्र पुत्रादि, बंधु, बांधव सब गंवाकर भी मेरा प्रस्ताव नहीं मानेगा।
वैसे प्रत्यक्ष रूप से यह लड़ाई मेरे और रावण के बीच की है...!
लेकिन यह लड़ाई वास्तव में दो संस्कृतियों और दो प्रवृत्तियों के बीच की है...!
जो अनादी काल तक चलती रहेगी।
इनमें समझौता कभी हो ही नहीं सकता।
आर्य और राक्षस हर युग में रहेंगे।
*जय जय श्री राधे*
वाणी के चार पाप
1. परुष भाषण अर्थात् कठोर वाणीः कभी-भी कड़वी बात नहीं बोलनी चाहिए।
किसी भी बात को मृदुता से, मधुरता से एवं अपने हृदय का प्रेम उसमें मिलाकर फिर कहना चाहिए।
कठोर वाणी का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
गुरु ने शिष्य को किसी घर के मालिक की तलाश करने के लिए भेजा।
शिष्य जरा ऐसा ही था – अधूरे लक्षणवाला।
उसने घर की महिला से पूछाः
"ए माई !
तेरा आदमी कहाँ है ?"
महिला क्रोधित हो गयी और उसने चेले को भगा दिया।
फिर गुरुजी स्वयं गये एवं बोलेः
"माता जी !
आपके श्रीमान् पतिदेव कहाँ है ?"
उस महिला ने आदर के साथ उन्हें बिठाया एवं कहाः "पतिदेव अभी घर आयेंगे।"
दोनों ने एक ही बात पूछी किन्तु पूछने का ढंग अलग था।
इस प्रकार कठोर बोलना यह वाणी का एक पाप है।
वाणी का यह दोष मानवता से पतित करवाता है।
2. अनृत वाणी अर्थात् अपनी जानकारी से विपरीत बोलनाः हम जो जानते हैं वह न बोलें, मौन रहें तो चल सकता है किन्तु जो बोलें वह सत्य ही होना चाहिए...!
अपने ज्ञान के अनुसार ही होना चाहिए।
अपने ज्ञान का कभी अनादर न करें, तिरस्कार न करें।
जब हम किसी के सामने झूठ बोलते हैं तब उसे नहीं ठगते, वरन् अपने ज्ञान को ही ठगते हैं...!
अपने ज्ञान का ही अपमान करते हैं।
इससे ज्ञान रूठ जाता है, नाराज हो जाता है।
ज्ञान कहता है कि 'यह तो मेरे पर झूठ का परदा ढाँक देता है...!
मुझे दबा देता है तो इसके पास क्यों रहूँ ?'
ज्ञान दब जाता है।
इस प्रकार असत्य बोलना यह वाणी का पाप है।
3. पैशुन्य वाणी अर्थात् चुगली करनाः इधर की बात उधर और उधर की बात इधर करना।
क्या आप किसी के दूत हैं कि इस प्रकार संदेशवाहक का कार्य करते हैं ?
चुगली करना आसुरी संपत्ति के अंतर्गत आता है।
इससे कलह पैदा होता है...!
दुर्भावना जन्म लेती है।
चुगली करना यह वाणी का तीसरा पाप है।
4. असम्बद्ध प्रलाप अर्थात् असंगत भाषणः प्रसंग के विपरीत बात करना।
यदि शादी - विवाह की बात चल रही हो तो वहाँ मृत्यु की बात नहीं करनी चाहिए।
यदि मृत्यु के प्रसंग की चर्चा चल रही हो तो वहाँ शादी - विवाह की बात नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार मानव की वाणी में कठोरता, असत्यता, चुगली एवं प्रसंग के विरुद्ध वाणी – ये चार दोष नहीं होने चाहिए।
इन चार दोषों से युक्त वचन बोलने से बोलनेवाले को पाप लगता है।
"द्रौपदी का कर्ज"
अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा महल में झाड़ू लगा रही थी तो द्रौपदी उसके समीप गई उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली...!
"पुत्री भविष्य में कभी तुम पर घोर से घोर विपत्ति भी आए तो कभी अपने किसी नाते - रिश्तेदार की शरण में मत जाना।
सीधे भगवान की शरण में जाना।"
उत्तरा हैरान होते हुए माता द्रौपदी को निहारते हुए बोली...!
"आप ऐसा क्यों कह रही हैं माता ?"
द्रौपदी बोली, "क्योंकि यह बात मेरे ऊपर भी बीत चुकी है।
जब मेरे पांचों पति कौरवों के साथ जुआ खेल रहे थे....!
तो अपना सर्वस्व हारने के बाद मुझे भी दांव पर लगाकर हार गए।
फिर कौरव पुत्रों ने भरी सभा में मेरा बहुत अपमान किया।
मैंने सहायता के लिए अपने पतियों को पुकारा मगर वो सभी अपना सिर नीचे झुकाए बैठे थे।
पितामह भीष्म, द्रोण धृतराष्ट्र सभी को मदद के लिए पुकारती रही मगर किसी ने भी मेरी तरफ नहीं देखा, वह सभी आँखें झुकाए आँसू बहाते रहे।
सबसे निराशा होकर मैंने श्रीकृष्ण को पुकारा....!
"आपके सिवाय मेरा और कोई भी नहीं है, तब श्रीकृष्ण तुरंत आए और मेरी रक्षा की।"
जब द्रौपदी पर ऐसी विपत्ति आ रही थी तो द्वारिका में श्री कृष्ण बहुत विचलित होते हैं।
क्योंकि उनकी सबसे प्रिय भक्त पर संकट आन पड़ा था।
रूकमणि उनसे दुखी होने का कारण पूछती हैं तो वह बताते हैं मेरी सबसे बड़ी भक्त को भरी सभा में नग्न किया जा रहा है।
रूकमणि बोलती हैं....!
"आप जाएँ और उसकी मदद करें।"
श्री कृष्ण बोले...!
"जब तक द्रोपदी मुझे पुकारेगी नहीं मैं कैसे जा सकता हूँ।
एक बार वो मुझे पुकार लें तो मैं तुरंत उसके पास जाकर उसकी रक्षा करूँगा।
तुम्हें याद होगा जब पाण्डवों ने राजसूर्य यज्ञ करवाया तो शिशुपाल का वध करने के लिए मैंने अपनी उंगली पर चक्र धारण किया तो उससे मेरी उंगली कट गई थी।
उस समय " मेरी सभी पत्नियाँ वहीं थी।
कोई वैद्य को बुलाने भागी तो कोई औषधि लेने चली गई।
मगर उस समय मेरी इस भक्त ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे मेरी उंगली पर बाँध दिया।
आज उसी का ऋण मुझे चुकाना है....!
लेकिन जब तक वो मुझे पुकारेगी नहीं मैं जा नहीं सकता।"
अत: द्रौपदी ने जैसे ही भगवान कृष्ण को पुकारा प्रभु तुरंत ही दौड़े गए।
।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ।।
!!!!! शुभमस्तु !!!
🙏हर हर महादेव हर...!!
जय माँ अंबे ...!!!🙏🙏
पंडित राज्यगुरु प्रभुलाल पी. वोरिया क्षत्रिय राजपूत जड़ेजा कुल गुर:-
PROFESSIONAL ASTROLOGER EXPERT IN:-
-: 1987 YEARS ASTROLOGY EXPERIENCE :-
(2 Gold Medalist in Astrology & Vastu Science)
" Opp. Shri Ramanatha Swami Covil Car Parking Ariya Strits , Nr. Maghamaya Amman Covil Strits, V.O.C. Nagar RAMESHWARM - 623526 ( TAMILANADU )
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आप इसी नंबर पर संपर्क/सन्देश करें...धन्यवाद..
नोट ये मेरा शोख नही हे मेरा जॉब हे कृप्या आप मुक्त सेवा के लिए कष्ट ना दे .....
जय द्वारकाधीश....
जय जय परशुरामजी...🙏🙏🙏